रेवड़ियों की राजनीति : जन-कल्याण या देश पर बोझ ?

राजनीति एक अहम शब्द है। बिना राजनीति के कुछ भी संभव नहीं है। लोकतंत्र में इसका महत्व इस कारण और बढ़ जाता है क्योंकि बिना विरोध के लोकतंत्र अधूरा है। राजनीति इसी कारण रोचक है क्योंकि लोगों में असहमति है। इस असहमति को व्यक्त करने की संस्था है राजनीतिक दल। यह असहमति देश की प्रगति के लिए ज़रूरी है किन्तु जब यही स्वार्थ के वशीभूत हो जाती है तो घातक साबित होती है। दुर्भाग्यवश भारतीय राजनीति में राजनीतिक दलों के द्वारा अपनी स्वार्थपरायणता के चलते सामान्यत: ‘मुफ्त की रेवड़ियों’ का दौर  प्रचलित हो गया है। 
इसका उदाहरण अभी विगत सप्ताह सम्पन्न दिल्ली विधानसभा चुनाव में देखने को खूब मिला है। क्या कांग्रेस, क्या ‘आप’ और अब तकरीबन 27 साल बाद  दिल्ली की सत्ता संभालने जा रही भाजपा ने भी अपने घोषणा पत्र में ‘मुफ्त की रेवड़ी’ बाटने  का वादा किया था। भारतीय राजनीति में यह एक सामान्य परिघटना है। अब इस प्रवृत्ति ने पूरे देश में अपना पांव जमा लिया। 
12 फरवरी, 2025 को सर्वोच्च न्यायालय की एक कड़ी टिप्पणी से रेवड़ी संस्कृति देश में चर्चा का विषय बनी हुई है। न्यायमूर्ति बी.आर. गवई और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ड मसीह की पीठ ने शहरी इलाकों में बेघर लोगों को आसरा दिए जाने की याचिका पर सुनवाई करते हुए केंद्र सरकार से पूछा कि कि मुफ्त राशन और अन्य सुविधाओं के कारण लोग काम करने से बच रहे हैं, क्या ऐसी योजनाओं से समाज में परजीवियों की संस्कृति नहीं पनप रही है? सुप्रीम कोर्ट के द्वारा मुफ्त योजनाओं पर सवाल उठाना कोई नई बात नहीं हैए इसके पूर्व भी क्रमश: अक्तूबर तथा दिसम्बर 2024 में कोर्ट ने इस प्रकार के प्रश्न किए थे। अक्तूबर 2024 में उच्चतम न्यायालय ने केंद्र और चुनाव आयोग को नोटिस जारी कर पूछा था कि चुनाव से पहले मुफ्त योजनाओं की घोषणा को रिश्चत क्यों न माना जाए? इसी प्रकार दिसम्बर 2024 में भी कोर्ट ने मुफ्त राशन वितरण पर टिप्पणी की थी और सरकार से रोज़गार सृजन पर ध्यान देने को कहा था। 2013 में भी मुफ्त उपहारों की इस राजनीति के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग से राजनीतिक पार्टियों से चर्चा कर चुनावी घोषणा पत्रों के लिए प्रभावी दिशानिर्देश तय करने का दिशा निर्देश जारी करने को कहा था। हालांकि इस प्रकार के दर्जनों उदाहरण मिल जाएंगे लेकिन राजनीतिक दलों के चरित्र में कोई बदलाव नही दिखता है वरन् आजकल तो  राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों में मुफ्त की घोषणाओं की बाढ़ सी आ गई है। सबसे मज़ेदार बात यह है कि वर्ष 2022 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा  रेवड़ी संस्कृति की आलोचना करते हुए इसे देश के विकास के लिए खतरनाक बताए जाने के बावजूद भाजपा सहित अन्य दल भी इस प्रवृत्ति का अनुसरण कर रहे हैं। 
राजनीतिक दल सामान्यत: मुफ्त योजनाओं के जरिए  मतदाताओं को लुभाने का अनवरत प्रयास करते हैं लेकिन ये योजनाएं अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव डालती हैं। इनसे बाज़ार में असंतुलन की स्थिति उत्पन्न होती है, निजी निवेश भी प्रभावित होता है। साथ ही श्रमशक्ति की उत्पादकता भी  कम होती है। आसमान वितरण से सामाजिक असंतुलन उत्पन्न होता है। मुफ्त योजनाओं की राजनीति अल्पकालिक लाभ देती है, लेकिन आर्थिक असंतुलन, बाजार विकृति और परजीवी मानसिकता को बढ़ावा देकर लोकतंत्र पर बोझ बनती है। इस प्रवृत्ति से बचने के लिए  कानूनी आचार संहिता की ज़रूरत होती है। वास्तविक सशक्तिकरण के लिए कौशल विकास, रोजगार सृजन और संरचनात्मक सुधार की नितांत आवश्यकता है। भारत में आर्थिक स्थिरता तभी लायी जा सकती है जबकि लोकलुभावन वादों के बजाय दीर्घकालिक कल्याणकारी नीतियों पर ध्यान दिया जाए।
यद्यपि जन-कल्याणकारी राज्य होने के नाते हाशिये के लोगों की मौलिक ज़रूरतों को पूरा करना सरकार का कर्तव्य ह, लेकिन सब कुछ मुफ्त में देना, वह भी सिर्फ  इस लिए कि 5 वर्षों तक सत्ता का सुख भोगा जा सके, कहीं से भी न्यायोचित प्रतीत नहीं होता। हा, कुछ शर्तों के साथ इसे किया जा सकता है। मसलन यदि बेरोज़गारी भत्ता देने का कोई राजनीतिक दल संकल्प लेता है तो उसे पूरा करने के लिए ग्रामीण और शहरी स्तर पर बहुत-से ऐसे कार्य हैं जिन्हे युवाओं से करा कर उन्हे भत्ता दिया जा सकता है, जैसे विविध सरकारी योजनाओं से आम जनता को रूबरू कराना, विविध प्रकार के आकड़ों को इकट्ठा करने में मदद करना, में सम्मिलित किया जा सकता है। इससे युवाओं में स्वाभिमान पैदा होगा और समाज में परजीवियों की संस्कृति के विकास पर रोक लगेगी। 
यदि राजनीतिक दल प्रभावी आर्थिक नीतियों को लागू करें और कल्याणकारी योजनाओं को उपयुक्त लाभार्थियों तक पहुंचाएं, तो नि:संदेह  बुनियादी ढांचा और विकास स्वत: सुदृढ़ होगा। इससे रोज़गार के अवसर उत्पन्न होंगे, आत्मनिर्भरता को बढ़ावा मिलेगा और धीरे-धीरे मुफ्त योजनाओं की आवश्यकता समाप्त हो जाएगी। वास्तविक प्रगति के लिए सतत विकास और लक्ष्य आधारित नीतियां आवश्यक हैं, न कि केवल तात्कालिक लाभ के लिए दिए गए लोक-लुभावन वादे। (युवराज)

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