चार ज़िलों के चार गांवों की बात

यब सबब की बात है कि इन पंक्तियों के लेखक का गत सप्ताह जिन गांवों से वास्ता पड़ा, उनमें से चार अलग-अलग कारणों से चर्चा में हैं। गुरदासपुर ज़िले की धारीवाल तहसील का गांव लहिल कलां, उस गांव में जन्मे लेखक डा. सरबजीत सिंह छीना के कारण चर्चा में है। उनकी अपने गांव के बारे लिखी पंजाबी पुस्तक ‘मेरा पिंड आपने लोक’ का अंग्रेज़ी अनुवाद एमाज़ोन ने अपना लिया है और सैकड़ों देशों में चर्चित हो रही है। अब इस गांव की जीवन प्रक्रिया एवं संस्कृति को चार चांद लग चुके हैं। गत सप्ताह उसे टैलीफोन किया तो वह इसी गांव से बोल रहा था। वहां बैसाखी का मेला मनाया जा रहा था जो शुरू से वहां आयोजित होता आ रहा है। पड़ोसी गांवों के लोग पांवों से भारी घुंघरू पहन कर भांगड़ा डालते हैं। उनका अंग-अंग घुंघरुओं से लदा होता है। रौणक की कोई सीमा नहीं रहती। 
इस गांव में तपस्वी बाबा कौल दास का मंदिर भी है, जहां प्रतिदिन लंगर लगता है, जहां हिन्दू, सिख, इसाई मिल-जुल कर खाना खाते हैं। यहां उनके रहने का विशेष प्रबंध भी है। जिस समय डा. छीना से बात हुई, कबड्डी का टूर्नामैंट चल रहा था। अन्य टूर्नामैंट भी होते रहते हैं। इस मेले की मुख्य विलक्षणता इसके आखिरी दिन के कारण है, जहां महिलाओं के अतिरिक्त कोई अन्य शामिल नहीं हो सकता। एक धारणा के अनुसार बाबा कौल दास को जहांगीर बादशाह ने जागीर दी थी जिसमें 40 एकड़ ज़मीन भी शामिल थी। 
डा. छीना ने उस मुसलमान महिला की बात भी बताई जो सन् सैंतालीस में यहां रह गई थीं। उसने एक हिन्दू से विवाह किया था और मंदिर भी जाती रही। उस हिन्दू की मृत्यु हुई तो उसे गांव के रौबदार तथा दयावान व्यक्ति ज्ञानी करतार सिंह ने अपने घर बसा लिया। नये ठिकाने से वह गुरुद्वारा साहिब भी जाती रहीं। यहां तक कि उसे गांव वाले ज्ञानण भी कहने लग पड़े। खूबी यह कि ज्ञानी जी के निधन के बाद उसने वह घर छोड़ दिया और गुरुद्वारा साहिब में रहने लगी, जहां उसने अपने जीवन के अंमित वर्ष व्यतीत किये और श्वास त्यागे। 
दूसरा गांव भड़ी खन्ना-खमाणों सड़क पर है और मेरे बचपन के समय ज़िला लुधियाना की तहसील समराला का भाग था। ‘पंथ प्रकाश’ के रचेता भाई रत्न सिंह भंगू भी भड़ी में जन्मे थे। मुगलों की चढ़त के समय भाई साहिब के बड़े भाई मेहताब सिंह ने भाई सुक्खा सिंह के साथ मिल कर हरिमंदिर साहिब के बेअदबी करने वाले मस्सा सिंह रंगड़ का सिर काटा था। यह गांव कई महारथियों की जन्म भूमि है। उस गावं में जन्मे दलजीत सिंह भंगू ने वहां भाई रत्न सिंह यादगारी लाइबे्रेरी ही नहीं खोली, अपितु उस गांव के पुराने विद्यार्थियों की एलुमीनाई संस्था भी स्थापित की है। इसका लोगो ‘शुद्ध ज्ञान, सही समझ, सुच्चा कर्म’ है। दलजीत सिंह सेवानिवृत्त पीसीएस अधिकारी है और मेरा मित्र भी। उसने मुझे नव-स्थापित संस्था का संरक्षक नियुक्त किया है। मैं अपने बचपन में भड़ी वाले हायर सैकेंडरी स्कूल में पढ़ता था तो इसका दर्जा प्राइमरी तक सीमित था और स्कूल की कमांड एक मौलवी के पास थी। मेरे दाखिले के समय मौलवी साहिब ने मेरे नाना जी से मेरी आयु पूछी तो नाना ने अनुमान लगा कर चार वर्ष बताई। 
मौलवी साहिब ने चार वर्ष पीछे जाकर मेरा जन्म 27 फरवरी, 1935 का लिख दिया, जो आज तक मेरे साथ निभ रहा है। मेरे पिता जी के बताने के अनुसार मेरा जन्म 1934 में हुआ था, 9 चेत्र अर्थात 22 मार्च को। चाहे मैंने सरकारी नौकरी अपनी सेवानिवृत्ति से नौ वर्ष पहले छोड़ दी थी, परन्तु मैं अपने जानकारों से सेवानिवृत्ति के समय चार-छह मास की एक्टैंशन के लिए मिन्नतें करते भी देखा। यह देख कर हंसी आती तो सोचता कि मेरे नाना ने मुझे 11 मास की एक्सटैंशन भड़ी के स्कूल में दाखिल करवाने के समय ही ले दी थी, 1940 में। 
