विश्व के कई देश झेल रहे बड़ा आर्थिक संकट

पड़ोसी देश श्रीलंका में बड़ा आर्थिक संकट आया, लेकिन यह अब अकेली घटना नहीं रही। 2022 के अंत तक लेबनान और जाम्बिया की दशा पर गौर करें। वे आर्थिक तौर पर दिवालिया ही हो गए थे। पाकिस्तान, अर्जेन्टीना, घाना, इलिप्ट और एल. सल्वाडोर की दशा किसी से छिपी नहीं। वे घोर ़गरीबी में ही जी रहे हैं। जब बाली में जी-20 का जुटान हुआ था। संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने यह ऐलान कर सनसनी पैदा कर दी थी कि विकासशील देश भयानक आर्थिक तबाही की कगार पर हैं। ऐसी गरीबी आने वाली है कि देखी न जाएगी। भारत ने जी-20 मंच के ब्रांड को ब्रांड इंडिया के प्रचार अभियान से जोड़ा, इस वास्तविकता को भूल नहीं सकते कि लगभग 53 देशों के कर्ज के भारी संकट में डूबने और वित्तीय बाज़ारों को इस भयंकर तूफान से बचा ले जाने का दायित्व भी जी-20 का होना चाहिए। 2008 के लीमैन संकट के बाद दशकों तक पूंजी लगभग मुफ्त में मिलती रही है। 
2020 तक नेगेटिव चील्ड वाला सार्वजनिक कर्ज 17 अरब डॉलर तक पहुंच गया था। शैडो  बैंक, सरकारें, वित्तीय कम्पनियां, निवेशक और आम लोग मुफ्त पूंजी का सभी लाभ उठा रहे थे। ब्याज दर बढ़ने के साथ कर्ज का मुद्दा सामने आने लगा है। 1999 में दुनिया का निजी सरकारी कर्ज ग्लोबल जी.डी.पी. का 200 प्रतिशत था जोकि 2020 में 350 प्रतिशत हो गया। विकसित अर्थ-व्यवस्थाओं में यह 420 और चीन में 330 प्रतिशत है जोकि दूसरे विश्व युद्ध से भी ज्यादा आंका जा रहा है। ऐसा नहीं कि इस सिस्टम में बदलाव नहीं आया। पिछले एक दशक में सरकारों का कर्ज का तौर-तरीका ही बदल गया। विकासशील और उभरती अर्थ-व्यवस्थाओं की सरकारें और निवेशक कर्ज बाज़ार में छाने लगे। वजह यह कि पूंजी सस्ती थी। पहली बार अफ्रीका में सहारा क्षेत्र में गरीब देशों ने दुनिया के बाज़ार में बांड जारी किए और कर्ज उठाए। विकासशील देशों को कुछ अधिक ब्याज देकर करंसी में कर्ज उठाने का अवसर मिल रहा था। जैसा कि पहले नहीं होता था। 2010 तक विकासशील देशों के करीब 90 प्रतिशत ग्लोबल बांड घरेलू करंसी में जारी होने लगे। यह वह दौर था जब सरकारों और कम्पनियों ने महंगे वाणिज्यिक कर्ज भी उठाए। महंगे इसलिए क्योंकि कमजोर साख वालों को ऊंची दर देनी पड़ती थी। 2020 तक आते-आते विकासशील देशों के कुल कर्ज में प्राइवेट कर्ज का हिस्सा 43 प्रतिशत से बढ़कर 62 प्रतिशत तक पहुंच गया। जब महंगाई के साथ कर्ज काफी महंगा होता है तो मुल्क डूबने लगते हैं। कोई रास्ता निकलने का मिलता नहीं फंसते चले जाते हैं। आप चौंक जाएंगे जब सुपर पावर कहलाने वाले अमरीका पर 33-91 ट्रिलियन डॉलर के कर्ज की बात सुनेंगे, परन्तु वह समर्थ देश है और ऐसी स्थिति से निपट सकता है, जबकि पाकिस्तान, अर्जेन्टीना, घाना, इजिप्ट जैसे देशों का इससे बाहर निकल पाना बहुत कठिन है।
कर्ज में डूबने वाले मुल्कों की आई.एम.एफ. एक सीमा से अधिक मदद नहीं कर सकता। पाकिस्तान के साथ भी यही हुआ। इसीलिए उसे चीन का दामन थामना पड़ा। आई.एम.एफ. की मदद के बाद एक दुष्चक्र ही शुरू हो जाता है। सरकारों को टैक्स बढ़ाने जैसे फैसले लेने पड़ते हैं। सरकारी खर्च घटाना पड़ता है। श्रीलंका, इथोपिया, पाकिस्तान, कैमरून के साथ यही कुछ हुआ। यू.एन. ने कर्ज की एक डील की सलाह दी है परन्तु निजी पैकेट निवेशक को कर्ज माफी के लिए मनाया जा सकता है? नहीं?।
विश्व बैंक की रिपोर्ट तो बताती है कि डिफाल्टर कर चुके देशों में अधिकांश उभरती हुई अर्थ-व्यवस्था है जिन्होंने बीते दशक में भारी कर्ज जुटाया है, लेकिन बढ़ती ब्याज दरों का कैसे सामने करें?

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