बात अनेकता में एकता की
                                                               
                                    
ताज़ा लोकसभा चुनाव ने केन्द्र सरकार के छिपे एजेंडे की हवा निकाल दी है, विशेष कर भाजपा की। 400 सीटों का स्वप्न लेने वाली भाजपा को सिर्फ 240 सीटों पर सब्र करना पड़ा है। इसका श्रेय ‘इंडिया’ गठबंधन को जाता है, जिन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को सम्बल देने वाली कार्पोरेटरों की अरबों-खरबों की माया के पांव नहीं लगने दिए। इसमें किसान-मज़दूर संगठनों द्वारा शुरू किए आन्दोलन का योगदान भी कम नहीं। 
परन्तु इसका यह अभिप्राय नहीं कि देश की ‘अनेकता में एकता’ को समर्पित राजनीति चैन की नींद सो सकती है। जो कुछ डोडा, रियासी, कठुया, पुंछ तथा राजौरी में आए दिन घटित हो रहा है, इसे पाकिस्तान की राजसी नीति तक सीमित करना काफी नहीं। ‘इंडिया’ गठबंधन को आतंकवाद का डट कर विरोध करना चाहिए, नहीं तो इसकी प्रतिक्रिया के रूप में भाजपा की हिन्दुत्व की विचारधारा को बल मिलेगा। भाजपा की विचारधारा का मूल उद्देश्य पंडित नेहरू के अनेकता में एकता के सिद्धांत को नकारना है।   
मेरे पास ‘अनेकता में एकता’ की एक निजी कहानी भी है। मेरे नाना सन् 1947 के विभाजन के समय एक लावारिस हुए मुसलमान बच्चे को अपने घर ले आए, जिसका मेरी नानी ने सिखी मान-मर्यादा से पालन-पोषण किया तथा उसका नाम राम सिंह रखा। वह दिल्ली जाकर मेरे मामा की टैक्सियां साफ करते समय ड्राइवरी सीख गया तो उसका एक मुम्बई से भाग कर आई ईसाई युवती के साथ विवाह कर दिया गया। उसके बाद वह बिरलियां का ड्राइवर बन कर पटना, बिहार तथा रांची नौकरी करता रहा। वह तीन बेटों तथा चार बेटियों का पिता बना। एक पड़ाव पर उसकी पत्नी जिसका नाम वंदना से मनजीत कौर हो चुका था, अपने माता-पिता से जाकर मिली तो उसके एक बेटे को उन्होंने अपने पास रख लिया। जब बेटे की नौकरी दादरा नगर हवेली की किसी फैक्टरी में लग गई तो उसने वहां की किसी ईसाई युवती से विवाह करवा लिया। धीरे-धीरे उस बेटे ने अपने माता-पिता को ही नहीं, अपितु अपनी एक बहन तथा भाई को भी दादरा नगर हवेली नौकरी दिलवा दी। आज के दिन राम सिंह का परिवार मुम्बई, दादरा, झारखंड, पंजाब तथा हरियाणा में रह रहा है। 
मेरी नानी नामधारियों की बेटी थी। उसके पाले हुए ‘राम सिंह’ ने अपनी पत्नी का नाम मनजीत कौर रखा और अपने बच्चों के नाम सतिन्तर कौर, जगजीत सिंह, सतबीर कौर, जतिन्द्र सिंह, धर्मेंद्र कौर, तेग बहादर सिंह तथा रणजीत कौर  रखे। इन सिंहों तथा कौरों के माता-पिता तो स्वर्ग सिधार चुके हैं, परन्तु स्वयं कायम हैं। देश के विभिन्न भागों में। अपने मराठा, ईसाई तथा गुजराती पति-पत्नियों सहित। 
समराला की भूमि में गोरी हिरणी
मैं तहसील समराला के गांव कोटला बडला में जन्मा हूं। यह मेरा ननिहाल गांव है। मेरे बचपन में यहां हिरणों के झुण्ड इधर-उधर जाते आम ही देखे जाते थे। एक लोक बोली के अनुसार उनके सींगों पर भी मृगों की जून लिखी हुई थी : 
हीरिया हरना, बागीं चरना,
तेरे सिंगां ‘ते की कुझ लिखिया 
मृग और मिरगाइयां 
अब तो यदि किसी ने हिरण देखने हों तो नीलों के चिड़िया घर में कैद किए ही देखे जा सकते हैं। गत सप्ताह पंजाबी भाषा तथा संस्कृति को समर्पित लेखक मंच, समराला ने एक गोष्ठी आयोजित की जिसमें मैं तथा मेरी पत्नी भी शामिल हुए। इसलिए कि यह मेरी जन्म भूमि है। अधिकतर इसलिए कि यह गोष्ठी मेरे बारे थी। यह मेरी लिखी हुई पुस्तक ‘गोरी हिरणी’ एक अलग किस्म की हिरणी पर आधारित उपन्यास है, जिसकी नायिका हिटलर की युवा ब्रिगेड की सदस्य रह चुकी थी। किसी समय वह मेरे हम उम्र मामा की जानकार  हो गई और उसने मेरे मामा को उसकी पत्नी से अलग कर दिया। वैसे जर्मन गोरी ने भी खूब चुंगियां भरी थीं। हिटलर के समय तथा उसके बाद। 
मेरे मामा चार दशक पहले जर्मनी जाकर वहां के शहर हैमबर्ग के निवासी हो गए थे। मेरा मामा, उनकी मोगा वाली पत्नी तथा अचानक जीवन में आई जर्मन गोरी तथा मेरे मामा स्वर्ग सिधार चुके हैं, परन्तु उनके तीनों बेटें हैमबर्ग के निवासी हैं।
उन सभी के जीवन पर आधारित उपन्यास ‘गोरी हिरणी’ 2013 में लिखा था, जिसका अगले वर्ष दूसरा संस्करण भी मार्किट में आ गया था। फिर 2020 में च्ञ्जद्धद्ग त्रद्गह्म्द्वड्डठ्ठ ष्ठशद्गज् नामक हिन्दी संस्करण फरवरी 2024 में जारी हो गया था, जो ‘लेखक मंच’ द्वारा योजना निर्धारन गोष्ठी का कारण बना। चाहे इस उपन्यास के पंजाबी, अंग्रेज़ी तथा हिन्दी के प्रकाशक क्रमश: लोकगीत प्रकाशन, अभिषेक पब्लिकेशन्स तथा गार्गी प्रकाशन हैं, परन्तु हिन्दी संस्करण इतना लोकप्रिया हुआ है कि पांच माह में सारे का सारा बिक चुका है और इसका दूसरा संस्करण प्रैस में है। इसके अनुवादक वन्न का शकीजा तथा गुरबख्श सिंह मोंगा हैं, जो गोष्ठी में शिरकत कर रहे थे। 
गोष्ठी का प्रमुख प्रबंधक एडवोकेट दलजीत सिंह शाही थे, जिसके शाही पैलेस में इसका प्रबंध था। इस गोष्ठी में शाही परिवार के किंडरगार्डन स्कूल का स्टाफ भी ज़ोरशोर से पहुंचा हुआ था। मुख्य वक्ता सिरसा वाला स्वर्ण सिंह विर्क थे, जिसने उपन्यास की घटनाओं तथा इसके पात्रों की भूमिका को इस प्रकार ब्यां किया जैसे ये पात्र मेरे ननिहाल परिवार के नहीं, अपितु सिरसा के किसी बड़े परिवार के सदस्य हैं।
हिन्दी संस्करण की लोकप्रियता बता रही है कि प्रधानमंत्री मोदी की सरकार इसे पूरे देश की भाषा बना सके या न, इसने भारतवासियों के मन में अपना स्थान स्वयं ही बना लेना है। 
अंतिका
(हरदयाल सागर) 
कुझ ने किहा ओह रब्ब है, 
कुझ ने किहा ओह अल्लाह 
ओह मुस्कराया सुन के,
 दो बार नाम अपनाa


 
                 
                 
                 
                 
                 
                 
                 
                 
                 
                 
               
               
               
               
               
               
               
              