नाकाबिले बरदाशत

प्यारे, यहां बारिश होती है तो होती चली जाती है, जब तक कि आपके घर की टूटी खपरैल पूरी तरह से न गिर जाये, और आपके मोहल्ले के मीर मुंशियों को इस दुर्दिन के लिये आपको मिलने वाले मुआविज़े की घोषणा का हिस्सेदार न बना दिया जाये। यह हिस्सेदारी जायज़ है या नाज़ायज़ हम इस विवाद में नहीं पड़ते, लेकिन अन्तर्राष्ट्रीय सर्वेक्षण साक्षी हैं, कि हमने अपने देश की अभूतपूर्व तरक्की की घोषणा के साथ कुछ नई संस्कृतियां भी विकसित कर ली हैं। हम दुनिया की पांचवीं बड़ी आर्थिक शक्ति बने हैं, और उसके साथ-साथ हमने विकसित कर ली है शार्ट कट संस्कृति, चोर बाज़ार संस्कृति और बाज़ारों में चलता है, नम्बर दो का धंधा।
ज्यों-ज्यों देश से भ्रष्टाचार मिटाने की घोषणाएं मुखर होती हैं, यह देश दुनिया के भ्रष्ट देशों के सूचकांक में और भी ऊपर चढ़ता चला जाता है। इसी तरह जब देश से काला धन मिटा देने की प्रतिबद्धता ज़ाहिर की जाती है, तो हवाला धंधों से लेकर क्रिप्टो करंसी के बल पर नम्बर दो का धंधा और भी पनप जाता है। हम भ्रष्टाचार सम्राट कहलाते हैं।
अब क्योंकि हम दो-तीन बरस में दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी आर्थिक महाशक्ति बनने जा रहे हैं, इसलिये इस तरक्की के साथ एक और संस्कृति भी बनाई है, ‘सम्पर्क संस्कृति’ जिसका चालू नाम दलाल संस्कृति भी है। प्राकृतिक विपदा के आने पर किसी भी मुआविज़े की घोषणा के बाद इस दलाल संस्कृति के हर्ष का अंत नहीं रहता। इसे चार आना संस्कृति भी कहते हैं, क्योंकि काम हो न हो, गरीबों में धन बंटे न बंटे, रुपये में चौथाई या पुराने चार आने तो इनकी जेब में जाने ही हैं।  इसलिये लोगों की तबाही बर्बादी पर जब अभागों के लिए मुआविज़े की घोषणा होती है, तो इनके मुंह में पानी भर आता है, क्योंकि सरकारी धन-राशि जब बाहर आएगी, इसका एक चौथाई शराफत से इनके पास आयेगा। शराफत न करनी हो, तो पूरी की पूरी सड़कें, अधूरे पुल और तबाह बस्तियां इनके कागज़ों में पूर्ण हो जाती हैं, और पूरी रकम की धूल भी किसी को नहीं मिलती।
नौकरशाही और लालफीताशाही से जूझने में भी इस दलाल संस्कृति का बड़ा महत्त्व है। सरकारी आदेश पहले एक मेज़ से दूसरी मेज़ तक चांदी के पहियों पर चलता था। आजकल क्योंकि सुविधा केन्द्र आम आदमी के लिए असुविधा केन्द्र बन गये हैं इसलिये फिर से उन पर सुविधा की वार्निश दलाल भय्या की जेब गर्म करने पर ही होती है। नहीं तो वह खड़ा रहा इन सुविधा खिड़कियों के बाहर कारिंदे के मेज़ पर लौटने की प्रतीक्षा में, या करता रहा उस सर्वर के चलने का इंतज़ार, जो ऐन वक्त पर चलना बन्द कर देता है, और करते रहो एक लम्बे वक्त तक उसके पुन: चलने का इंतज़ार।
लेकिन राजपथ या हो जनपथ इसको कर्त्तव्य पथ कह तपती रेत पर नंगे पांव चलता हुआ आमजन अपने कायाकल्प की प्रतीक्षा करता है, इस धीरज के साथ कि जब यह चौथाई सदी मेहनत की गुज़र जाएगी, तो अपना देश बन जाएगा ‘विकसित देश’। आंकड़ों का क्या है, वह तो उसकी आर्थिक तरक्की दर को दुनिया की सबसे तेज़ दर बताने के बाद उसे चीन और अमरीका को पछाड़ कर दुनिया का सबसे अधिक शक्तिशाली देश बता ही सकते हैं।
इन आंकड़ों का क्या है, यह तो अनाज से लेकर खाने के तेल की कीमतों के आकाश छूने के बावजूद देश में महंगाई पर पूरा नियन्त्रण बता सकते हैं। कीमतें घट गईं सस्ता युग आ गया, उनका प्रचार तंत्र कहता है। उधर बाज़ार में हर रोज़ आपकी जेब छील कर उछलती हुई कीमतें कहती हैं, ‘हमें हाथ न लगा’। नौकरी मिलने के बढ़ते आंकड़े कहते हैं, हमने देश से बेरोज़गारी खत्म कर दी। देखते नहीं हो, रोज़गार दिलाऊ खिड़कियों के बाहर नौकरी-प्रार्थी लोगों की भीड़ कितनी कम हो गई।जी हां वहां भीड़ छंटी है, और सरकारी अनुकम्पा से रियायती राशन बांटने वाली दुकानों के बाहर भीड़ बढ़ गई है। अब चुनाव समय वोट मांगते राजनीतिक दलों के एजेंडे यह नहीं बताते कि राष्ट्र निर्माण और बढ़ते उत्पादन और निवेश से बेकारों में नौकरियां बांटने के उनके एजेंडे क्या हैं? बल्कि यह बताते हैं, जन-कल्याण के नाम पर उनके एजेंडों में मुफ्तखोरी की और कितनी नई घोषणाएं हैं। यहां देखते ही देखते मेहनत मजदूरी कर अपना पेट पालने वाला स्वाभिमानी देश खैरात आकांक्षी हो गया। सरकार बनाते बिगाड़ते नेता कुर्सी पर विरासती कब्ज़ा जमाते हुए यह नहीं बताते कि वे देश के सामने खड़ी विकट समस्याओं का हल क्या करेंगे? बल्कि यह बताते हैं कि बिना काम किये अपना पेट भरने के और कितने तरीके हैं। रोज़ सुबह आंख खोलने पर लोग अपना बैंक खाता टटोलते हैं, कि उनमें सरकार द्वारा घोषित पैसों का अनुदान हुआ कि नहीं। प्रविष्टी हुई कि नहीं।
कर्म की जगह दान को, निर्माण की जगह अनुकम्पा को, प्रगति की जगह उसके भाषणों और दावों को झेलते हुए दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाले इस देश के लोगों को पौन सदी हो गई। उन्हें चौथाई सदी और प्रतीक्षा का गुरु मन्त्र दे दिया गया है, इस अन्तराल में लोग या तो होने वाली सफलता का उत्सव मनाते हैं, या एक और शोभायात्रा में ज़िन्दाबाद का अभ्यास करने लगते हैं। यहां आदमी का वजूद नारों से पैदा उत्साह, और सफलता के आंकड़ों के उत्सव पर जीता है। तरक्की के साथ-साथ यहां चलता है रियायती अनाज बांटने का एक अनन्त पुण्य कर्म। कैसे पूछें इन उत्सवों से, कि अगर देश में तरक्की यूं हिमालय हो गई तो लोग क्यों देश से पलायन के लिए पारपत्र पाने के जुगाड़ में लगे हैं। क्यों शिक्षा क्रांति के नाम पर विश्वविद्यालयों के परिसर खाली और आईलेट अकादमियों के बाहर इच्छुकों की भीड़ लगी है? क्यों यहां भूख से किसी को न मरने देने की गारण्टी है, लेकिन शिक्षा प्राप्त करने के बाद यथोचित नौकरी देने की गारण्टी नहीं? लेकिन बन्धु, विजय उत्सव के इस माहौल में सवाल पूछना मना है। वह भी ऐसे सवाल कि जिनका कोई जवाब नहीं मिलता। कोलाहल के बीच कभी-कभी एक चीत्कार अवश्य मिल जाता है।

#नाकाबिले बरदाशत