कई मतलब निकलते हैं, कम मतदान के !

इस समय, जब लोकसभा के दो चरण का मतदान हो चुका है, तब भाजपा के सामान्य कार्यकर्ता और देशभर के भाजपा समर्थकों-प्रशंसकों के बीच इस बात की चिंता और चर्चा है कि क्या कम मतदान का प्रतिशत भाजपा के लिये परेशानी खड़ी कर सकता है? यह चिंता और चर्चा दोनों ही स्वाभाविक हैं, लेकिन मेरा ऐसा मानना है कि ऐसी या इससे अधिक चिंता तो विपक्ष को होना चाहिये कि क्या उनके समर्थक मतदाताओं ने इस संभावना के परिप्रेक्ष्य में मतदान ही नहीं किया कि कांग्रेस व उनका गठबंधन तो निपट ही रहा है तो फिजूल गर्मी में मतदान के लिये क्यों निकला जाये? इस पर थोड़ा चिंतन ज़रूर कीजियेगा। अब आते हैं इस बात पर कि कुल सात चरणों के लोकसभा चुनाव के नतीजों का आकलन महज दो चरण के मतदान से क्या किया जा सकता है? संकेत तो मिल सकता है, लेकिन यह पूरे अनुमानों का निर्धारण नहीं कर सकता, वह भी तब, जब मतदाता के मन को टटोलना कभी-भी आसान न रहा हो। मतदान पूर्व और पश्चात किये जाने वाले विश्लेषणों की हकीकत अनगिनत बार हमारे सामने आ चुकी है। इसलिये कुल सात चरणों के मतदान में से अभी शेष केवल दो चरण का मतदान किसी भी निष्कर्ष का आधार तो नहीं बन सकता।
अब दूसरी बात पर आते हैं जो कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है। देश ही नहीं, पूरी दुनिया देख रही है कि 22 जनवरी, 2024 को अयोध्या में राम मंदिर में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के बाद भारत में सनातन के पक्ष में जो शीतल बयार चल रही है, वह भाजपा को स्वाभाविक लाभ पहुंचाने वाली साबित हो सकती है। राम सबके हैं और उन पर भाजपा का एकाधिकार नहीं है या कि भाजपा राम के नाम को भुना रही है, जैसे जुमले विपक्ष कितने ही उछालता रहे, आम तौर पर जन साधारण के बीच यह तथ्य तो स्थापित हो ही चुका है कि राम मंदिर इसलिये बन पाया क्योंकि केन्द्र में भाजपा की सरकार है। यहां उन सारी बातों को दोहराने से अब कोई मतलब नहीं कि कांग्रेस समेत ज्यादातर विपक्षी दल राम के अस्तित्व को नकारते रहे, मंदिर निर्माण के लिये राई-रत्ती भर प्रयास नहीं किये, कार सेवा नहीं की, कोई जन आंदोलन नहीं चलाया, सरकारें न्यौछावर नहीं की। ऐसे में इस जबानी जमा खर्च की कोई तुक नहीं कि राम सबके हैं और भाजपा इसका एकतरफा श्रेय ले रही है। सच बात तो यह है कि देश की आम जनता या मतदाता इस सच्चाई को जानती है और मानती भी है।
हाल में हमने यह सच्चाई देखी ही है कि कांग्रेस को किस तरह प्रत्याशियों का टोटा पड़ा हुआ है, खासकर हिंदी भाषी राज्यों में। चुनाव शुरू होने के पहले और इन चुनावी गहमागहमी के बीच हमने देखा है कि किस तरह थोकबंद शैली में, कांग्रेसी भाजपा या दूसरे दलों में शामिल हुए हैं। यह बात भी सामने आयी है कि दूसरी पार्टियों और दलों में शरण तलाशने वाले ज्यादातर कांग्रेसियों ने एक बात प्रमुखता से दोहराई है कि कांग्रेस के जागीरदारों का राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा में न जाना उन्हें आहत कर गया। इसलिये देखा जाय तो जब प्राण-प्रतिष्ठा कार्यक्रम में शीर्ष कांग्रेसियों के शामिल न होने के कारण, जहां उनमें एक किस्म का आक्रोश और निराशा हो जिसके कारण कांग्रेस पार्टी को विभिन्न महत्वपूर्ण सीटों में प्रत्याशी भी न मिल पा रहे हों, ऐसे में क्या यह संभव नहीं कि कांग्रेस को समर्थन देने वाला मतदाता भी इन पहले दो चरणों के मतदान के दौरान घर बैठा रहा हो? आखिर वह भी क्यों गर्मी में तपने बाहर निकले और मृत्यु शैया पर पड़ी कांग्रेस को गंगाजल का आचमन कराये? इसलिये यह भी तो हो सकता है कि दो चरणों में भाजपा को मिलने वाले मत तो बरकरार रहे हों लेकिन कांग्रेस या विपक्ष के पक्ष में मतदान कम हुआ हो?
वैसे पिछली बार यानी 2019 के आम चुनाव में 67.40 प्रतिशत मतदान हुआ था, जबकि उस समय मतदाताओं की संख्या करीब 91 करोड़ थी और इस समय यह बढ़कर करीब 97 करोड़ के पास पहुंच गयी है। इसलिए 2019 में भाजपा को 37.36 प्रतिशत मत से 303 सीटें मिली थीं। अब चूंकि इस बार अभी तक के दो चरणों में औसतन 60 प्रतिशत मतदान हुआ है और यह भी मान लें कि अगले बाकी सभी चरणों में भी यही औसत रहने वाला है तो करीब 58.20 करोड़ मतदाता वोट डालने के लिए मैदान में आयेंगे। भाजपा को यदि पिछला समर्थन 37.36 प्रतिशत न भी मिले और 35 प्रतिशत समर्थन ही मिले तो उसे करीब 20.37 करोड़ मतदाता समर्थन करेंगे। जबकि पिछली बार 37.36 प्रतिशत से 22.84 मतदाता ने समर्थन दिया था। यानि 2 करोड़ मत कम मिल सकते हैं। लेकिन यह विश्लेषण काफी हद तक हवा हवाई है क्योंकि 2014 से लोकसभा और इस दौरान हुए विधानसभा चुनावों आदि में युवा मतदाता ने भाजपा को अधिक पसंद किया है। इसलिये मुझे नहीं लगता कि भाजपा के समर्थन में कोई उल्लेखनीय गिरावट आयेगी। वैसे लोकतंत्र में समर्थ और अंतिम सत्य तो मतदाता ही है। इस चुनाव में थके हुआ विपक्ष सारा जोर मोदी का समर्थन घटाने पर दे रहा है, ना कि अपना समर्थन बढ़ाने पर। -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर