चयन में संतुलन होना ज़रूरी

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्ति के संबंध में बनाई गई कालेजियम की प्रणाली को लेकर केन्द्र सरकार तथा सर्वोच्च न्यायालय के मध्य जो विवाद शुरू हुआ है, उसका समाधान किया जाना बेहद आवश्यक है। देश की स्वतंत्रता के बाद 26 जनवरी, 1950 को अपनाए गए लिखित संविधान के आधार पर भारत को गणतंत्र घोषित किया गया था। इसमें संसद, सरकार तथा न्यायपालिका के कर्त्तव्यों को अलग-अलग ब्यान करते हुए इनके अपने-अपने अधिकारों को भी दर्ज किया गया था, परन्तु समय-समय पर उत्पन्न हुये हालात तथा अनेक उठते मामलों के समाधान हेतु लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई संसद कानून बनाती है। सरकार उन कानूनों के अनुसार व्यवस्था चलाती है। न्यायालय इन कानूनों को आधार बना कर इनकी व्याख्या करते हुये फैसले करते हैं।
समूचे रूप में श्रेष्ठ प्रबंध चलाने हेतु इन तीन अंगों (विंगों) के स्वतंत्र रूप में काम करने के साथ-साथ इनमें आपसी सम्पर्क बना रहना भी ज़रूरी है, तभी श्रेष्ठ प्रबन्ध को कुशलता के साथ चलाया जा सकता है। विगत लम्बी अवधि से बड़ी शिद्दत के साथ यह महसूस किया जा रहा है कि आज देश की अदालतों में अलग-अलग पड़ावों पर लाखों ही मामले अटके तथा लटके पड़े हैं जिनके कारण बड़ी संख्या में लोगों को लम्बी अवधि तक न्याय का इंतज़ार करना पड़ता है। अनेक मामले ऐसे होते हैं जिनके फैसले का इंतज़ार करते उम्रें तथा पीढ़ियां गुम हो जाती हैं। इसलिए समय पर न्यायाधीशों की नियुक्तियों की आवश्यकता है। सर्वोच्च न्यायालय का एक बड़ा काम संविधान की मूल भावना को सुरक्षित रखना भी होता है। इसलिए इन विंगों के मध्य यह सुनिश्चित बनाया जाना ज़रूरी है कि वे अपने-अपने कार्य स्वतंत्र रूप में करते रहें। नि:सन्देह इसमें न्यायाधीशों की नियुक्ति महत्त्वपूर्ण कार्य है।
सरकार को प्रतीत होता है कि कालेजियम प्रणाली द्वारा सर्वोच्च न्यायालय इन नियुक्तियों पर अपना एकाधिकार चाहता है परन्तु सरकार के अनुसार वह इनमें अपनी भागीदारी भी निश्चित करना चाहती है। इन पहलुओं को लेकर ही ऐसा विवाद बना है परन्तु दूसरी तरफ इस विवाद के संबंध में बहुत-से बुद्धिजीवी तथा खास तौर पर विपक्षी पार्टियां दोष लगा रही हैं कि सरकार हाईकोर्ट तथा सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्तियां अपने हाथ में लेकर न्यायपालिका को कमज़ोर करना चाहती है।
अनेक लोकतांत्रिक देशों में न्यायाधीशों की नियुक्तियों के भिन्न-भिन्न ढंग हैं। कई देशों में तो ये नियुक्तियां सरकार द्वारा ही की जाती हैं। फिर भी इस क्षेत्र में एक संतुलन बनाने की आवश्यकता है। इसलिए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग बनना आवश्यक है, जिसमें न्यायालय तथा सरकार के साथ-साथ इन क्षेत्रों के साथ संबंधित कुछ प्रबुद्ध व्यक्तियों की भागीदारी भी हो जिनके संयुक्त मतानुसार इस अति-महत्त्वपूर्ण कार्य को सम्पन्न किया जा सकता है। हम समझते हैं कि इसमें किसी न किसी रूप में संसद की संयुक्त कमेटी की भागीदारी को भी आवश्यक बनाया जाना चाहिए तथा इसके साथ-साथ इस समूचे प्रबन्ध में पारदर्शिता का होना भी बेहद ज़रूरी है। इससे ही भारतीय लोकतंत्र की परिपक्वता पहचानी जा सकेगी। 
 

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द