‘मनरेगा’ की टूटन
केन्द्र सरकार द्वारा मनरेगा कानून के स्थान पर ‘विकसित भारत गारंटी रोज़गार और आजीविका मिशन (ग्रामीण)’ के नाम वाला संसद में एक नया बिल पेश करने से एक बार तो राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार संबंधी बना यह प्रभाव और मज़बूत हुआ है कि वर्ष 2014 में प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने सत्ता सम्भालने के बाद सुचेत रूप में यह यत्न किया है कि इससे पूर्व सरकारों, जिनमें कांग्रेस ने अधिक समय शासन किया, द्वारा डाली गई लकीरों को जहां तक सम्भव हो, मिटा दिया जाए। अब तक वह अपनी इस नीति में काफी हद तक सफल भी रहे हैं। चाहे सरकारी कामकाज हो, शैक्षणिक संस्थान हों, सामाजिक ताना-बाना हो, आर्थिकता के क्षेत्र के साथ-साथ अन्य अनेक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र हों, उनमें पिछली सरकारों की योजनाओं को रद्द करके अपनी नई योजनाएं बनाने और इन्हें अपने सैद्धांतिक रंग में रंगना, वह ज़रूरी समझती रही है।
मोदी सरकार ने प्रत्येक क्षेत्र में अपनी नई योजनाएं बनाईं जिनमें घर-घर गैस पहुंचाना, ज़रूरतमंद परिवारों के लिए शौचालय बनाना, बड़ी संख्या में ज़रूरतमंदों के लिए घर बनाना, करोड़ों लोगों को मुफ्त अनाज वितरित करने की योजना और किसानों को प्रत्यक्ष रूप में पड़ाव-दर-पड़ाव आर्थिक सहायता देना शामिल है। प्रत्येक तरह के लोगों को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती इन योजनाओं की व्यापक स्तर पर प्रशंसा भी की जाती रही है। मोदी सरकार इन योजनाओं को अपनी बड़ी उपलब्धि भी मानती रही है। जन-साधारण ने भी इन्हें देखते हुए सरकार के प्रति अक्सर भारी समर्थन दिया है। इसी क्रम में ही मनरेगा योजना भी आती है। यह महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी एक्ट वर्ष 2005 में संसद द्वारा पारित की गई थी। उस समय कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यू.पी.ए.) का शासन था। इस योजना की इस पक्ष से भी प्रशंसा की गई थी कि यह ग्रामीण क्षेत्रों में हाशिये पर आए परिवारों की कुछ सुध लेने वाली है। इन परिवारों को आर्थिक सहारा देने वाली है। समय-समय इसके निर्माण और ढांचे में सुधार भी किये जाते रहे हैं। मोदी सरकार ने भी सत्ता सम्भालते पहले तो इस पर किन्तु-परन्तु लगाए परन्तु फिर इसकी जन-पक्षीय भावना के दृष्टिगत इसे जारी रखा। लगातार इस संबंध में आडिट किए जाते रहे।
समय-समय इसे पारदर्शी बनाने के यत्न भी किए गए और इसकी लगातार जांच-पड़ताल करके इसकी त्रुटियों को दूर करने का भी यत्न किया गया। इस कानूनी सक्रियता की वर्ल्ड बैंक जैसी अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने भी प्रशंसा की, क्योंकि यह योजना गांवों में करोड़ों लोगों के लिए रोटी-रोज़ी का सहारा बनी थी। इसमें ़गैर-प्रशिक्षित कामगरों को प्राथमिकता के आधार पर वर्ष में कम से कम 100 दिन के लिए काम करने के अवसर प्रदान किए गए थे और उनके लिए राज्यों के मूल्यांकन के आधार पर वेतन भी निर्धारित किए गए थे। यह भी देखा जाता था कि परिवार के एक सदस्य को काम करने के लिए 5 किलोमीटर से अधिक न जाना पड़े। यदि ज़रूरतमंद को अपने आवेदन करने के 15 दिन तक काम पर नहीं लगाया जा सके तो उसके लिए बेरोज़गारी भत्ता देना भी निश्चित किया गया था। इसकी भावना पर्यावरण शुद्धता, महिलाओं का सशक्तिकरण, सामाजिक समानता और ग्रामीण क्षेत्रों में प्रवास को कम करने की थी। इसके कार्यों में सड़कें बनाना, पानी की सम्भाल के लिए योजनाओं को सफल बनाना आदि शामिल था। नए बनाए जा रहे कानून का नाम विकसित भारत गारंटी रोज़गार और आजीविका मिशन (ग्रामीण) रखा गया है और जिसे संक्षिप्त में ‘वी.बी. जी राम जी’ कहा जाएगा। इसमें रोज़गार 100 दिनों की बजाए 125 दिन देने की घोषणा की गई है। मनरेगा कानून में 90 प्रतिशत खर्च केन्द्र सरकार और 10 प्रतिशत राज्य सरकारें करती थीं। अब यह अनुपात 60 और 40 का कर दिया गया है। अभिप्राय इसके लिए 60 प्रतिशत खर्च केन्द्र सरकार और 40 प्रतिशत राज्य सरकारें करेंगी। नए प्रबंध में इसे कैसे सफल बनाया जा सकेगा और ज्यादातर राज्य सरकारें जो पहले ही वित्तीय रूप पर कमज़ोर स्थिति में हैं, कैसे अपनी ओर से 40 प्रतिशत हिस्सा डाल कर इस योजना से लाभ उठा सकेंगी, यह देखने वाली बात होगी। इस संबंध में तस्वीर आने वाले समय में ही स्पष्ट हो सकेगी।
इसमें महात्मा गांधी जिनके द्वारा देश की आज़ादी के संघर्ष में भरपूर योगदान डालने के कारण उन्हें राष्ट्र पिता की पदवी दी जाती है, का नाम किस उद्देश्य से हटाया गया है और इसे किस तरह की रंगत देने का यत्न किया गया है, यह बात स्पष्ट रूप से सामने आ गई है। इस बिल की विपक्षी पार्टियों द्वारा कड़ी आलोचना भी हुई है और इस बात पर भी कड़ी आपत्ति उठाई गई है कि इसमें राष्ट्र पिता का नाम क्यों गायब किया गया है? नि:संदेह ऐसा दृष्टिकोण और सोच देश की लोकतांत्रिक भावना को कम करने वाली ही सिद्ध हो सकती है।
—बरजिन्दर सिंह हमदर्द

