धूल धुआं गुबार

(क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)
पेड़ विहीन सड़क पर तीखी धूप का पैनापन झेलना मुश्किल हो रहा था। रिक्शे वाला मेरे पास से गुज़रा खाली भी था। पांच रुपये और बीस रुपये के फर्क ने मुझे उसे रोकने नहीं दिया। बस की इंतजार करता रहा। प्यास के कांटे गले में महसूस होने लगे थे। वैभवी ने मेरे लिए फ्रिज़ से पानी की बोतल निकालकर प्लास्टिक की थैली में डालकर मेज  पर रखी थी। परन्तु मैंने गुस्सा दिखाने के लिए उठाई नहीं।
एक कार मेरे पास से निकल गई। मुझे जानी-पहचानी सी लगी क्योंकि उसकी पीछे की खिड़की पर जो हिंस्र पशु की स्क्रीन थी उसे मैंने पहले भी देखा था। पास के चौराहे का गोलचक्र काट कर कार फिर मेरे पास आ गई... यह करतार की गाड़ी थी... वही चला रहा था। उतर  कर उसने मुझे गले लगा लिया।
-मैं इधर का एक काम खत्म कर तुम्हारे घर जाने वाला था। यह देखों तुम्हारे घर का पता। उसने जेब से कागज़ का एक पुर्जा निकाला। उस पर विनय के हाथ का लिखा मेरे घर का पता था।
‘मुझे पता है तुम मुझसे बहुत नाराज़ हो। ठीक भी है। तुम्हारी जगह मैं होता तो मैं भी गालियां देता। मैं आज तुमसे माफी मांगने आया हूं... तुम्हें कुछ खास काम तो नहीं..।’
-नहीं, कुछ खास नहीं।
-यहां धूप में क्यों खड़े रहें। मेरे साथ चलो किसी अच्छी ठंडी जगह बैठ कर विस्तार से बात करते हैं।
मुझे संकोच में पड़ा देख कर कहा,‘चल न यार, मैं इतना भी बुरा नहीं कि मुझसे बात भी नहीं की जा सके।’ उसने मुझे बांह से पकड़ कर खींच लिया। कार जाकर ‘रात का वैभव’ होटल में रुकी।
मैं यहां कभी नहीं आया था। यह शहर के महंगे होटलों में एक था, ऐसा सुना हुआ था। 
-हम कहीं और भी बैठकर बात कर सकते थे। मैंने कहा। ‘मुझे अपने किये का प्रायश्चित करना है, जो अन्जाने में हुआ।’
मुझे विनय ने बताया था कि करतार को उस फोन का मलाल है, जो उसने उस दिन तुम्हें किया। वह तुमसे माफी मांगना चाहता है और मुझे कह रहा था कि तुम्हारे घर उसके साथ चलूं।
मन से करतार को स्वीकार न कर पाने की कुछ वजह थी। दफ्तर की ज़रूरत की कुछ चीज़ें खरीदने के अलावा वह कोई काम नहीं करता था, परन्तु उसका असर रसूख ऊपर के अफसरों तक था। सुना था कि महिला आश्रम का अध्यक्ष उसका खास दोस्त है। ज़रूरत पड़ने पर किसी घटिया अफसर का बिस्तर गर्म करवाना उसके लिए मामूली-सी बात है।
जब पुराने रेलवे क्लेम व्यवस्थित करने का दबाव ऊपर से आया था। जी-एम ने मुझे दिल्ली जाकर केसों पर बहस करने या संबंधित रिकार्ड दिखाने के लिए भेजा था तब करतार को मेरे साथ भेज दिया था, ताकि ज़रूरत पड़ने पर किसी अधिकारी को खुश किया जा सके। तब हम नई दिल्ली स्टेशन से थोड़ी ही दूर एक गैस्ट हाऊस में रुके थे। यह व्यवस्था भी करतार को ही करनी थी। रेलवे दफ्तर में काफी माथा पच्ची करने के बाद हम लोग शाम को कमरे में लौट आये। इसने वह शाम दिल्ली की बदनाम गलियों में गुज़ारने की ठान ली। उसके लिए दिल्ली आने का मतलब यही था। मुझे साथ ले जाना चाहा तो मैंने सीधा इन्कार कर दिया। वापस दफ्तर आकर इसने इस किस्से पर लोगों के हंसने का मसाला पैदा कर लिया, मेरी पीठ पीछे मेरी मर्दानगी पर फिकरे कसे गये।
वह मुझे हाल में ले आया। दिन के समय भी हाल में नीम अन्धेरा था। एक कोने में कालेज से भागे हुए एक लड़का-लड़की बैठे हुए थे। बीच की मेज़ पर पंजाबी नाटक की टी.वी. कलाकार अपनी सहेली के साथ बैठी हुई थी। (क्रमश:)