अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव में छाया इंडिया फैक्टर
अमरीका का 47वां राष्ट्रपति कौन बनेगा? इस कांटे की जंग में रिपब्लिकन ट्रंप जीतेंगे या डेमोक्रेट कमला हैरिस। यह चर्चा इस सप्ताह के बाद खत्म हो जाएगी पर अमरीका में ‘इंडिया इम्पैक्ट’, इंडिया फैक्टर संबंधी यह चर्चा उनकी जीत के बाद और आगे भी होती रहेगी कि अमरीकी राजनीति में भारतीयों का साफ दिखता असर पर्याप्त तेज़ी से बढ़ रहा है, वह आगे क्या रंग लाएगा। फिलहाल यह तो तय है कि अगर ट्रंप जीतते हैं तो उप राष्ट्रपति जेडी वेंस की पत्नी के रूप में भारतीय मूल की उषा वेंस व्हाइट हाउस में रहेंगी और अगर उप-राष्ट्रपति बनने वाली पहली भारतीय मूल की महिला कमला हैरिस चुनाव में जीत हासिल करती हैं, तो वे भी राष्ट्रपति भवन में भारतीय मूल का प्रतिनिधित्व करेंगी। सबब यह कि व्हाइट हाउस में किसी भारतीय अमरीकी का पहुंचना तय है। अमरीका के सेंसस ब्यूरो के मुताबिक 2020 में भारतीय मूल के अमरीकियों की संख्या 44 लाख से ज्यादा और 2023 में 48 लाख थी जबकि अन्य स्रोत कहते हैं कि यह संख्या इस साल 52 लाख पार कर चुकी है, जिसमें से 26 लाख से ज्यादा मतदाता हैं। भारतीय मूल के मतदाता कुल अमरीकी मतदाता के करीब डेढ प्रतिशत ही है लेकिन ये एक महत्वपूर्ण वोटिंग ब्लॉक हैं। विश्लेषक कहते हैं कि यहां के चुनावी गणित के अनुसार इतने मतदाता बहुत महत्व रखते हैं। इन्हीं के चलते भारतीय अमरीकी समुदाय का असर सीनेट चुनावों में बढ़ा है। इस चुनाव के नतीजों पर भारतीय अमरीकियों का असर साफ दिखेगा।
नागरिकता और मतदान का अधिकार पा चुके भारतीयों के अलावा उनसे तकरीबन दूनी संख्या में इससे विरत प्रवासी भारतीय भी हैं, जिनका परोक्ष प्रभाव इन चुनावों पर है। यही नहीं अमरीका में अफ्रीका, मैक्सिको, प्यूर्टोरिको वगैरह से आये प्रवासियों की संख्या अधिक होने के बावजूद भारतीय अमरीकी यहां की राजनीति में इसलिये अधिक प्रभावी हैं क्योंकि भारतीय मूल के लोगों को प्रवासियों के बीच में सबसे ज्यादा शिक्षित और प्रभावशाली समझा जाता है। इनका व्यावसायिक और सामाजिक दायरा भी विस्तृत है। वॉशिंगटन में भारतीय अमरीकियों की कुल आबादी का मात्र 2 प्रतिशत है, लेकिन राजनीति और प्रशासन में भारतीय अमरीकी 5 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सेदारी है। भारतीय अमरीकियों की औसत घरेलू आय लगभग 1,53,000 अमरीकी डॉलर है, यह कमाई दूसरे समुदायों की तुलना में दोगुने से भी ज्यादा है। नि:संदेह यह संपन्न समुदाय पार्टियों को चंदा देने तथा राजनीतिक सक्रियता में भी आगे हैं। दक्षिण एशियाई देशों के यथा पाकिस्तान, बांग्लादेश वगैरह के मतदाताओं पर भी भारतीय मतदाताओं के रुझान का असर होता है। उनके झुकाव का आंशिक ही सही पर अफ्रीकी, हिस्पैनिक, चीनी मतदाताओं पर भी असर पड़ता है। कुल मिलाकर भारतीय मतदाता अमरीकी राजनीति और वहां के चुनावों को अब इस स्तर पर प्रभावित कर रहे हैं, जो महज सैद्धांतिक और आंकड़ों तक ही सीमित नहीं बल्कि व्यवहारिक स्तर पर दिखने लगा है और कई महत्वपूर्ण तथा बड़े राज्यों में उनकी पकड़ से साफ नज़र आने लगा है वे परिणामों को प्रभावित कर सकते हैं। आखिर लोकतंत्र कहीं का भी हो, चुनाव प्रक्रिया में भले ही कुछ अंतर हो, प्रणाली में परिवर्तन हों लेकिन अंतत: लोकतंत्र संख्याओं का ही खेल है।
अमरीका में मौजूद महज एशियाई समूहों की बात करें तो उसमें सबसे ज्यादा भारतीय अमेरिकी हैं, सैन जोस, फ्रेमोंट, लॉस एंजिल्स, शिकागो, जर्सी सिटी और ह्यूस्टन जैसे शहर में इनकी बड़ी आबादी है। कैलिफोर्निया, मिशिगन, पेंसिल्वेनिया, उत्तरी कैरोलिना, जॉर्जिया, विस्कॉन्सिन, एरिजोना, नेवादा वगैरह राज्यों में अमरीकी भारतीय मतदाताओं का प्रभाव पिछले चुनावों से दिखने लगा है। कैलिफोर्निया में करीब छह लाख भारतीय-अमरीकी मतदाता है। न्यू जर्सी और न्यूयॉर्क में मिलाकर पांच लाख तो टेक्सास में चार लाख। इलिनोइस में लगभग दो लाख भारतीय-अमरीकी मतदाता हैं, तो वहीं फ्लोरिडा में तकरीबन डेढ लाख, पेंसिल्वेनिया में भी लगभग इसी के करीब और जॉर्जिया और वर्जीनिया मिला कर दो लाख, वॉशिंगटन में करीब एक लाख वोटर होंगे तो मिशिगन में और उत्तरी कैरोलिना में भी करीब करीब इतने ही, बाकी अमरीका के दूसरे हिस्सों में भी फैले हैं। अमरीका में 35 प्रतिशत से ज्यादा वोट अश्वेत समुदाय के हैं जिसमें भारतीय, एशियाई, अफ्रीकी हिस्पैनिक और अन्य समुदाय शामिल हैं। बेशक 47 राज्यों में उनसे ज्यादा 50 प्रतिशत वोट श्वेत समुदाय के हैं, लेकिन इनके मतदान प्रतिशत में गिरावट का रुझान जारी है लेकिन भारतीय और हिस्पेनिक लोगों का मतदान प्रतिशत बंपर रहा है। पिछली बार अमरीकी भारतीयों ने 71 प्रतिशत मतदान किया इस बार 96 प्रतिशत मतदाता मत देने की बात कह रहे हैं।
अमरीकी भारतीयों की संख्या ही नहीं सक्रियता भी बढ़ी है। 2015 में रिपब्लिकन हिंदू कोअलिशन या आरएचसी गठित हुई तो 2016 में ‘इंडियन अमरीकन इम्पैक्ट’। बाद में ऐसे ही कुछ और संगठन बने जो भारतीय मूल के अमरीकी नेताओं के लिए सर्वे, पार्टी के लिए वालंटियर्स बनाने, चुनावी रणनीति बनाने, प्रचार में मदद करने भारतीय अमरीकी मतदाताओं को वोट डालने के लिए प्रेरित करने लगे हैं। सबसे बड़ी बात यह कि वे इन नेताओं के लिए चुनावी फंड भी जुटाते हैं। भारत से कलाकार बुलाकर इस वर्ग को आकर्षित करना हो या अपने झुकाव के अनुसार रिपब्लिकन अथवा डेमोक्रेट के नेताओं का कार्यक्रम कराकर अपने मतदाताओं को प्रभावित करना हो, ये बड़े जोर शोर से कर रहे हैं। डेमोक्रेटिक पार्टी ने दक्षिण एशियाई मतदाताओं का समर्थन पाने के लिए इंडियन अमेरिकन इम्पैक्ट जैसे संगठनों की भारी मदद ली है, इस बार ‘लोटस ़फॉर पोटस’ यानी अमरीकी राष्ट्रपति के लिए कमल माने कमला का नारा इन्हीं की कोशिशों से चल निकला। रिपब्लिकन हिंदू कोअलिशन पहले ट्रंप के साथ था, पर इस बार यह कमजोर है, उसके बावजूद इसके प्रभाव से इंकार नहीं किया जा सकता। कमला हैरिस के समर्थन में चित्तियों यानी चाची मौसियों से बना 250 चित्तियों की ‘चित्ती ब्रिगेड’ ने बहुत काम किया है।
अमरीकी राजनीति में अमरीकी भारतीयों का दखल 1950 से ही था, 1957 में दिलीप सिंह सौंद रिपब्लिकन से तो तकरीबन पांच दशक बाद 2005 में बॉबी जिंदल डेमोक्रेट से अमरीकी कांग्रेस में आए। लेकिन असली जलवा तो 2013 के बाद शुरू हुआ जब अमरीकी राजनीति के आसमान पर कई भारतीय अमरीकी चमके। अमी बेरा 2013 में डेमोक्रेट से कांग्रेस के लिये चुने गए और पिछले दस साल से कैलिफोर्निया के छठे डिस्ट्रिक्ट से लगातार जीतते आ रहे हैं या फिर 2017 में सांसद बनी प्रमिला जयपाल जिन्होंने अपनी सीट लगातार चार बार जीती है, इसके अलावा रो खन्ना, राजा कृष्णमूर्ति, कमला हैरिस अथवा 2023 में श्री थानेदार का अमरीकी संसद में प्रवेश बताता है कि भारतीयों का दबदबा है और रहेगा क्योंकि भले ही रिपब्लिकन से ट्रंप उम्मीदवार हों लेकिन विवेक रामास्वामी अथवा निक्की हेली का असर कहीं से कम नहीं, यही हाल डेमोट्स पार्टी में भी है।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर