इस्लाम के नाम पर महिलाओं को गूंगा बनाना चाहता है तालिबान
‘जब भी किसी आवश्यकता के कारण एक बालिग महिला अपने घर से बाहर निकले तो उसके लिए ज़रूरी है कि वह अपनी आवाज़, चेहरे व शरीर को पर्दे में रखे।’ यह है तालिबान का नया कानून ‘अच्छाई का प्रचार व बुराई की रोकथाम’, जिसकी घोषणा कुछ दिन पहले की गई है और जो शरीयत की तालिबानी व्याख्या को अफगानिस्तान के अवाम पर थोपता है। आधिकारिक गज़ट में प्रकाशित 114-पृष्ठों के इस डॉक्यूमेंट का अर्थ है कि असंबंधित पुरुषों, गैर-मुस्लिमों व ‘चरित्रहीन’ महिलाओं के सामने अफगानी महिलाओं को ‘अनुचित प्रलोभन के डर’ से न सिर्फ अपने चेहरे व शरीर को ढकना है बल्कि सार्वजनिक स्थलों पर उनकी आवाज़ भी सुनायी नहीं देनी चाहिए। तालिबान के अनुसार महिला की आवाज़— गाने, जपने या ज़ोर से पढ़ने— ‘औराह’ (शरीर के वे अंग जो दिखाये नहीं जा सकते) है, इसलिए सुनायी नहीं देनी चाहिए। असंबंधित पुरुष व महिलाएं एक-दूसरे को देख भी नहीं सकते। इस कानून के उल्लंघन का अर्थ है सज़ा को आमंत्रित करना।
इस्लाम के नाम पर तालिबान की यह अपनी व्याख्या है। यह कानून न केवल इस्लाम विरोधी है बल्कि महिला व इंसानियत विरोधी भी है। इसलिए दुनिया भर में इसकी आलोचना व निंदा हो रही है और संयुक्त राष्ट्र ने भी नये कानून की तुरंत निंदा की है, लेकिन साथ ही यह भी कहा है कि वह तालिबान से ‘संपर्क’ बनाये रखेगा। नये कानून में पुरुषों के लिए भी आदेश व नियम हैं। उनको दाढ़ी रखनी होगी, गले में टाई नहीं बांध सकते और पश्चिमी शैली में बाल नहीं बनवा सकते। सभी गेम्स व मनोरंजन के तरीके, जिनमें कंचों या अखरोट से बच्चों के परम्परागत गेम्स भी शामिल हैं, को जुआ घोषित करके प्रतिबंधित कर दिया गया है। यात्रा की इस तरह से योजना बनायी जाये कि नमाज़ का समय प्रभावित न हो। ड्राईवर उन महिलाओं को ट्रांसपोर्ट नहीं कर सकते जिनके साथ पुरुष गार्जियन नहीं हैं। मुहतासिब नामक नैतिक पुलिस को विवेकाधीन सज़ाएं देने का अधिकार है, जिनमें तीन दिन तक की कैद भी शामिल है। नैतिक पुलिस लोगों को इस्लामी प्रतीकों का सम्मान करने के लिए मज़बूर कर सकती है और फोन व लैपटॉप को चेक कर सकती है यह सुनिश्चित करने के लिए कि उनमें जीवित प्राणियों की तस्वीरें तो नहीं हैं। नैतिक पुलिस यह भी सुनिश्चित करेगी कि घरों से बाहर महिलाओं की आवाज़ या संगीत सुनायी न दे।
यहां यह बताना आवश्यक है कि इनमें से अधिकतर नियम अफगानिस्तान में पहले से ही लागू हैं, जिनमें से कुछ पिछले तीन साल के दौरान तालिबान के आदेश से लागू हुए हैं या स्थानीय प्रशासकों ने अधिक बेतुके ढंग से लागू किये हैं। इस समय डर यह है कि तथाकथित ‘नैतिकता कानूनों’ के आधिकारिक कोडिफिकेशन से सज़ाएं अधिक क्रूर हो जायेंगी और नैतिक पुलिस के हाथ ज्यादा मज़बूत हो जायेंगे। अफगान इतिहास पर सरसरी नज़र से देखने पर भी इन कानूनों का अति प्रतिगामी होना ज़ाहिर हो जाता है। अफगानी महिलाओं ने मतदान का अधिकार 1919 में प्राप्त किया था और 1980 के दशक तक महिलाएं मंत्री, जज, डॉक्टर व गायिका बन गईं थीं, हालांकि ग्रामीण क्षेत्रों में प्रगति अधिक सीमित थी। तालिबान के हाथ जब पहली बार सत्ता लगी (1996 से 2001 तक) तो महिलाओं को क्रूरता के साथ मध्य युग में भेज दिया गया, लेकिन अगले दो दशकों के दौरान नई पीढ़ी की परवरिश काफी हद तक आज़ादी में हुई और अनुमान यह था कि 2021 में सत्ता में वापसी करने वाला तालिबान भी विकसित हो गया होगा। नये कानूनों की घोषणा के बाद पूर्व अफगानी सांसद फौजिया कूफी ने पत्रकारों से कहा, ‘उन्हें तालिबान 2.0 के रूप में पेश किया गया था, अधिक उदारवादी भी, इसलिए हमने उनसे राब्ता कायम किया।’ उन्होंने बताया कि अंतरिम अवधि के दौरान कुछ तालिबान नेताओं की बेटियों ने विदेश में शिक्षा प्राप्त की थी लेकिन वे जब से सत्ता में लौटे हैं, तब से निरंतर ‘काले कानूनों’ से महिलाओं को निशाना बनाये हुए हैं।
भारतीय लेखिका नयनिमा बसु का कहना है कि ‘काबुल के बुलबुले’ के बाहर प्रांतों में लोग एकदम स्पष्ट थे कि तालिबान की सोच प्रक्रिया में कोई परिवर्तन नहीं आया है। बसु के अनुसार, ‘दोहा में तालिबान नेतृत्व, जिसने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को विश्वास दिलाया था कि लड़कियों के लिए एक्सक्लूसिव स्कूल व विश्वविद्यालय फिर से खोले जायेंगे किन्तु अफ़गानिस्तान में वास्तव में पाषाण युग की जिस सोच के तालिबान सत्ता में हैं, उनमें ज़बरदस्त विरोधाभास है।’ कुछ अफगान महिलाओं ने नये कानूनों का विरोध किया है। उन्होंने सार्वजनिक स्थलों पर अपनी आवाज़ बुलंद की है, सोशल मीडिया पर गाने गाते हुए वीडियो पोस्ट किये हैं, हालांकि वे सिर से पांव तक पर्दे में ढकी हैं। कुछ महिलाओं ने सड़कों पर भी प्रदर्शन किया है, जिसका अर्थ कूफी के अनुसार यह है, ‘कुछ महिलाओं को अपने जीवन व मौत की परवाह नहीं है क्योंकि उनके पास खोने को अब कुछ बचा नहीं है।’ अन्यों ने विरोध के नाजुक तरीकों को अपनाया है, लेकिन दीर्घकालीन प्रभावों के साथ। निर्वासन में जीवन व्यतीत कर रहीं पश्ताना दुर्रानी ने एक ़गैर-मुनाफे वाला संगठन ‘लर्न’ स्थापित किया है, जो अफ़गानिस्तान में पांच भूमिगत स्कूल चलाता है, जिनमें चोरी छुपे 661 लड़कियां शिफ्ट्स में शिक्षा प्राप्त करती हैं, और जैसे ही उन्हें तालिबान को खबर लगने का पता चलता है, लोकेशन को बदल दिया जाता है।
नये कानून घोषित होने के बाद जो वीडियो पोस्ट किये गये, उनमें बुर्का ओढ़े लड़कियों को विज्ञान, गणित व भाषा की शिक्षा ग्रहण करते हुए देखा जा सकता है। दुर्रानी ने लिखा है, ‘वे हमारे दरवाज़े बंद कर सकते हैं, लेकिन हमारे सपनों को नहीं छीन सकते।’ संयुक्त राष्ट्र महिला प्रकोष्ठ का कहना है कि नये कानून ‘दमनकारी’ हैं, जबकि मानवाधिकारों के लिए संयुक्त राष्ट्र आयुक्त के दफ्तर ने भी आग्रह किया है कि ‘पूर्णत: असहनीय’ कानून को निरस्त किया जाये। कूफी का कहना है, ‘मेरा यकीन है कि राजनीतिक दबाव तालिबान को जवाबदेह बनायेगा, लेकिन वह दबाव कभी डाला ही नहीं गया।’ ध्यान रहे कि संयुक्त राष्ट्र ने तालिबान की इस मांग को स्वीकार कर लिया है कि गर्मियों में दोहा में होने वाली वार्ता में महिलाओं को शामिल नहीं किया जायेगा।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर