भयानक है जंगल की आग

आग कहीं भी लगेगी, चर्चा तो होगी ही। इस बार उत्तराखंड की आग अपना भयानक रूप दिखा गई। इस बार पहले से ही पता था कि जंगल की आग भयानक रूप धारण कर जाएगी। जब तक अप्रैल खत्म होता, 256 हैक्टेयर जंगल में आग लग चुकी थी। सूचना है कि जंगल में आग लगने की लगभग दो सौ पचास घटनाएं घट चुकी हैं। लगता है कि आने वाले दिनों में यह संख्या बढ़ सकती है। वैसे जंगल को आग लगने का इतिहास नया नहीं है, लेकिन इससे पूर्व छिटपुट घटनाएं ही घटित होती थीं जिन पर काबू पा लिया जाता था। पहले इतनी प्रचंड गर्मी भी नहीं पड़ती थी। दूसरे जन-वन का आपसी रिश्ता गहरा और मजबूत था। एक घटना घटते ही पूरे गांव के लोग एकजुट होकर जुट जाते और बचाव कार्य पूरा हो जाता। आग फैलने न पाती। पर्यावरणविद अनिल प्रकाश जोशी तो कहते हैं कि वनाग्नि सिर्फ उत्तराखंड के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे देश और दुनिया के लिए चिन्ता का विषय है। ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दे आग को भड़काने में पूरी भूमिका निभाते हैं क्योंकि दुनिया का औसत तापमान अगर बढ़ चुका है, तो आग तो पूरी दुनिया के जंगलों में ही लगेगी। कनाडा, कैलिफोर्निया, ब्राज़ील, आस्ट्रेलिया इसके ताज़ा उदाहरण हैं। इन देशों में शीतोष्ण जलवायु है फिर भी ग्लोबल वार्मिंग के कारण दावानल की घटनाएं होती रहती हैं।
वैज्ञानिक तथ्य है कि जैसे-जैसे पृथ्वी का तापमान बढ़ेगा, जंगलों को आग की घटनाएं भी तेज़ी से बढ़ेंगी। यह बात हवा में नहीं कही गई। 150 वर्षों का अध्ययन यही बताता है कि प्रचंड गर्मी की स्थिति आज पांच गुना बढ़ गई है। दुनिया भर में वनाग्नि के बड़े असर होंगे।
मैरीलैंड विश्वविद्यालय के एक शोध से पता चला है कि आग 2001 से ज्यादा ही कहर बरपा रही है। वर्ष 2001 में तीस लाख हैक्टेयर वन राख में बदल गये। रूसी वनों की हालत भी ऐसी ही रही जहां 2020 की तुलना में 2021 में 31 प्रतिशत ज्यादा वन जले। कनाडा में भी 2022 में साठ लाख हैक्टेयर वन जल कर राख में बदल गये।जंगलों की आग में इज़ाफा होने की घटनाओं का एक और कारण विशेषज्ञों ने खोजा है। वे कहते हैं कि 1988 से पहले वन गांव वालों की सहभागिता से पनपते थे, लेकिन आज इस परम्परा में गतिरोध देखा जा रहा है। आज की वन नीति में गांव की भागीदारी चाहे जितनी भी हो, प्रभावी नहीं दिखाई देती। इसके अतिरिक्त वनों और गांव की बीच की दूरी बढ़ती चली गई है। पहले के हालात में गांव के गांव वनों की आग बुझाने के लिए दौड़ आते थे फिर हालात बदलते चले गये। उधर वन विभाग के पास न पर्याप्त मैन पावर है तथा न ही कोई कारगर रणनीति।
जंगलों में आग लगती है तो केवल पेड़ ही नहीं जलते, वन्य जीव भी मारे जाते हैं। विशेष तौर पर छोटे-छोटे पशु-पक्षी जिनका रहन-सहन जंगल में ही होता है। इतना ही नहीं, इस प्रकार की आग से मिट्टी फटने लगती है और फिर बारिश से सारी उपजाऊ मिट्टी बहकर चली जाती है। इस जंगल की आग से पानी के स्रोत सूखते नज़र आये हैं। पर्यावरणविद सुचिंतित हैं कि अपने देश की चिन्ता ज्यादा बड़ी है। हमें वन पंचायतों पर ज्यादा ध्यान देना होगा। उनकी भागीदारी बढ़ानी चाहिए। कम से कम वन पंचायतों को उनके चारों तरफ 100 हैक्टेयर भूमि के वनों की ज़िम्मेदारी सौंप दी जाए। उनकी मदद के बिना वन विभाग ज्यादा कुछ कर नहीं पाएगा। पंचायतों की ज़िम्मेदारी होगी कि आग से वन को बचाएं। उसे फैलने न दें। बदले में वन की कुछ सुविधाएं भी पंचायत को देनी होंगी। अगर रोज़गार बढ़ेगा तो सुविधा भी बढ़ेगी। हमें हर हाल में इस आग पर काबू तो पाना ही है।