मतदान को अनिवार्य बनाया जाना चाहिए

लोकतंत्र आधुनिक काल की श्रेष्ठ व्यवस्था कही जाती है क्योंकि जिन्हें शासित होना है वे स्वयं शासक चुनते हैं। इस अवधारणा की राह में अनेक किन्तु-परन्तु आते रहे हैं। हालांकि उन्हें मतदाताओं की सजगता तथा प्र ितनिधि की सक्रियता में चूक का नाम देकर इतिश्री कर ली जाती रही है। लोकतंत्र ने लोगों को अधिकार दिये हैं तो कुछ कर्त्तव्य भी सौंपे हैं परन्तु कई लोग अधिकारों की बात तो बढ़-चढ़ कर करता हैं लेकिन कर्त्तव्य के प्रति चुप्पी साध लेते हैं। मतदान के अवसर पर घर बैठे रहने वाले ये लोग स्वयं को प्रबुद्ध कहलाना पसंद करते हैं। ‘मेरे वोट न देने से क्या फर्क पड़ने वाला है’ की मानसिकता वाले ये सुविधा भोगी लोग लोकतंत्र के प्रति अपने कर्त्तव्य को दृष्टिविगत कर देते हैं। लोकतंत्र के प्रति इनकी इस मानसिकता को हल्के से नहीं लिया जाना चाहिए। आशा की जा रही थी कि सभी उम्मीदवारों को अयोग्य घोषित कर मतदान से दूरी बनाने वालों के लिए ‘नोटा’ की व्यवस्था की गई, परन्तु फिर भी लोगों ने मतदान से दूरी बनाई रखी है। हालिया चुनाव ही नहीं, पूर्व के चुनावों में मतदान प्रतिशत भी इसकी पुष्टि नहीं करता।
वर्तमान में जारी लोकसभा चुनाव के प्रथम दौर में मतदान प्रतिशत गिरना लोकतंत्र के हित में नहीं कहा जा सकता। बेशक राजनीतिक विश्लेषक मतदान प्रतिशत गिरने से किसे लाभ और किसी की हानि की अटकलें लगाकर सनसनी पैदा करने में लगे हैं। ऐसे में इस बात पर चिंतन अति आवश्यक है कि ऐसे लोगों की मानसिकता बदलने के लिए क्या किया जाए जो मतदान को आवश्यक नहीं समझथे। ये लोग अपने कर्त्तव्य को नज़रअंदाज़ करते हुए इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार बताने से नहीं चूकते। इसलिए अनिवार्य मतदान का कानून बनाने की मांग होती रही है।
लोकतंत्र की सार्थकता लगभग शत-प्रतिशत मतदान से है। इस दृष्टि में हमारी व्यवस्था पूरी तरह सफल नहीं कही जा सकती क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में अनेक कारणों से होने वाले बहुकोणीय मुकाबलों में खंडित जनादेश मिलना लोकतंत्र के सुचारू संचालन में बाधा उत्पन्न करता है। चुनावी जीत के अंतर्विरोध अनेक उदाहरणों से भरे हैं। आधे से भी कम मतदान, उस पर मत विभाजन ऐसे कारक हैं जो कुल वोटों का 10 से 20 प्रतिशत हासिल करके भी कोई उम्मीदवार चुनाव जीत जाता हैं। ऐसी लोकतंत्र को  बहुमत का जनादेश कहना उचित नहीं होगा क्योंकि यह वास्तव में अल्पमतवाद है।
यह भी कटु सत्य है कि ऐसे सभी साक्ष्यों के बावजूद इस दोषपूर्ण व्यवस्था से लाभान्वित होने वाले हमारे नेता इस रोग को हमेशा के लिए समाप्त करने के इच्छुक नज़र नहीं आते। लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मज़बूती और सार्थकता प्रदान करने की दिशा में अनिवार्य मतदान एक कदम हो सकता है। विश्व के 33 देशों में मतदान अनिवार्य है। कुछ देशों में तो यह एक सदी से भी पहले से लागू है। इनमें प्रमुख हैं—बेल्जियम, स्विट्ज़रलैंड, आस्ट्रेलिया, सिंगापुर, अर्जेटीना, आस्ट्रिया, साइप्रस, पेरू, ग्रीस और बोलीविया। 1892 में मतदान को अनिवार्य कर बेल्जियम ने इस दिशा में पहला कदम उठाया। 1924 में आस्ट्रेलिया ने इसे लागू किया। कुछ देशों में तो मतदान न करने पर सज़ा का प्रावधान भी है जैसे बैल्जियम में वोट न डालने वाले व्यक्ति के लिए नौकरी पाना मुश्किल हो जाता है। लगातार चार चुनावों में वोट न डालने वाला व्यक्ति अगले 10 साल तक वोट नहीं डाल सकता।
ऑस्ट्रेलिया में मतदान केन्द्र पर हाज़िरी न लगाने वाले मतदाता को 20 से 50 डॉलर दंड स्वरूप चुकाने पड़ते हैं। जुर्माना अदा न करने पर उन्हें जेल की हवा खानी पड़ सकती है। स्विट्ज़रलैंड, आस्ट्रिया, साइप्रस और पेरू में भी मतदान से गैरहाज़िर रहने वालों पर जुर्माना लगाया जाता है। वैसे यदि मतदाता चाहे तो मतदान केन्द्र जाकर बिना किसी को वोट दिए आ सकता है। युनान में वोट न डालने पर पासपोर्ट या अन्य लाइसेंस लेना मुश्किल हो जाता है। सिंगापुर में जो लोग मतदान नहीं करते उनका नाम सूची से हटा दिया जाता है जिसे फिर से दर्ज कराने में काफी मुश्किल होती है। बोलीविया में मतदान न करने पर वेतन कट जाता है। कुछ देशों में 70 साल से ज्यादा उम्र के बुजुर्गा को अनिवार्य रूप से मतदान न करने की छूट मिली हुई है।
हमारे देश में मतदान को अनिवार्य करने की चर्चा हवा के झोंके की तरह आती रहती है। कुछ राज्यों ने महानगरपालिका, नगरपालिका और पंचायत चुनावों में मतदान अनिवार्य करने का कानून बनाने की दिशा में कदम बढ़ाए गये किन्तु वे राजनीतिक भटकाव का शिकार हो गये। आज ज़रूरत है संविधान में मौलिक कर्त्तव्यों से संबंधित धारा में अनिवार्य मतदान का प्रावधान शामिल किया जाना चाहिए। 
कम वोटों के सहारे जीत हासिल करने वाले राजनीतिक दलों द्वारा ऐसे प्रावधान के विरोध में की जाने वाली अडंगेबाजी स्वाभाविक है परन्तु भारत के लोकतंत्र को सशक्त और प्रभावी बनाने के लिए यह फैसला लेना ही होगा। ऐसे दलों को इस बात पर अपनी राय स्पष्ट करनी चाहिए कि अनिवार्य मतदान से उन्हें आपत्ति क्यों? जो अनिवार्य को स्वतंत्रता का हनन मानते हैं।
18 वर्ष से अधिक उम्र के हर नागरिक के लिए मतदान प्रक्रिया में अनिवार्य रूप से भाग लेने के नियम के साथ-साथ मतदाता सूची में उसका नाम सुनिश्चित करने की व्यवस्था भी होनी चाहिए। लगभग हर चुनाव में बड़ी संख्या में लोगों के नाम गायब होने तथा क्षेत्र अथवा दुनिया छोड़ चुके के नाम यथावत होने के समाचार सुनने-पढ़ने को मिल जाते हैं। यदि लोग स्वयं अपना नाम सूची में शामिल करवाने, निवास परिवर्तन की सूचना देने के प्रति उदासीन रहते हैं तो वर्ष में कम से कम एक बार घर-घर सर्वे क्यों नहीं होना चाहिए?
आवश्यकता है आधार पंजीकरण, जन्म-मृत्यु पंजीकरण, राशन कार्ड में नाम हटाने/जोड़ने तथा मतदाता सूची, मतदाता पहचान पत्र तैयार करने का एकीकृत स्थायी विभाग हो जो एक ही बार में हर सूची में सुधार सुनिश्चित करे। इस महत्वपूर्ण कार्य में लापरवाही को दंडनीय अपराध घोषित करने पर ही अनिवार्य मतदान को नैतिक और विधिक आधार प्रदान किया जा सकता है। यदि लोकतंत्र के सुचारू संचालन में सभी के लिए मतदान आवश्यक है तो हर मतदाता का नाम सूची में होना उसका आधार है। भारतीय लोकतंत्र को सशक्त बनाने के लिए गंभीर चिंतन के बाद सभी आवश्यक कदम  उठाये जाना चाहिए। (एजेंसी)