न्यूनतम समर्थन मूल्य तथा मंडी व्यवस्था

भारतीय किसानों की खून-पसीने की कमाई एक बार फिर न्यूनतम समर्थन मूल्य का शिकार हो गई है। केन्द्रीय कृषि मंत्री ने अरहर की दाल, मक्की, काले चने तथा बाजरा की खरीद के लिए तय किए गए न्यूनतम समर्थन मूल्य के 52 से 77 प्रतिशत वृद्धि की घोषणा करके अपनी पीठ थपथपा ली है जबकि वह भलिभांत जानते हैं कि कार्पोरेटरों के पिट्ठू मंडी में किसानों के पांव नहीं लगने देंगे। वैसे भी दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा खाद, बीज तथा रसायनों का खर्च किसानों की सांस फुलाए रखता है। ऐसे खर्च पर ध्यान देना तो एक ओर, मंडी को किसान पक्षीय बनाने को ओर बिल्कुल ही ध्यान नहीं दिया जा रहा। यहां तक कि किसान अपनी उपज को मंडी में ले जाकर निर्धारित से आधे मूल्य पर बेचने के लिए मजबूर हो जाता है। उसका नशे की राह पर चल पड़ना और भी बुरी बात है। आन्दोलनकारियों की आवाज़ भी सरकार के कानों में नहीं पड़ती। इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता है नहीं तो समूची आबादी को अनाज की कमी के नतीजे भुगतने पड़ेंगे। आज नहीं तो कल। 
भारत में दोषियों की गिरफ्तारी व अदालतें
दिल्ली आबकारी नीति से संबंधित धन-शोधन मामले एक अधीन ईडी द्वारा गिरफ्तार किए गए दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल के मामले ने भारत में दोषियों की गिरफ्तारी तथा पुलिस के किरदार पर पुन: किन्तु-परन्तु पैदा क दिया है। विशेषकर केजरीवाल को निचली अदालत द्वारा दी गई ज़मानत पर दिल्ली हाईकोर्ट की ओर से लगाई गई अंतरिम रोक ने इस प्रसंग में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक गौ हत्या के दोषी की गिरफ्तारी के प्रसंग में दी गई राय की ओर एक बार फिर ध्यान आकर्षित किया है कि उनके वश के कारण दोषी की गिरफ्तारी से परहेज़ करना बनता है। यह तो हर कोई जानता है कि मुख्यमंत्री ऐसा आरोपी नहीं होता है जो अपना देश छोड़ कर भाग भाग जाए। वह गैंगस्टर नहीं होता और न ही जानबूझ कर ऐसी हरकत करता है जिससे उसकी बदनामी हो। उस ने जाने-अनजाने कोई गलती की हो सकती है, जिसके लिए वह कानून का सामना कर सकता है।
यह भी देखने-सुनने में आया है कि पुलिस वाले अपने राजनीतिक नेताओं के मन में अपने नम्बर बनाने या साथी का पक्षपूर्ण करने के लिए गलत राय दे देते हैं। कई स्थानों पर तो यह धारणा अंग्रेज़ी शासन के हैंगओवर की तरह चली आ रही है। इस जल्दी से जल्दी अलविदा कहना बनता है। इससे आम जनता की बेचैनी ही नहीं बढ़ती, अपितु अदालतों में भी केसों के अम्बार लग जाते हैं। 
दोषी की ज़मानत होना या अंत में निर्दोष बरी होना, उसे कोई ढाढस नहीं बंधाता। उसके हथकड़ी लग चुकी होती है और किसी को मुंह दिखाने के योग्य नहीं रहता। यह बात समझने तथा समझाने की ज़रूरत है। तुरंत!
पंजाब आर्ट्स कौंसिल तथा भाषा विभाग 
पंजाब सरकार द्वारा भाषा विभाग पंजाब तथा पंजाब आर्ट्स कौंसिल के प्रमखों की नियुक्ति का स्वागत करना बनता है। आर्ट्स कैंसिल की स्थापना पंजाबी कल्चर के शाहजहान के रूप में जाने जाते महिन्दर सिंह रंधावा ने 1981 में की थी। वही थे जिन्हें रोज़ गार्डन में इमारत का निर्माण करने से रोकने का किसी में साहस नहीं था। वह कोलम कला को समर्पित महारथियों को राह दिखाने वाले थे। उन्होंने अपना यह सपना पूरा करने के लिए करतार सिंह दुग्गल, मोहन सिंह, बलवंत गार्गी, शीला भाटिया तथा कुलवंत सिंह विर्क को अपने साथ लेकर पंजाब कला भवन का निर्माण भी किया और इसकी गैलरी में वर्ततमान पंजाब के मुख्य सृजकों की तस्वीरें भी सजाईं। यह गैलरी भाई काहन सिंह नाभा, नानक सिंह, भाई वीर सिंह, प्रो. पूर्ण सिंह, मुल्क राज आनंद, नोरा रिचर्ड, सोभा सिंह आर्टिस्ट, अमृता शेरगिल, बड़े गुलाम अली खान, एम.ए. मकालिफ, बलराज साहनी, फैज़ अहमद फैज़ तथा शिव कुमार बटालवी के रूप तथा देन पर मुहर लगाती है। वर्तमान पंजाब सरकार ने अब आर्ट कौंसिल की कमान एक प्रसिद्ध कवि एवं चित्रकला प्रेमी स्वर्णजीत सवी को सौंप दी है।पंजाब सरकार ने भाषा विभाग के डायरैक्टर की चिरकाल से रिक्त पड़े पद की ओर भी तुरंत ध्यान दिया है। आज की पीढ़ी को यह भी बताने की ज़रूरत है कि पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला की स्थापना से पहले इस विभाग का दर्जा एक प्रकार से यूनिवर्सिटी से कम नहीं था। 
सरकारी संस्थान सरकार के संरक्षण के बिना नहीं चलते। अब जसवंत ज़फर की नियुक्ति से इस विभाग की गति और भी रफ्तार पकड़ सकती है, जो लम्बे समय से अदालतों में भटक रही है। आशा की जा सकती है कि नया डायरैक्टर अच्छे वकीलों की सहायता लेकर इस वर्तमान दलदल से निकला सकता है। ज़रूरत पड़े तो किसी सेवामुक्त जज की देखरेख में ऐसी समिति का गठन किया जा सकता है जो बाधा बनी अदालतों को विभाग की ज़रूरतों तथा सीमाओं अवगत करवा सके। नि:संदेह नये प्रमुखों के कंधों पर अधिक बोझ आ पड़ा है, परन्तु वे सरकारी सहायता से इसे बाखूबी निपट सकते हैं।
अंतिका
(एक लोक बोली)
बहन— बोता बन्हा दे पिप्पल दी छावें, 
         मुन्नियां रंगीन गड़ियां। 
भाई— मत्था टेकदैं अम्मां दीए जाइये,
         बोता भैणे फेर बन्हांगा।