दिन-ब-दिन गहरा रही है देश में रोज़गार की समस्या

केन्द्र सरकार के खिलाफ लामबंद हो रहे विपक्ष के लिए बेरोज़गारी नंबर एक मुद्दा बना हुआ है। वैसे बेरोज़गारी महंगाई और भ्रष्टाचार के साथ भारत के राजनीतिक पटल पर हमेशा एक सर्वकालिक मुद्दा रही है लेकिन मौजूदा सरकार पर विपक्ष द्वारा बेरोज़गारी को लेकर किया जा रहा हमला कोरोनाकाल के बाद सरकार द्वारा स्थितियों को पूरी तरह से नहीं संभाल पाने को लेकर है। कोरोना के कारण भारत ही नहीं पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्थाएं अस्त व्यस्त होने के लिए मजबूर हुईं। लेकिन अब करीब एक साल बाद कोरोना उपरांत नवजीवन प्राप्त कर रही भारतीय अर्थव्यवस्था, देश में हर तरफ फैली बेरोज़गारी पर काबू नहीं लगा सकी। यदि अर्थव्यवस्था की दृष्टि से देखें तो पूर्ण रोज़गार यानी रोज़गार के लिए जितने भी व्यक्ति इच्छुक हों, उन सबके लिए रोज़गार की उपलब्धता की स्थिति व्यावहारिक रूप से कभी पैदा नहीं होती। लेकिन फासला कम से कम हो इसकी कोशिश सभी सरकारें करती हैं और यह ज़रूरी भी होता है। 
तात्विक रूप से देखें तो भारत में बेरोज़गारी को लेकर एक राय नहीं बनायी जा सकती; क्योंकि यहां बेरोज़गार और रोज़गार दोनों के कम से कम तीन वर्ग हैं। पहला है ग्रामीण व खेतिहर बेरोज़गार, दूसरा है अर्धकुशल व अर्धशिक्षित शहरी व महानगरीय बेरोज़गार और तीसरा है उच्च व पेशेवर शिक्षा प्राप्त शहरी व महानगरीय मध्यवर्गीय युवा बेरोज़गार। इन तीनों श्रेणी की बेरोज़गारी के मुकाबले रोज़गार प्रदाताओं की भी दो मुख्य श्रेणी हैं। एक है सरकारी क्षेत्र और दूसरा है निजी क्षेत्र। गौर से देखें तो सरकारी क्षेत्रों में असंगठित व संगठित क्षेत्रों के कामगारों के लिए रोज़गार मॉड्यूल नहीं बनाया गया। जबकि निजी क्षेत्र तो पूरी तरह से बाज़ार की गतिविधियों पर ही निर्भर है। निजी क्षेत्र की बात करें तो अभी हमारी अर्थव्यवस्था में आयी जबरदस्त घरेलू मांग के चलते रोज़गारों का सृजन फिर से ज़रूर शुरू हो गया है, पर अर्थव्यवस्था के बाह्य क्षेत्र में आसन्न अभूतपूर्व मंदी और शिथिलता के कारण बड़े पैमाने पर रोज़गार का मिलना अभी भी संभव नहीं हो रहा। 
यदि सरकार की तरफ से उत्पन्न किये जाने वाले रोज़गारों की बात करें तो इस मामले में मोदी सरकार की रोज़गार नीति पर कोरोना के पहले भी भारी उदासीनता का आरोप लगता रहा है। जबकि मोदी सरकार हमेशा से यह मानती रही है कि बेरोज़गारी से निपटने का कारगर तरीका निरंतर बढ़ता स्वरोज़गार और उद्यमशीलता है। यही वजह है कि मोदी सरकार बार-बार रोज़गार के संबंध में अपनी मुद्रा लोन योजना का जिक्र करती रही है। इसके तहत जैसे कि मौजूदा साल में करीब 4.5 लाख करोड़ रुपये का लोन आवंटित किया गया है और पिछले सालों में यह कुल 23 लाख करोड़ रुपये, करीब चालीस करोड़ लोगों को बतौर कारोबार लोन प्रदान किये गये हैं। शैक्षिक रोज़गारों को लेकर सरकार का अघोषित रूप से यह कहना है कि वह सरकारी दफ्तरों में असीमित रोज़गार नहीं दे सकती और इसे लेकर वह स्टार्टअप व्यवसाय का हवाला देती है, जिसके तहत भारत में अब तक 85 हजार स्टार्टअप तैयार हुए हैं। 
