बेहद ज़रूरी है समय पर न्याय देना

भगवान कृष्ण ने गीता में कहा कि प्रत्येक मनुष्य को उसके कर्मों का फल मिलना निश्चित है, प्रजातंत्र में यह फल संविधान के अंतर्गत गठित न्यायपालिका द्वारा दिया जाता है। संविधान में कहीं नहीं लिखा गया कि यह फल कब मिलेगा? इसीलिए न्याय व्यवस्था के अन्तर्गत गठित न्यायालयों पर न इस बात की ज़िम्मेदारी है और न ही उनसे प्रश्न किया जा सकता है कि निर्णय देने और उस पर क्रियान्वयन होने की अवधि क्या है और है तो पालन न होने पर क्या होगा? 
देश की न्याय व्यवस्था को देखकर लगता है कि न्याय का अधिकार नहीं बल्कि एक मज़बूरी जैसा है जो मिल गया तो ठीक, नहीं मिला तो भी सही।  कुछ उदाहरण देखिए जो फैसलों पर आधारित हैं :
एक व्यक्ति को झूठे दुष्कर्म के मुकद्दमे में जेल से बरी होने में बीस साल लग गये। यह मुकद्दमा एक पीड़ित महिला ने नहीं बल्कि उसके पति और ससुर ने किया था, क्योंकि वे उस व्यक्ति को सबक सिखाना चाहते थे, जिसकी इनसे किसी बात पर अनबन थी। इस बीच उसके माता-पिता और दोनों भाई मर गये। अब वह जेल से छूटने पर बदहवास है कि क्या करेगा क्योंकि उसके स्वर्णिम वर्ष समाप्त हो गए थे। क्या न्याय को किसी सच्चाई तक पहुंचने में इतना समय लगता है? एक अन्य मामले में चौबीस गवाहों में से बाईस की जांच एक ही दिन में कर ली जाती है और दो निर्दोषों को सज़ा हो जाती है। बरसों बाद उन्हें रिहा कर दिया जाता है क्योंकि वे दोषी सिद्ध नहीं हो पाते। क्या इतना समय लगना चाहिए, प्रश्न यही है। एक उदाहरण यह भी कि प्रख्यात रंगकर्मी सफदर हाशमी की हत्या का निर्णय चौदह साल बाद आता है, तब तक दो आरोपी मर चुके थे, बाकी को आजीवन कारावास, परन्तु वे यह अवधि तो काट चुके हैं। 
ज़रा सोचिए, किसी निर्दोष कर्मचारी, व्यापारी या फिर विधायक अथवा सांसद को अपराधी घोषित करने के बाद इनका जीवन तब तक दागदार रहता है जब तक अदालत से निर्णय न हो जाये कि आरोप बेबुनियाद हैं। कई बार यह निर्णय आने में उस निर्दोष की पूरी उम्र ही समाप्त हो जाती है। वकीलों की फीस और दूसरे खर्चे भाग्य का लेखा मानने को विवश कर देते हैं। 
यह विश्व का सबसे बड़ा आंकड़ा है कि हमारे देश में पांच करोड़ से अधिक मुकद्दमे अदालतों में लम्बित हैं। सोचिए, कितने करोड़ लोग न्याय की आस लगाये बैठे रहते हैं और मृत्यु ही उन्हें न्याय की उम्मीद से मुक्ति दिलाती है। हर साल लम्बित मामलों की संख्या में लाखों की बढ़ौतरी हो जाती है, लोगों का जीवन सूली पर टंगा रहे, यही सत्य है। जेलों में एक ओर सज़ा प्राप्त लोग हैं, लेकिन उनसे कहीं अधिक वे हैं जिन्हें अंडर ट्रायल कहा जाता है। दसियों वर्ष तक इंतज़ार करते हैं कि कब यह तमगा उतरे और वे अपने खिलाफ कार्यवाही का सामना करें।  निर्णयों और उनके क्रियान्वयन में देरी का सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह है कि अपराधी निश्ंिचत रहता है। जब फैसला आयेगा, देखा जाएगा। अपराध करता भी रहेगा तो भी कोई पूछने वाला नहीं। 
एक उदाहरण से बात स्पष्ट हो जायेगी। मुम्बई में मई के महीने में अचानक मामूली आंधी आ जाने से एक पेट्रोल पम्प के पास लगी एक विशालकाय होर्डिंग गिरने से लगभग बीस लोग मर जाते हैं और सौ के आसपास घायल होते हैं। यह होर्डिंग नियमानुसार आकार से तीन गुना बड़ी थी, लेकिन सभी सरकारी खानापूर्ति भली-भांति की गई थी। हादसा हो गया। क्या जिसकी होर्डिंग थी, उस पर सामूहिक हत्या का मुकद्दमा नहीं चलना चाहिए? लेकिन होगा क्या, सभी जानते हैं। इसी संदर्भ में सभी नियमों को ताक पर रख कर नोएडा में दो टावर बन जाते हैं। यदि अदालती आदेश के कारण जो शायद एक अपवाद हो, इसे गिराया नहीं जाता तो अनुमान लगा सकते हैं कि कितना बड़ा अनर्थ उस क्षेत्र वालों को हमेशा के लिए झेलना पड़ता। इस फैसले में भी दसियों वर्ष लगे थे। ऐसे अनगिनत मामले हैं।  कुछ लोग अपराधियों को असली या नकली मुठभेड़ में मार गिराए जाने को सही ठहराने की वकालत करते दिखाई देते हैं क्योंकि अदालतों में यह मामले दस-बीस वर्ष तक चल सकते हैं और इन्हें बरी करना पड़ सकता है। यह स्थिति देर से फैसले आने से अधिक ख़तरनाक है और अराजकता की ओर बढ़ता कदम है। 
उपाय क्या है : इसमें कोई संदेह नहीं कि न्याय व्यवस्था से नागरिकों का विश्वास उठ जाना विनाश को आमंत्रित करना है। मतलब अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना है। ऐसा भी नहीं है कि इसका कोई समाधान नहीं है। कुछ सुझाव हैं :
सबसे पहले तो हमारी न्याय पालिका के खाली पदों को ही भर दिया जाये और जो न्यायाधीश हैं, उन्हें किसी भी दवाब, प्रलोभन और लालच से मुक्त रखने की नीति पर कड़ाई से क्रियान्वयन हो तो बहुत राहत मिल सकती है। दूसरा यह कि जो गवाह हैं, उनकी सुरक्षा का प्रबंध इस तरह का हो कि अपराधी का उन तक पहुंचना असंभव हो। सच्चाई यह है कि गवाहों के अभाव में मुकद्दमे शुरू ही नहीं हो पाते। जिन्होंने किसी अपराध को सामने होते हुए देखा, वे सामने आने का साहस नहीं करते क्योंकि ऐसा करते ही उनकी और परिवार की जान ख़तरे में पड़ जाती है। तीसरा उपाय यह कि जानबूझकर न्याय करने में देरी और एक निश्चित समय सीमा समाप्त होने पर ऐसे व्यक्ति को, चाहे उसका कैसा भी इतिहास रहा हो, कानून की परिधि में रहकर सज़ा दिया जाना निर्धारित हो। यह व्यक्ति कानून बनाने वाले और उन पर क्रियान्वयन करने के लिए ज़िम्मेदार पदों पर आसीन हो सकते हैं। चौथा यह कि झूठे, तर्कहीन, किसी को दबाने या फंसाने के लिए मुकद्दमा करने वालों की पहचान और सज़ा निर्धारित हो।