अंधेर नगरी चौपट राजा
उनके आस-पास के सब लोग हैरान थे। ये एक नई बात हुई थी कि चौकीदार को ही मतदान करने का अवसर नहीं मिलेगा। जबकि उनकी ड्यूटी मतदान केंद्र पर ही थी। ये पहली बार था कि मुर्दा चुनाव करवा रहा था। स्ट्रांग रुम की सुरक्षा मुर्दा कर रहा था।
अब से पहले के हर चुनावों को यानी लोकतंत्र के हर महापर्व को वो बहुत ही धूमधाम से मनाते आ रहे थे। मुखिया, वार्ड, पंचायत, यानी हर दूसरे-तीसरे चुनाव में वो हर बार वोट देते आए थे। वोट करके उनको एक अजीब तरह का सुकून मिलता था लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ था। और वो वोट देने के अधिकार से वंचित रह गए थे।
ये क्या कम बड़ी बात थी, कि वो चौकीदार थे। जिन पर देश के चीजों की निगरानी का जिम्मा था। और उनका नाम लिस्ट में नहीं था! उनका नाम चोरी चला गया था। और ये ऐसी-वैसी चोरी नहीं थी। उनके नाम की चोरी थी। जिसको सरकारी तंत्र में मौजूद लोगों ने चोरी किया था।
लिहाजा वो सरकारी दफ्तर के चक्कर लगा रहें थे। जो सुनता वही चौंकता कि चौकीदार साहब का वोट जब इस देश में सुरक्षित नहीं है तो भला और किसका सुरक्षित हो सकता है।
चौकीदार अपना नाम खोजने में लगे थे। वो कार्यलयों के चक्कर काट रहे थे। इस टेबल से उस टेबल पर। अधिकारी उनको शुबहा की नज़र से देखते। पूछते की तुम चौकीदार कैसे हो सकते हो। चौकीदार होने के लिए पहले तुमको देश का नागरिक होना होगा। तुम भगोड़े हो। या तुम रोहिंग्या हो। या तुम पाकिस्तानी हो। या शायद तुम किसी दुश्मन देश के एजेंट हो। तभी तो तुम्हारा नाम मतदाता सूची में नहीं है। तुम क्या सोचते हो तुमको ऐसे ही तुम्हारा नाम मिल जाएगा और तुम इस देश के नागरिक बन जाओगे।
वो हैरान-परेशान थे। पहली बार उनको लगा कि व्यवस्था लचर है! और उनको ये भी समझ में आया कि हमारे यहां लोग हमारी व्यवस्था से इतना ही और ऐसे ही परेशान रहते हैं। जैसे कि अभी वो हैं।
उनके वोटर लिस्ट की फाइल और उनके नाम की खोज में बड़ा वक्त लग रहा था। चौकीदार चीख रहा था। चिल्ला रहा था लेकिन होना कुछ नहीं था। उसकी तरह के लाखों लोगों का नाम गुम गया था। और वे लोग भी चीख-चिल्ला रहे थे।
वो अपनी बेबसी लोगों को बता रहें थें। इधर चौकीदार को अपने ज़िंदा होने का प्रणाम-पत्र लेकर आना था कि वो जीवित था। फाइल आगे बढ़ ही नहीं रही थी। या उनकी फाइल शायद गुम गई थी। ठीक-ठीक पता नहीं। कृपा रूकी हुई थी। फाइल रेंग रही थी। कुव्यवस्था के आगे!
लेकिन चौकीदार भी जिद्दी था। उसने अपना नाम वापस खोजने के लिए अंगद की तरह अपने पैर जमा लिए थे। वो लगातार दफ्तर के चक्कर-पे-चक्कर लगा रहा था। उसने बताया कि मैं चौकीदार हूँ। और आपकी सुरक्षा करता हूँ। लिहाजा मेरी फाइल खोजी जाए। मेरा नाम ढूँढ़-ढ़ांढ़ कर किसी तरह इस देश की मतदाता सूची में जोड़ दिया जाए।
हमारी व्यवस्था में अजीब किस्सा था कि चौकीदार के अलावे किसी के बेटे का तो किसी के पति का नाम वोटर लिस्ट में नहीं था। सब व्यवस्था को कोस रहे थे लेकिन ये नया नहीं था। कमोबेश बहुत से लोगों का नाम वोटर लिस्ट से गायब था। ये यूँ ही नहीं था। ये षड़यंत्र व्यवस्था की है। जिसको अपनी जेबें भरनी होती है। मार्कशीट पर जानबूझकर कुमार की जगह कुमारी कर दिया जाता है। ताकि सुधार करके कमाई की जा सके।
ये सब ऐसे नहीं होता है। इसके लिए बी.एल.ओ. साहब जिम्मेदार हैं। ये गांव-गांव कस्बे-कस्बे जाकर इस बात की जानकारी नहीं लेते कि कौन आदमी जिंदा है। और कौन मर गया है। बी.एल.ओ. साहब बंद ए.सी. कमरों में मतदाताओं के लिस्ट के पुनरीक्षण का काम करते हैं। और जिसको-तिसको मार देते हैं। यही नहीं इनके कारनामे भी बड़े-बड़े हैं। ज़िंदा लोगों को मार देना और मरे हुए लोगों को ज़िंदा कर देना इनके बाएं हाथ का खेल है। ये धरती पर के अघोषित यमराज हैं। वो अगर चलकर हमारे-आपके घरों तक आएंगें तभी तो सही जानकारी मिलेगी।
लेकिन बी.एल.ओ. साहब ऐसा नहीं करेंगे। काहे से कि उनके पैरों मे लगी मेहंदी छूट जाएगी। लिहाजा वो अंधेर नगरी चौपट राजा की तर्ज पर काम करतें हैं। बी.एल.ओ. साहब भी क्या करें। काम का प्रेशर है। उनको ज़िलाधिकारी का प्रेशर है। ज़िलाधिकारी पर चुनाव आयोग का प्रेशर है।