310 हैक्टेयर रकबे वाला पटियाली गांव रूपनगर में काठगढ़ के निकट पड़ता है। इसकी कुल आबादी 993 है और इसके निकट रूपनगर रेलवे स्टेशन है। इसे देखने का कारण मेरी अपने गांव का ताज़ा दौरा बना। चालक तरलोचन सिंह मुझे मेरे गांव लेकर जा रहा था तो उसने एक स्थान पर गाड़ी धीमी कर ली। मैंने सोचा कि टायर पंक्चर हो गया है। क्या देखता हूं कि हमारे बाएं हाथ एक लंगर लगा हुआ है। उस स्थान पर पुलिस की वैन भी खड़ी थी। सभी चाय पीकर अपने-अपने सब्ज़ी-प्रसादे लेकर अपनी-अपनी गाड़ी में ले जाकर ग्रहण करते थे। 
तरलोचन सिंह मेरे तथा मेरी पत्नी के लिए चाय ले आया और स्वयं भी पी। उसने यह भी बताया कि यह सेवा निभाने वाला एक त्यागी तपस्वी है जिसने दूसरे हाथ गुरुद्वारा ही नहीं बनाया, यहां हायर सैकेंडरी स्कूल खुलवाने में भी योगदान डाला है। लंगर तो सिर्फ राहगीरों के लिए है। स्कूल की स्थापना इसलिए करवाई कि वह वहां की बच्चियों को शिक्षित देखना चाहता था। इन गांवों में अधिकतर सैनी तथा गुज्जर रहते थे, जिनके घरों के बच्चे, क्या लड़के, क्या लड़कियां अपने माता-पिता के साथ कृषि या मज़दूरी के व्यवसाय में लग जाते थे। उस भक्त को यह स्वीकार नहीं था। विशेषकर  बेटियां ऐसा करें। 
चौथा सूनी मेरा अपना गांव है। बाबा करोड़ा सिंह का बसाया हुआ। सन् सैंतालीस का विभाजन इसे सुर्खियों में ले आया था। हुआ यह कि क्षेत्रवासियों की मांग पर इसने अपने गांव के मुस्लिम अराइयों को अमृतपान करवा कर सिख बना लिया और पुरुषों के सिर पर पीले पटके तथा महिलाओं को पीली चुनरियों से सजा दिया। उन्होंने पाकिस्तान जाने से इन्कार कर दिया था। तीन दिन के बाद अमृतपान का आह्वान करने वाले हज़ार-डेढ़ हज़ार लुटेरे पीले पटके वाले 23 अराइयों की हत्या के बाद उनके घर लूट कर पीली चुनरी वाली सात महिलाओं का अपहरण कर ले गए। उनमें से दो महिलाएं अपहरणकार्ताओं को चकमा देने का बाद रातोंरात पैदल चल कर मेरे ताया शिव सिंह सूबेदार की शरण में लौट आईं। जब तीन अपहरणकर्ता हथियारों से लैस होकर उनका फिर अपहरण करने आए तो गांव वालों ने तीनों को मार दिया। वे सिख थे परन्तु गांव वालों को इस बात का गुस्सा था कि उनसे अमृतपान करवा कर पीले पटके तथा पीली चुनरियां क्या उन्हें मारने तथा अपहरण करने के लिए इस लिए सजाई गई थीं कि मारने तथा अपहरण के लिए पहचान हो सके। हमारे गांव की यह बात आज तक देश-विदेशों में बताई-सुनाई जाती है। मेरे अपने गांव के ताज़ा दौरे का कारण घरों में मेरे चाचा बलबीर सिंह का निधन बना जो मुझ से सात वर्ष छोटा था। उसकी बहुओं-बेटियों में से दो-तीन को मैं पहली बार मिला। कारण, क्योंकि मैंने तो पूरी आयु दिल्ली या चंडीगढ़ में व्यतीत कर दी थी। अच्छा लगा। यह सोच कर और भी अच्छा लगा कि मेरी आयु मुझे एक बार फिर यहां आने की आज्ञा देगी य नहीं। 
चार के चारों गांव ज़िन्दाबाद!
अंतिका
(सुरजीत पातर : ‘सुरति’ में से)
एह पंजाब कोई निरा जुगराफिया नहीं,
एह इक रीत, इक गीत, इतिहास वी है।
गुरुआं, ऋषियां ते सूफियां सिरजिया ए,
एह इक फलसफा, सोच, एहसास वी है।
किन्ने झक्खड़, तूफानां ’चों लंघिया ए,
इहदा मुखड़ा कुझ कुझ उदास वी है।
मुड़ के शान इसदी सूरज वांग चमकू,
मेरी आस वी है,अरदास वी है।