देश प्लास्टिक-मुक्त कैसे होगा ?

वैसे तो विज्ञान के सहारे मनुष्य ने पाषाण युग से लेकर आज तक मानव जीवन सरल और सुगम करने के लिए एक बहुत लम्बा सफर तय किया है। इस दौरान उसने एक से एक  वो उपलब्धियां हासिल कीं जो अस्तित्व में आने से पहले केवल कल्पना लगती थीं, फिर चाहे वो बिजली से चलने वाला बल्ब हो या टीवी फोन रेल, हवाई जहाज, कम्प्यूटर, इंटरनेट कुछ भी हो ये सभी अविष्कार वर्तमान सभ्यता को एक नई ऊंचाई, एक नया आकाश देकर मानव के जीवन में क्रांतिकारी बदलाव का कारण बने। 1907 में जब पहली बार प्रयोगशाला में कृत्रिम ‘प्लास्टिक’ की खोज हुई तो इसके आविष्कारक बकलैंड ने कहा था, ‘अगर मैं गलत नहीं हूं तो मेरा ये आविष्कार एक नए भविष्य की रचना करेगा।’ और ऐसा हुआ भी, उस वक्त प्रसिद्ध पत्रिका टाइम ने अपने मुख्य पृष्ठ पर लियो बकलैंड की तस्वीर छापी थी और उनकी फोटो के साथ लिखा था, ‘ये न जलेगा और न पिघलेगा।’ और जब 80 के दशक में धीरे-धीरे पॉलीथिन की थैलियों ने कपड़े के थैलों, जूट के बैग, कागज़ के लिफाफों की जगह लेनी शुरू की हर आदमी मंत्र मुग्ध था। हर रंग में, हर नाम में, इससे बनी थैलियों में चाहे जितने वजन का सामान डाल लो, फटने का टैंशन नहीं, इनसे बने कप कटोरियों में जितनी गर्म चाय कॉफी या सब्ज़ी डाल लो, हाथ जलने या फैलने का डर नहीं। सामान ढोना है, खराब होने या भीगने से बचाना है, पन्नी है ना! बिजली के तार को छूना है, लेकिन बिजली के झटके से बचना है प्लास्टिक की इंसुलेशन है ना! खुद वज़न में बेहद हल्की परंतु वज़न सहने की बेजोड़ क्षमता वाली एक ऐसी चीज हमारे हाथ लग गई थी, जो लगभग हमारी हर मुश्किल का समाधान थी, हमारे हर सवाल का जवाब थी, यही नहीं, वो सस्ती सुंदर और टिकाऊ भी थी, यानी कुल मिलाकर लाजवाब थी। 
लेकिन किसे पता था कि आधुनिक विज्ञान के एक वरदान के रूप में हमारे जीवन का हिस्सा बन जाने  वाला यह प्लास्टिक एक दिन मानव जीवन ही नहीं सम्पूर्ण पर्यावरण के लिए भी बहुत बड़ा अभिशाप बन जायेगा। ‘यह न जलेगा न पिघलेगा’ जो इसका सबसे बड़ा  गुण था, वही इसका सबसे बड़ा अवगुण बन जायेगा। जी हां, आज जिन प्लास्टिक की थैलियों में हम बाज़ार से सामान लाकर आधे घंटे के इस्तेमाल के बाद ही फेंक देते हैं, उन्हें नष्ट होने में हज़ारों साल लग जाते हैं। इतना ही नहीं इस दौरान वो जहां भी रहें मिट्टी में या पानी में अपने विषैले तत्व आसपास के वातावरण में छोड़ती रहती हैं। नवीन शोधों में पर्यावरण और मानव जीवन को प्लास्टिक से होने वाले हानिकारक प्रभावों के सामने आने के बाद आज विश्व का लगभग हर देश इसके इस्तेमाल को सीमित करने की दिशा में कदम उठाने लगा है। भारत सरकार ने भी देशवासियों से सिंगल यूज़ प्लास्टिक यानी एक बार प्रयोग किए जाने वाले प्लास्टिक का उपयोग बंद करने का आह्वान किया। इससे पहले 2018 विश्व पर्यावरण दिवस की थीम ‘बीट प्लास्टिक पॉल्युशन’ की मेजबानी करते हुए भी भारत ने विश्व समुदाय से सिंगल यूज़ प्लास्टिक से मुक्त होने की अपील की थी।  