धुएं की परतें

पिछले एक मास से जिस तरह उत्तरी भारत के ज्यादातर भागों में प्रदूषण और धुएं भरी हवा की परत-दर-परतें जुड़ती जा रही हैं, उन्होंने लोगों का जीना दुश्वार कर दिया है। ऐसी प्रदूषित हवा में सांस लेते भी डर लगने लगा है। इसके बावजूद लोग फैलते हुए इस धुएं में सांस लेने के लिए विवश हैं। इसका मानवीय स्वास्थ्य पर बेहत विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। सांस की बीमारियों के अतिरिक्त अन्य अनेक तरह की बीमारियों की जकड़न मज़बूत होने लगी है। दशकों से ऐसा सिलसिला चलता आ रहा है। चांद पर पहुंचने की बातें करने वाला देश हवा एवं पानी के प्रदूषण की गिरफ्त से स्वयं को निकालने में असमर्थ महसूस कर रहा है।
 आंकड़े इसके साक्षी हैं। वायु की गुणवत्ता को मापने वाले यंत्र बेहद गम्भीर संकेत दे रहे हैं। हवा की गुणवत्ता का सूचक-आंकड़ा यदि 50 रहे तो इसे अच्छा माना जाता है और यदि यह 200 तक पहुंच जाए तो इसे खराब माना जाता है। यदि यह 400 तक पहुंच जाए तो इसे बहुत ही खराब माना जाता है तथा यदि यह 500 तक पहुंच जाए तो हालात गम्भीर हो जाती है, परन्तु आज इन खराब आंकड़ों तक पंजाब के सभी शहर पहुंच चुके हैं। अमृतसर में ये आंकड़े 314 तक पहुंच गए हैं तथा खन्ना में 308 तक पहुंच चुके हैं। 200 से ऊपर तो लगभग सभी बड़े शहर पहुंच चुके हैं। अनेक यत्नों के बावजूद न तो इस मौसम में खेतों में पराली को जलाये जाने से रोका जा सका है तथा न ही त्यौहारों के  दौरान पटाखे चलाने एवं आतिशबाज़ी करने को नकेल डाली जा सकी है। आंकड़ों के अनुसार जहां दो दिन मनाई गई दीवाली के समय देर रात्रि चलते रहे पटाखों से हवा में ज़हर घुलता रहा है, वहीं एक नवम्बर को पंजाब में 587 स्थानों पर पराली को जलाये जाने के मामले भी सामने आए। 30 अक्तूबर को ये आंकड़े 484 थे। मास भर से पराली जलाने के समाचार मिल रहे हैं, जिन्होंने जहां लाहौर से लेकर दिल्ली तक की हवा को बेहद प्रदूषित किया है, वहीं त्यौहारों के दिनों में  ़गैर-ज़िम्मेदारी का प्रदर्शन करते हुए ज्यादातर लोगों ने धुएं की इन परतों में और वृद्धि करने में अपना योगदान डाला है। बात पराली एवं आतिशबाज़ी तक ही सीमित नहीं है। हर तरह की फैक्टरियों से निकलता लगातार ज़हरीला धुआं तथा भिन्न-भिन्न तरह के लाखों ही वाहनों के निकलते धुएं का हवा में घुलना आदि भी हवा में ज़हर घोल रहा है।
तत्कालीन प्रशासन इनका कोई हल निकालने में असमर्थ रहे हैं। अदालतों की ओर से ये फैसले भी आए थे कि हर तरह के पटाखे बनाने पर ही पाबन्दी लगा दी जाए परन्तु सरकारें ऐसा करने में असमर्थ रही हैं। कारखानों के धुएं संबंधी कभी भी कोई बड़ी योजनाबंदी नहीं की जा सकी। वाहनों के प्रदूषण संबंधी चर्चा ज़रूर होती रही है परन्तु इसे सीमित करने के लिए कोई प्रभावशाली ढंग नहीं अपनाये जा सके। ऐसे वातावरण में जीने वाले ज्यादातर लोग भी इन पक्षों से सचेत नहीं हो सके, जिस कारण तरह-तरह के फैलते ऐसे प्रदूषण को नकेल नहीं डाली जा सकी, परन्तु अब इस पक्ष से पानी सिर के ऊपर से गुज़र गया प्रतीत होता है। यदि मौजूदा सरकारों ने, अदालतों ने इसके प्रति क्रियात्मक रूप में कोई कड़े कदम न उठाये और लोग भी सचेत होकर स्वयं को अनुशासन में न ला सके तो वह दिन दूर नहीं, जब चौगिर्दा पूरी तरह ज़हरीले चैम्बर का रूप धारण कर लेगा। ऐसे वातावरण में अच्छा एवं स्वस्थ जीवन व्यतीत करना तो एक तरफ, जीना भी कठिन हो जाएगा।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द  

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