कृषि को दरपेश चुनौतियों का समाधान क्या है?

कृषि उपज के दाम किसानों को प्रो. एम.एस. स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुसार न मिलने के कारण तथा भविष्य में एम.एस.पी. की गारंटी न होने से उनमें रोष है, जो वे धरने, रैलियां करके ज़ाहिर कर रहे हैं। लगभग 49 प्रतिशत जनसंख्या को कृषि रोज़गार उपलब्ध करती है। भारत के स्वतंत्र होने के समय 70 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या इस व्यवसाय में लगी हुई थी। कृषि विकास दर का सही ढंग से न बढ़ना चिन्ता का विषय बना हुआ है। कृषि आय बढ़ाने के लिए कई चुनौतियां सामने हैं, जिन्हें दूर करना पड़ेगा। 
कृषि अनुसंधान में बदलाव लाने की ज़रूरत है, जो गेहूं, धान के अतिरिक्त अन्य फसलों की खोज पर भी अधिक ज़ोर दे, जिन्हें विकल्प के रूप में चुना जा सके। पहले सब्ज़ इंकलाब के दौरान सफलता मिलने के बाद स्थिति यह हो गई कि भारत अनाज के पक्ष से आत्मनिर्भर ही नहीं अपितु अनाज निर्यात करने के योग्य भी हो गया। अब अनाज सुरक्षा से अधिक ज़रूरत पौष्टिक सुरक्षा की हो गई है। अनुसंधानकर्ताओं को पशु पालन, बागवानी तथा सब्ज़ियों की काश्त, दालों का उत्पादन तथा तेल बीज आदि फसलों के अनुसंधान की ओर अधिक ध्यान देना चाहिए ताकि इन व्यवसायों में उत्पादन बढ़े। गुणवत्ता बढ़ाने के लिए विशेष ध्यान दिया जाए। 
अधिक तपिश एक बड़ी समस्या दिखाई दे रही है। पर्यावरण गर्म होने से पहाड़ों में ग्लेशियर पिघल जाते हैं, जो सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध करने का स्रोत होते हैं। विशेषज्ञों ने अनुमान लगाया है कि तापमान में एक डिग्री सेल्सियस वृद्धि होने से चावल का उत्पादन 10 प्रतिशत तक कम हो सकता है। विश्व की दो-तिहाई आबादी भोजन के लिए चावल पर निर्भर है। वर्ष 2050 तक तापमान के 1-2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने की सम्भावना है। किसानों को अपना फसली चक्कर तथा अपने सिंचाई के साधन इसके दृष्टिगत अपनाने पड़ेंगे। अनुसंधानकर्ताओं को भी अपना अनुसंधान इसके अनुरूप बनाना होगा। फसल में पानी खड़ा रखने और अधिक पानी देने की बजाय तुपका सिंचाई के साधन इस्तेमाल करने पड़ेंगे, जिसके बाद पानी की बचत होगी और इस तकनीक से उत्पादन में भी वृद्धि होगी। 
यूरिया तथा डी.ए.पी. की कमी होने के बावजूद किसान फसल में इन खादों को विशेषज्ञों तथा पी.ए.यू. द्वारा सिफारिश की मात्रा से अधिक डाल रहे हैं। गेहूं के लिए प्रति एकड़ 110 किलो यूरिया की ज़रूरत है और 55 किलो प्रति एकड़ डायमोनियम फास्फेट (डी.ए.पी.) जबकि किसान यूरिया 200-250 किलो तथा डी.ए.पी. 150 किलो प्रति एकड़ तक भी फसल में डाल रहे हैं। यूरिया तथा डी.ए.पी. पर भारी सब्सिडी होने के कारण तथा यह विश्वास होने के कारण कि इनका अधिक इस्तेमाल करने से उत्पादन में वृद्धि होती है, किसान दिन-प्रतिदिन इन खादों की खपत बढ़ाए जा रहे हैं। इस वर्ष रबी के मौसम में डी.ए.पी. की उपलब्धता में भारी कमी होने की सम्भावना है। खरीफ के मौसम में डी.ए.पी. का आयात गत वर्ष से कम हुआ था। कमी को 12:32:16, 16:16:16 तथा 20:20:11 आदि जैसे एन.पी.के. मिश्रणों का इस्तेमाल करके पूरा किया गया। ज़रूरत है किसानों द्वारा खपत भी कम करने की। इससे विदेशी मुद्रा की बचत होगी और सरकारी खज़ाने में से भारी सब्सिडी दिए जाने का बोझ भी कम होगा। बचा हुआ पैसा कृषि के किसी अन्य क्षेत्र में विकास के लिए इस्तेमाल किया जा सकेगा।
पंजाब में फसली विभिन्नता में कोई उपलब्धि हासिल नहीं हुई। कई बार सरकार ने धान की काश्त के अधीन रकबा कम करने की योजना बनाई, परन्तु सफलता नहीं मिली। प्रत्येक वर्ष धान की काश्त के अधीन रकबा बढ़ता गया और अंत में अब 32 लाख हैक्टेयर तक पहुंच गया। गेहूं की काश्त बदस्तूर 35-36 लाख हैक्टेयर रकबे पर की जा रही है। धान की काश्त के अधीन रकबा कम करने की सख्त ज़रूरत है, क्योंकि भू-जल का स्तर तेज़ी से कम हो रहा है। कृषि अनुसंधान खरीफ के मौसम में किसानों को धान की फसल जितना लाभदायक विकल्प का कोई सुझाव नहीं दे सका। सिर्फ बासमती की काश्त के अधीन रकबा बढ़ा है, जो इस वर्ष 7 लाख हैक्टेयर तक चला गया। तेल बीज फसलों के आयात पर भारत सरकार काफी बड़ी राशि खर्च कर रही है। इस संबंध में जी.एम. तकनीक विधि अपनाने से उत्पादन बढ़ सकता था, परन्तु इसका किसान संस्थाओं द्वारा पिछले दिनों चंडीगढ़ में कांफ्रैंस करके कड़ा विरोध किया गया। 
फसलों की काश्त पर खर्च लगातार बढ़ रहा है, जिस कारण किसानों का शुद्ध लाभ कम हो रहा है। फसलों के उत्पादन में जड़ता की स्थिति है। पंजाब में प्रति सदस्य आय कम हो रही है, जिसे उद्योग तथा कृषि के कार्यों को प्रोत्साहन देकर ही बढ़ाया जा सकता है।