सपने देखने का ज़माना

 

यह सुन कर कितना अच्छा लगता है कि अपना देश दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी आर्थिक महाशक्ति बन गया है। हमने तरक्की करने की इस दौड़ में उस देश महान ब्रिटेन को पछाड़ दिया, जिसने डेढ़ सौ बरस हम पर शासन किया था। आगे उम्मीदों के खुशगवार उद्यान खिले हैं, जल्दी ही बन्धु, तरक्की की उड़ान तेज़ होगी, और तुम दुनिया की तीसरी बड़ी आर्थिक शक्ति बन जाओगे।  तरक्की की बातें सुन कर कितना अच्छा लगता है, जबकि इन सब बरसों में गरीब का बेटा गरीब नहीं फटीचर हो गया। जो एक झोंपड़ी का मालिक था, उसे खोकर फुटपाथ तक आ गया। वह भी ऐसा फुटपाथ जिसके टूटने पर कोई उसकी मुरम्मत करने की ज़हमत तक नहीं उठाता। कागज़ी खातों में सड़कें मुरम्मत होती हैं, और उन्हीं में खो जाती हैं। हां, कागज़ों का पेट भरने वाले दुकान से मॉल प्लाज़ा हो गये। मकान से अट्टालिका बन गए।  क्यों हमें याद दिलाते हो, इस देश का लक्ष्य प्रजातान्त्रिक ढंग से समाजवाद की स्थापना था। बेशक आज तक इसकी दुहाई मंचीय नेता जी के भाषणों में सुनाई देती है। इसका स्वर और ऊंचा हो जाता है, अगर चुनाव करीब हैं।
गूगल से लेकर विकीपीडिया तक आज तक हमें यही बताता है कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है अपना देश। कैसे मापोगे लोकतंत्र की इस तासीर को? क्या प्रायद्वीप जैसे इस देश की लम्बाई चौड़ाई माप कर या इसकी आबादी गिन कर। सुनते हो, जैसे ही अपने देश की आबादी एक सौ बयालीस करोड़ हुई तो यह चीन को पछाड़ कर दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश बन जाएगा।  बेशक आबादी बहुत है अपने देश में। इसीलिए यह देश दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र बन गया। यहां मतदाता की अपूर्व शक्ति है। सत्रह बार इस देश के मतदाताओं ने इसकी ताकत के साथ अपनी सरकार चुनी है या बदली है। लेकिन क्यों लगता है बन्धु, हर सरकार के बदलने पर सिर्फ चेहरे बदल जाते हैं, वेशभूषा बदल जाती है, लेकिन उसकी तासीर वैसी की वैसी रहती है? ‘आया राम गया राम’ पुराना जुमला है, लेकिन आज भी नेताओं की चुनाव में टिकट काट कर देखो, कब उनका ‘आया राम गया राम’ होकर अपने विरोधी दल के मंच पर कूद उसका झण्डा थाम लेगा, कुछ पता भी नहीं चलेगा।  यहां प्रजातंत्र का नाम आज भी लिया जाता है। उसमें मुखर अभिव्यक्ति की ताकत के नाम पर सड़कें जाम होती हैं, अवसाद ग्रस्त लोग टावरों पर चढ़ कर आत्महत्या की धमकियां देते नज़र आते हैं। उनकी समस्याओं के समाधान की उम्मीद एक पुचकार की तशतरी में रख कर उन्हें पेश कर दी जाती है। दिलासा के नाम पर फिलहाल उनमें कुछ अनुकम्पा की रेवड़ियां बांट दी जाती हैं, उनके विरुद्ध एक नया वक्तव्य दागते हुए।  सुरसा की आंत की तरह इस रेवड़ी संस्कृति का अंत नहीं। इसने देखते ही देखते हमारी कार्य संस्कृति को गायब कर दिया, और उसकी जगह मुफ्तखोर संस्कृति का वर्चस्व स्थापित कर दिया। जानते हो यहां समाजवाद भी जातिवादी समाजवाद हो गया है और अपनी जाति के लिए अधिक से अधिक रियायतें हथिया लेना। 
जनसेवा के नाम अपने-अपने वर्ग के लिए रियायतों के मील पत्थर स्थापित हो रहे हैं। दुनिया भर में है कोई एक भी ऐसा और देश जो कुल आबादी के दो तिहाई में कौड़ियों के भाव रियायती अनाज बांट दे। आंकड़ों से चौंकना चाहते हैं तो यह आंकड़ा अस्सी करोड़ से कम नहीं।  यहां उपलब्ध देश बन जाने के नाम पर आंकड़ों की बाजीगरी होती है। उनकी सच्चाई तलाशने जाओ तो तुम्हें अनपढ़ करार दे दिया जाता है। बड़े भाई फरमाते हैं, ‘अरे भाई देखो दुनिया भर में महंगाई कुलांचे भर रही है, और देखो हम परचून महंगाई नियंत्रित करके 6 प्रतिशत नीचे ले आए।’ पता चला सब्ज़ियां और फल सस्ते हो गये न, इसीलिए महंगाई वृद्धि दर नीचे आ गई। 
बन्धु न पूछना इनसे कि हमें तो अपने बाज़ारों में ये भी सस्ती होती नज़र नहीं आईं। कैसे आतीं? थोक के भाव कुछ गिरे, परचूनिया अपनी वही कीमत लेकर अंगद के पांव की तरह खड़ा है। इस कीमत लेना है तो लो, नहीं तो अपना रास्ता नापो। अधिक विवाद करोगे, तो पूछ लिया जाएगा, बन्धु, दुनिया भर में कच्चे तेल की कीमतें गिर कर आधी हो गईं, तेरे देश में तो साल भर से वहां की वहां खड़ी है, क्यों? न पेट्रोल कम्पनियों को अतीत में पड़ा घाटा खत्म होता है, न उनके अब मिलते लाभ पर अपना वज्रपाती कर घटाती है। तुझे कम कीमत पर सब्ज़ी-फल कैसे दे दें? देख अनाज तो और महंगा हो गया। हमें भी अपने बाल-बच्चे पालने हैं बन्धु, इसलिए कीमत न घटाने के लिए बेबस हैं।  
यह भी न पूछना कि आंकड़ा तो बताता है दवाएं सस्ती हो गईं, लेकिन प्यारे बाज़ार में दवा आये, तो उसे सस्ती बेचें। चोर दरवाज़े से गुपचुप मण्डियों में यह अपनी हाज़िरी लगवाती है और बेबस लोग कमी का मनोविज्ञान झेलते हैं, और सपना देखते हैं। लो भई सस्ते का सपना देखने का ज़माना तो आया।