...तो चर्चा नहीं होता!
आज तो छेदी मल जी के जैसे सारे रंग-ढंग बपदले हुए थे—न वो पुराने तेवर, न वे जाने-पहचाने हाव-भाव, न कुर्ते-पाजामे को कलफ, और न मुंह में पान की गिलोरी। चुपचाप आये, और आकर ताड़ के मूड़े पर बैठ गये। धीमे-धीमे स्वर में इस एक शे’अर को गुनगुनाने लगे—
की मेरे ़कत्ल के बाद उसने जफा से तौबा
हाय, उस जूद-पशेमां का पशेमां होना।
हमने भी मौका की नज़ाकत को समझा, और बजाय इधर-उधर की हांकने के, सीधे मछली की आंख पर निशाना साधा—अमां, क्या बात हो गई मियां साहिब! कुछ ज्यादा ही तकलीफ में लगते हैं। क्या कोई नई बात हो गई?
—ना जी, न नई, न पुरानी। हमारे हाज्मे तो बस बातें ही भरी हैं। और फिर वैसे भी हमारे आस-पास के मुआशिरे में राजनीति ने जिस प्रकार के मरहले कायम किये हैं, वहां तो बस, तकलीफ ही तकलीफ है। हमको तो साहिब, अब कांटों के बिस्तर पर भी नींद आ जाने की जैसे आदत-सी हो गई है। मल जी अभी भी अपनी ़गमगीनी का दामन छोड़ने को जैसे तैयार नहीं हो रहे थे।
— हम से बांट लीजिए न अपने ़गमों को मियां, वो हमारे अब्बा जी मरहूम फरमाया करते थे कि सुख बांटने से बढ़ता है, और ़गमों को बांटने से मरदूये कम हो जाते हैं। हमने हमदर्दी की एक और पिचकारी मारी थी भर कर।
तीर शायद सीधे जिगर पर लगा था जाकर। छेदी लाल जी हमारी ओर मुखातिब हुए और थोड़ा कस-मसाते हुए-से बोले—यह क्या हो गया जी साहिब! हमने सोचा कुछ था, किन्तु हो कुछ और ही गया है।
—क्या हो गया है...कुछ खुलासा तो कीजिए। हमने अपनी विनम्रता को कायम-दायम रखते हुए कहा।
—हुआ यह है भाई साहिब कि दल-बदल की दल-दल हमारे देश की राजनीति में इतना कीचड़ हो गय है कि जो भी उतरता है, धंसता ही जाता है। न तो किसी का दीन-धर्म रहा है, न किसी की आंखों में शर्म-ओ-हया रही है। बस, घुसे चले जा रहे हैं उस हमाम में जिसका प्रत्येक शख्स नंगा है।
—वो तो ठीक है मियां छेदी मल जी, मगर कोई बात भी तो बताइये, ताकि हम भी कुछ मौजूं हो सकें। इस बार हमने थोड़ा आंख मिलाने जैसे अन्दाज़ में कहा।
—बातें तो बहुत हैं, किन्तु इन दो बातों ने पूरी रात सोने नहीं दिया। एक तो कल रात एक समाचार पत्र में पढ़ा कि सफेद वस्त्र-धारी एक पुरानी और बड़ी पार्टी में तीन-तीनपीढ़ियों से सत्ता-सुख भोगते आ रहे एक नेता जी ने एकदिन गले में एकाएक गेरुआ क्या डाला कि उन्हें अपने इस मादरे-वतन पार्टी में हर तरफ कीड़े ही दिखने लगे। कहते हैं, इस पार्टी में अब नीचे से ऊपर तक भ्रष्टाचारी ही रह गये हैं...यानि ईमानदार केवल वही थे। बाकी सब चोर-लुटेरे रहे होंगे। उनकी मानें, तो यह एक मिसरा क्या मौजूं नहीं रहेगा, कि तुम अगर हो भी, तो क्या तुम हो, और हम जो हैं, तो हम ही हम हैं।
—बात तो आपकी सोलहा आना दुरुस्त है, मगर आजकल तो मियां, सभी बोली पर लगे हैं...आई.पी.एल. की तरह। आप किस-किस का मातम मनाते रहेंगे न! हमने सान्त्वना देना चाही।
या फिर जब तक वह सत्ता-सुख भोग रहे थे, तब तक वह पार्टी ईमानदारों की भूमि थी। आज उनका सर सूख गया है, तो यह भी पंछी की तरह उसे छोड़ आए हैं। छेदी मल जी ने एक गहन उच्चवास छोड़ते हुए कहा।
हमने बात को बदलने जैसे अन्दाज़ में पूछा—अच्छा मियां, वो दूसरी बात क्या है, ज़रा उस पर भी प्रकाश डाल ही दीजिये।
—दूसरी बात सुनने से पहले एक शे’अर अज़र् करना चाहता हूं जनाबेआली, अगर सुनें तो। छेदी मल जी भी अब उपने पुराने कपड़ों में लौटने लगे थे।—वो शे’अर कुछ यूं है साहिब कि-
वही ़कातिल, वही मुन्सिफ, वही ह़ािकम ठहरे
अकरबा मेरे करे, ़खून का दावा किस पर।
—वाह जी वाह! हमने भी किसी व़फादार नाज़िरीन की तरह दाद देने के अन्दाज़ में कहा—वाह! क्या कमाल शे’अर कहा है, किन्तु इस तन्ज़ के पीछे वाला कारण भी तो बता दो न! हमने उनकी ही तरह हाथों को हवा में लहराते हुए कहा।
—नहीं, यह तन्ज़ नहीं है, अपितु यह वो सच है जो इस देश की तासीर बन चुका है, यानि दो-दो कानून, दो-दो इन्साफ और इन्साफ को लागू करने वाले भी दो-दो। यानि यह भी, कि यहां दो प्याज़ चुराने वाले को जूते भी पड़ते हैं, और जेल भी हो जाती है, किन्तु दो-दो मौतों का इल्ज़ाम ढोने वाले दबंग अदालतों से भी साफ-सुथरे बरी हो जाते हैं। पुलिस उनकी, कानून उनका, और इन्साफ भी उनका। यहां तो यह हाल है- मियां शऱाफत अली जी, कि—
हम आह भी भर दें, तो हो जाते हैं बदनाम
वो ़कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता।
हमने ताली बजाई। हमने कोर्निश भी की। हम और भी दाद देना चाहते थे, किन्तु छेदी मल जी हवा में लटकते किसी भुतहे साये की भांति विक्रमादित्य के कंधे से उतरे भूत की भांति कर यह गये, कि वो गये।