हस्बेमामूल (क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)

देखो बच्चों! शोर मत मचाओ। ऊपर वाली सीट पर जो अंकल जी लेटे हैं, कुछ पढ़ रहे हैं। उन्हें डिस्टर्ब हो रहा होगा। तुम अच्छे बच्चे हो ना...?’ बुजुर्ग महिला ने पता नहीं क्या सोचते-समझते उन बच्चों को प्यार से डांटा।
मैंने भी साथ ले आयी अपनी किताब इस उम्मीद में पुन: खोल ली थी कि शायद पढ़ते-पढ़ते नींद आ जाये। यद्यपि मेरे सीट के बगल वाली लाइट खराब थी, लेकिन सामने के ऊपरी बर्थ की लाइट जल रही थी, जिससे मुझे उसकी रोशनी में पढ़ने में कोई खास दिक्कत नहीं हो रही थी। वो सज्जन फिलहाल अपने स्मॉर्ट-फोन में व्यस्त थे। परन्तु उस सीट पर लेटे सज्जन ने थोड़ी देर बाद अपनी लाइट बुझा दी। शायद सोने की तैयारी में होंगे। ऐसे में यात्रा के दौरान किताब पढ़ने की रही-सही मेरी उम्मीद भी जाती रही। हालांकि, निचली सीट पर बैठे दोनों बच्चों और बोगी में अन्य यात्रियों के भी बच्चों के लगातार शोर-गुल, धमा-चौकड़ी मचाए रहने की वजह से साफ था कि डिब्बे में लेटे यात्रीगण तब-तक आराम से नहीं सो सकते थे, जब तक कि ये बच्चे भी थक-हार कर सो नहीं जाते। मेरे सामने के ऊपरी बर्थ पर लेटे सज्जन भी अब करवटें बदलते दिखे। 
‘...और बुझाओ लाइट। चले थे लेटने। मेरी पढ़ाई बंद करने...’ ऐसी परिस्थितिजन्य असुविधाजनक स्थिति में मैंने मन-ही-मन बुदबुदाते, साथ वाले ऊपरी सीट पर लेटे सज्जन को लानत भेजते कोसा। चूंकि लाइट बुझी होने के कारण किताब पढ़ने का सवाल ही नहीं था, सो नींद आने तक, स्वभावत: मैंने अपने स्मॉर्टफोन में आये नोटिफिकेशंस आदि चेक करना शुरू कर दिया। 
 स्मॉर्टफोन बंद करने के बाद यूं ही, या कह लीजिए कौतुहलवश मेरी नज़र निचली सीटों पर गयी। अधेड़ महिला, जो लेटे हुए बुजुर्ग सज्जन के बगल ही सीट पर बैठी थी, बैठे-बैठे ऊंघ रही थी। दूसरी निचली सीट पर लेटे युवक के बगल बैठी वो नवविवाहिता, हल्के गुनगुनाते अपने नाखूनों पर नेल-पॉलिश लगाने में मशरूफ थी। अगल-बगल की सीटों पर कुछ यात्री अपने-अपने स्मॉर्टफोनस में व्यस्त थे, तो कुछ बैठे-बैठे ऊंघ रहे थे। कुछ यात्री गहरी निद्रा में सो गये थे। 
डिब्बे में ज्यादातर बत्तियां बुझी हुईं थीं। बस्स...केवल गैलरी में एक या दो हल्की लाइट्स जल रही थीं। इसके अलावा डिब्बे में जो भी थोड़ी-बहुत रोशनी बिखरी हुई थी, वो मुसाफिरों के स्मॉर्टफोन से निकल रही रोशनी की वजह से भी हो सकता था। चूंकि मुझे नींद नहीं आ रही थी, और साथ ले आयी किताब भी पढ़ पाने का अवसर नहीं था, सो मेरे तईं अपने इर्द-गिर्द, नज़र बचाते, ताका-झांकी स्वाभाविक ही था। 
 मेरे दूसरी तरफ ऊपरी बर्थ पर लेटी, फोन पर एक महिला के बतियाने की आवाज़ बहुत देर तक आती रही। पता नहीं किससे बतिया रही थी? बतियाते हुए बीच-बीच में, सामने वाले को लगातार धमकाती, कभी रोती, तो कभी हंसने लगती। हालांकि, उसकी बातों से यह भी अंदाजा लग रहा था कि वो या तो अपने ब्वॉयफ्रेंड से बतिया रही थी, या अपने पति से? उसकी बातें खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी। हां! डिब्बे में सो रहे बाकी यात्रियों पर उसने इतना एहसान अवश्य किया कि रोने-धोने-धमकाने के सत्रावसान के बाद अब वो धीमी आवाज़ में ही बतियाने लगी थी। तथापि, फोन पर उसकी बातचीत अहर्निश चलती रही। चूंकि वो मेरे बर्थ के दूसरी तरफ थी, इसलिए फोन पर उसकी बातचीत मेरे लिए उतनी असुविधाजनक नहीं थी, जितनी कि उसके सामने, आसपास बैठे, सोए यात्रियों के लिए रही होगी। खैर...। मेरा ध्यान भंग हुआ, मोबाइल पर आये संदेश से। पत्नी ने व्हाट्सएप पर गुडनाइट संदेश भेजा था। इधर से मैंने भी गुडनाइट लिखा। इस तरह हमारी गुडनाइट हुई।
किसी के जोर-जोर से बोलने की आवाज़ सुनकर मेरी नींद खुली। नीचे, साइड-बर्थ पर एक नवयुवक और एक बुजुर्ग बैठे किसी गूढ़ विषय पर चर्चारत थे। ये दोनों नये पैसेंजर लगे। शायद इसी स्टेशन से चढ़े हों? ट्रेन किसी स्टेशन पर रूकी हुई थी। प्लेटफॉर्म पर अंधेरा सा होने के कारण, खिड़की से बाहर झांकने पर स्टेशन का नाम पढ़ा जाना मुश्किल था। हां, प्लेटफॉर्म पर कुछ यात्रीगण जरूर दौड़ते-भागते नज़र आये। अगल-बगल की सीटों पर लेटे कुछ यात्रियों के खर्राटे भी साफ-साफ सुने जा सकते थे। मैंने अपने स्मार्टफोन में देखा, रात के तीन बजकर तेइस मिनट हुए थे। नीद में खलल पड़ा था। यह सचमुच असुविधाजनक स्थिति थी।  (क्रमश:)