देखा जाए तो देश में स्वरोज़गार व उद्यमशीलता चाहे अर्धशिक्षित समूहों में अपना कारोबार करने के रूप में हो या उच्च पेशेवर शिक्षा प्राप्त लोगों में स्टार्टअप बिजनेस को लेकर हो, इससे बेरोज़गारी का संपूर्ण समाधान नहीं निकाला जा सकता है। क्योंकि हर कामगार स्वरोज़गारी नहीं हो सकता है और बहुतायत कामगार वर्ग, समूची दुनिया में या तो सरकारी विभागों की तरफ से या स्थापित निजी निगमों की रोज़गार रिक्तियों पर भरोसा लगाये रहता है। इस मामले में मोदी सरकार की समझ पूर्ववर्ती सरकारों की भांति ही अस्पष्ट और कैजुअल प्रकृति की रही है। सरकारी निर्माण परियोजनाओं-सागरमाला, डिजिटल इंडिया की वजह से स्वंयमेव रोज़गार सृजन बेशक कायम है पर शैक्षिक रोज़गार को लेकर सरकार द्वारा अपने तमाम विभागों की ज़रूरी रिक्तियों को भरने को लेकर टालमटोल करना और अनिर्णित रहना साफ-साफ दिखायी पड़ता है। 
ये प्रवृति न केवल मोदी सरकार में है बल्कि पहले की केन्द्र सरकारों में और साथ-साथ सभी राज्य सरकारों में भी दिखायी पड़ रही है। इसके मूल में जाएं तो इसका कारण ये है कि कोई भी सरकार विगत से चली आ रही पक्की सरकारी नौकरी अब नहीं देना चाहती है। वे अब तमाम श्रम कल्याण कानूनों से सुसज्जित पक्की सरकारी नौकरी देने से कतराती हैं। सरकारों को लगता है कि आजीवन सरकारी दामाद यानी पहले साठ साल तक मोटी तनख्वाह और फिर उसके बाद मोटी पेंशन युक्त नौकरी सरकार के राजखजाने पर बोझ डालती है। दूसरी तरफ सरकार की लागत व डिलीवरी या आमदनी में असंतुलन की स्थिति पैदा करती है। लेकिन अब सवाल यह है कि कोई भी सरकार यह क्यों नहीं सोचकर चलती है कि सरकार की विशाल मशीनरी को संचालित करने, सरकार के तमाम कार्यक्रमों नीतियों व योजनाओं के क्रियान्वयन की ज़रूरतों के हिसाब से रोज़गार सृजन, वाजिब संविदा दर पर निर्धारित राष्ट्रीय नीति के जरिये संचालित किया जाए, तो इसमें कोई गलत बात नहीं होगी। सरकार  द्वारा रोज़गार दिया जाना कोई खैरात नहीं है और न ही किसी पर यह कोई अहसान है। 
यही वजह है कि पिछले दस सालों में सेवानिवृत्ति के मुकाबले भर्तियों की संख्या में असंतुलन साफ दिखा है। बिहार में नितीश लालू की नवगठित सरकार ने राजनीतिक फायदे के लिए इस बात की घोषणा कर दी कि वे करीब दस लाख सरकारी नौकरियां देंगे। लेकिन इस पर कोई त्वरित कार्यवाही नहीं दिखी है। इसकी वजह साफ है कि राजनीतिक लोकलुभावन और राजखजाने के बीच संतुलन होता उन्हें नहीं दिख रहा है। अगर सरकारें देश की समूची श्रमशक्ति के लिए बेहतर सेवा शर्तो पर एक बराबर संविदा की नीति, निजी व सरकारी तथा संगठित व असंगठित सब पर आरोपित करें तो इससे रोज़गारों की उत्पादकता व कार्यपरिस्थितियों के बीच एक सही संतुलन भी बैठेगा और सरकार व अर्थव्यवस्था के प्रदर्शन को भी त्वरित गति मिलने के साथ भारी मात्रा में रोज़गार मिलना सुनिश्चित होगा। पर इसके साथ ही रोज़गार सृजन के नए-नए क्षेत्रो की तलाश भी ज़रूरी है।

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर