साहसिक निर्णय लेने वाले नेता को अधिक पसंद करने लगे हैं लोग

अमरीकी थिंक टेंक प्यू रिसर्च की लोकतांत्रिक देशों को लेकर हालिया रिपोर्ट भारत के संदर्भ में इस मायने में चौकाने वाली है कि देशवासियों को डेमोक्रेसी का ऑटोक्रेसी मॉडल अधिक लुभा रहा है। रिपोर्ट के अनुसार देश की लोकतांत्रिक सरकार की कार्य व्यवस्था को लेकर स्वीडन के बाद दूसरे नम्बर पर भारत के लोग संतुष्ट हैं। स्वीडन में जहां 75 फीसदी लोग वहां लोकतांत्रिक सरकार के काम करने के तौर तरीके से संतुष्ट हैं, वहीं भारत में 72 प्रतिशत लोग लोकतांत्रिक सरकार के काम करने के तौर-तरीकों को पसंद करते हैं। इस साल दुनिया के करीब 50 देशों में चुनाव होने जा रहे हैं। इस मायने में प्यू द्वारा लोकतांत्रिक व्यवस्था को लेकर 24 देशों में किया गया सर्वे अपना खास महत्व रखता है। मज़े की बात यह है कि सर्वे में शामिल देशों में केवल 33 फीसदी अमरीकी ही वहां की लोकतांत्रिक सरकार के कार्य करने की व्यवस्था को लेकर संतुष्ट है। खैर, यह तो अलग बात हुई परन्तु सबसे चौकाने वाला तथ्य यह है कि वैसे तो दुनिया के अधिकांश देशों की आम जनता साहसिक निर्णय करने वाले नेता को अधिक पसंद करने लगी है परन्तु हमारे देश के संदर्भ में महत्वपूर्ण यह हो जाता है कि 2017 में जहां 55 प्रतिशत देशवासी ऑटोक्रेसी को पसंद करते थे, उसका ग्राफ  तेज़ी से बढ़ा है और आज 67 प्रतिशत लोगों को ऑटोक्रेसी या यूं कहें कि अधिनायकवादी नेता पर अधिक विश्वास है। ऑटोक्रेसी पर विश्वास बढ़ने वाले देशों में भारत के अलावा केन्या, दक्षिण कोरिया, जर्मनी, पॉलैंड सहित कई देश हैं। सर्वे में शामिल 24 में से 8 देशों में ऑटोक्रेसी के प्रति रुझान बढ़ा है। 
दरअसल लोग निर्णय करने वाले नेता को पसंद करते हैं। कुछ करने का जज़्बा ही देशवासी नेता में खोजते हैं। विपक्ष के लाख आरोप-प्रत्यारोप, एकजुटता के बावजूद नरेन्द्र मोदी पिछले दो चुनावों में लगातार जनता की पसंद बने रहे और 2024 का चुनाव भी लगभग उसी दिशा में बढ़ता लग रहा है। विपक्षी दल मुद्दे बनाने के प्रयास करते हैं, परन्तु वहीं मुद्दे सेल्फ गोल में परिवर्तित होने लगते हैं। हालिया चुनावी बॉंन्ड को लेकर जिस तरह से भाजपा को घेरने का प्रयास किया गया, वह अभी तक तो सफल होता नज़र नहीं आ रहा हैं परन्तु समझने वाली एक महत्वपूर्ण बात यह हो जाती है कि चंदा देने वाले कौन हैं? साफ है कि पैसे वाले अमीर लोग। चुनावी बॉंन्ड में पैसा तो अमीर लोगों से आ रहा है और उनका प्रतिशत इतना नहीं है कि वह चुनाव परिणाम को प्रभावित कर सके। ठीक इसके विपरीत सत्तारुढ़ दल को गरीब आम मतदाताओं का समर्थन प्राप्त है यानी कि चुनावी बॉंन्ड को लाख मुद्दा बनाने के बावजूद भाजपा आम मतदाता को अपने पक्ष में साधने में पूरी तरह सफल रही है। दूसरा यह कि कोई भी पार्टी हो उसके अधिकांश टिकट पैसे वाले लोगों को ही मिलते हैं। 
जहां तक लोकतंत्र के ऑटोक्रेसी मॉडल की बात है, आज नरेन्द्र मोदी पर यह आरोप खुले आम विपक्ष लगाता आ रहा है, परन्तु विगत समय पर दृष्टिपात करें तो नरेन्द्र मोदी का गुजरात मॉडल ही उन्हें केन्द्र की सत्ता दिलाने में सहायक रहा है। दरअसल देश को हमेशा सख्त मिजाज़ वाले मजबूत नेता की आवश्यकता महसूस होती रही हैं। किसी भी दल से सख्त मिजाज़ नेता सामने आया है तो आमजन ने उन्नें हाथोंहाथ लिया। नेहरु को उस समय के संदर्भ में लोगों द्वारा महत्व दिया गया तो नेहरु के बाद लाल बहादुर शास्त्री को ईमानदार और दबंग नेता के रूप में आज भी याद किया जाता है। 
प्यू की रिपोर्ट में ऑटोक्रेसी को पसंद करने वाले लोगों की 12 प्रतिशत बढ़ोतरी से साफ  समझ में आ जाना चाहिए कि लोग परिणाम पर नहीं जाते, आलोचना को भी खारिज कर देते हैं जब कोई निर्णय लेने में हिचकता नहीं है। नरेन्द्र मोदी के यही बात पक्ष में जाती है कि नरेन्द्र मोदी पर विपक्ष तानाशाही, जुमलेबाज, झूठी बात कहना या ना जाने कितने आरोप लगाते हैं परन्तु 2014 और 2019 के चुनाव परिणाम तो विपक्ष के आरोपों को सिरे से नकार रहे हैं। धारा-370, राम मंदिर का निर्माण, तीन तलाक, पाकिस्तान पर सर्जिकल स्ट्राइक जैसे  निर्णय आदि को देशवासी अपना गौरव समझने लगे हैं। इस तरह के अनेक उदाहरण मिल जाएंगे। यही कारण है कि यह चुनाव भी मोदी बनाम विपक्ष के बीच लड़ा जा रहा है। लोकसभा के पिछले दो चुनाव भी मोदी के नाम से ही लड़े गये और जनता ने स्पष्ट बहुमत देकर सब कुछ साफ कर दिया।
 हालिया पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव भी भाजपा क्षेत्रीय क्षत्रपों के स्थान पर मोदी की गारंटी के नाम से लड़े गये और परिणाम सामने हैं। 
दरअसल डेमोक्रेसी के नए रूप ऑटोक्रेसी में एक ही चेहरा-एक ही नाम पर लड़ा जाता है। 18वीं लोकसभा के हो रहे चुनावों में भी यही स्थिति है। कहने को भले ही यह कहा जा रहा है कि 2024 के चुनाव की दशा और दिशा नरेन्द्र मोदी, अमित शाह, राहुल गांधी, मल्लिकार्जुन खड़गे, ममता बनर्जी, नीतिश कुमार, शरद पवार, एम.के. स्टालिन, तेजस्वी यादव, असदुद्दीन औवेसी तय करने वाले हैं, परन्तु ज़मीनी हकीकत तो यह है कि 2024 का चुनाव नरेन्द्र मोदी के इर्दगिर्द है। अब राजनीतिक दलों को यह समझ लेना चाहिए कि आमजन को मुखर और निर्णय लेने की क्षमता वाला नेता चाहिए। सत्ता में आना है तो आमजन तक यह संदेश जाना ज़रूरी है। एक बात साफ हो जानी चाहिए कि लोगों ने ऑटोक्रेसी यानी कि अधिनायकवाद को नहीं अपितु लोकतंत्र के अधिनायकवादी मॉडल को पसंद किया है। देश के 72 प्रतिशत लोगों को लोकतांत्रिक सरकार के कार्य करने के तरीकों को पसंद करना और साथ ही एक ही चेहरा-एक ही नाम को पसंद करना डेमोक्रेसी का ऑटोक्रेसी मॉडल है।  

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