लेकिन जिस प्रकार से आज प्लास्टिक हमारी दैनिक दिनचर्या का ही हिस्सा बन गया है सिंगल यूज़ प्लास्टिक का उपयोग पूर्णत: बंद हो जाना तब तक सम्भव नहीं है, जब तक इसमें जन-भागीदारी न हो। क्योंकि आज मानव जीवन में प्लास्टिक की घुसफैट कितनी ज्यादा है इस विषय पर ‘प्लास्टिक: अ टॉक्सिक लव स्टोरी’ अर्थात प्लास्टिक, एक ज़हरीली प्रेम कथा, के द्वारा लेखिका सुजैन फ्रीनकेल ने बताने की कोशिश की है। इस किताब में उन्होंने अपने एक दिन की दिनचर्या के बारे में लिखा है कि वे 24 घंटे में ऐसी कितनी चीजों के सम्पर्क आईं जो प्लास्टिक की बनी हुई थीं। इनमें प्लास्टिक के लाइट स्विच, टॉयलेट सीट, टूथब्रश, टूथपेस्ट ट्यूब जैसी 196 चीज़ें थीं, जबकि गैर-प्लास्टिक चीजों की संख्या 102 थी। यानि स्थिति समझी जा सकती है। लेकिन जब हम जन-भागीदारी की बात करते हैं तो जागरूकता एक अहम विषय बन जाता है। कानून द्वारा प्रतिबंधित करना या उपयोग करने पर जुर्माना लगाना इसका हल न होकर लोगों का स्वेच्छा से  इसका उपयोग नहीं करना होता है और यह तभी सम्भव होगा जब वो इसके प्रयोग में होने वाले दुष्प्रभावों को समझेंगे और जानेंगे। अगर आप समझ रहे हैं कि यह एक असम्भव लक्ष्य है तो आप गलत हैं। यह लक्ष्य मुश्किल हो जाता है, लेकिन असम्भव नहीं इसे साबित किया है हमारे ही देश के एक राज्य ने। जी हां, सिक्किम में लोगों को प्लास्टिक का इस्तेमाल करने पर जुर्माना न लगाकर बल्कि उससे होने वाली बीमारियों के बारे में अवगत कराया गया और धीरे-धीरे जब लोगों ने स्वेच्छा से इसका प्रयोग कम कर लिया तो राज्य में कानून बनाकर इसे प्रतिबंधित किया गया और सिक्किम भारत का पहला राज्य बना जिसने प्लास्टिक से बनी डिस्पोजल बैग और सिंगल यूज़ प्लास्टिक की बोतलों पर बैन लगाया।
दरअसल प्लास्टिक के दो पक्ष हैं। एक वह जो हमारे जीवन को सुविधाजनक बनाने की दृष्टि से उपयोगी है तो उसका दूसरा पक्ष स्वास्थ्य की दृष्टि से प्रदूषण फैलने वाला एक ऐसा हानिकारक तत्व जिसे रिसायकल करके दोबारा उपयोग में तो लाया जा सकता है, लेकिन नष्ट नहीं किया जा सकता। अगर इसे नष्ट करने के लिए जलाया जाता है तो अत्यंत हानिकारक विषैले रसायनों को उत्सर्जित करता है, अगर मिट्टी में गाढ़ा जाता है तो हज़ारों साल यों ही दबा रहेगा, अधिक से अधिक ताप में छोटे-छोटे कणों में टूट जायेगा, लेकिन पूर्ण रूप से नष्ट नहीं होगा। अगर समुद्र में डाला जाए तो वहां भी केवल समय के साथ छोटे-छोटे टुकड़ों में टूट कर पानी को प्रदूषित करता है। इसलिए विश्व भर में ऐसे प्लास्टिक के प्रयोग को कम करने की कोशिश की जा रही है, जो दोबारा इस्तेमाल में नहीं आ सकता। वर्तमान में केवल उसी प्लास्टिक के उपयोग को बढ़ावा दिया जा रहा है, जिसे रिसायकल करके उपयोग में लाया जा सकता है। लेकिन अगर हम सोचते हैं कि इस तरह से पर्यावरण को नुक्सान नहीं पहुंचा तो हम गलत हैं, क्योंकि इसे रिसायकल करने के लिए इसे पहले पिघलाना पड़ता है और उसके बाद भी उससे वो ही चीज दोबारा नहीं बन सकती बल्कि उससे कम गुणवत्ता वाली वस्तु ही बन सकती है और इस पूरी प्रक्रिया में नए प्लास्टिक से एक नई वस्तु बनाने के मुकाबले उसे रिसायकल करने में 80 प्रतिशत अधिक ऊर्जा का उपयोग होता है साथ ही विषैले रसायनों की उत्पत्ति । किन्तु बात केवल यहीं खत्म नहीं होती। अनेक रिसर्च में यह बात सामने आई है कि चाहे कोई भी प्लास्टिक हो वो अल्ट्रावॉयलेट किरणों के सम्पर्क में पिघलने लगता है। अमरीका की स्टेट यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने भारत के अलावा चीन, अमरीका, ब्राजील, इंडोनेशिया, केन्यालेबनान, मैक्सिको और थाईलैंड में बेची जा रही है 11 ब्रांडों की 250 बोतलों का परीक्षण किया।
 

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