भू-गर्भीय जल को संरक्षण की ज़रूरत

 

केन्द्र की एक जांच एजेंसी की ओर से किये गये एक ताज़ा सर्वेक्षण की रिपोर्ट ने उत्तर भारत और खास कर पंजाब एवं हरियाणा राज्य के मानवतावादी एवं प्रकृति-वादी जन-साधारण को चौंकाया भी है, और चिन्तित भी किया है। इस रिपोर्ट के अनुसार देश के अन्य भागों की तुलना में उत्तर भारत के प्राय: सभी राज्यों के भू-जल के स्तर में भारी कमी पाई गई है। धरती के नीचे वाला पानी बेशक पूरे भारत में दूर तक धंसा है, किन्तु उत्तर भारत की स्थिति अधिक चिन्ताजनक दर्शायी गई है। अनुपात रूप में 95 प्रतिशत कमी इन्हीं राज्यों में पाई गई है। इसका एक बड़ा कारण यह भी बताया जाता है कि इस क्षेत्र के राज्यों में वर्षा के अतिरिक्त पानी को सहेजने अथवा उसकी सम्भाल हेतु पुराने स्रोत एवं संसाधन प्राय: खत्म हो गये हैं। ऐसी स्थिति में वर्षा का अधिकतर पानी इन राज्यों में नदी-नालों के ज़रिये आगे बह जाता है जिससे न तो धरती की प्यास बुझती है, न वर्षा का पानी धरती के भीतर तक सिमट पाता है। इसका परिणाम यह निकलता है कि पानी की आवश्यकता की मात्रा निरन्तर बढ़ती जाती है, और उसकी पूर्ति हेतु धरती के नीचे वाले पानी की निकासी भी अधिक की जाने लगती है। इस कारण इस क्षेत्र में भू-गर्भीय जल का संकट निरन्तर गम्भीर होता जाता है। इसी का परिणाम है कि देश भर में धरती के नीचे वाले पानी के निरन्तर कम होते जाने की समस्या उत्तर भारत के राज्यों में अधिक संकटपूर्ण और गम्भीर हुई है।
उत्तर भारत के अधिकतर राज्य और खास तौर पर पंजाब एवं हरियाणा चूंकि कृषि प्रधान राज्य हैं, और कि इनकी अधिकतर कृषि धरती के नीचे वाले पानी पर निर्भर रहती है, अत: यहां की पानी वाली स्थिति सदैव गम्भीर बनी रहती है।  पंजाब में द्वि-फसली प्रथा के अन्तर्गत धान की फसल बहुतायत में होती है। इस फसल की बुआई, और फिर इसके पकने तक की क्रिया के दौरान बार-बार पानी की ज़रूरत पड़ती है, और कि यह ज़रूरत इसी भू-गर्भीय जल की निकासी से ही पूरी होती है। इस स्थिति का दूसरा पक्ष यह है कि आधुनिकता और तकनीकी पक्ष की निरन्तर उन्नति के कारण इन राज्यों में वर्षा के पानी की सम्भाल हेतु अतीत में प्रयुक्त होते तालाबों, जौहड़ों एवं बावली आदि संसाधनों की ओर कभी भी पूरा ध्यान नहीं दिया गया। पुरातन काल में ऐसे स्रोतों की प्राय: भरमार होती थी। विशेषकर ग्रामीण मुआशिरे में तालाबों को पावन मान कर इनका संरक्षण और सवंर्धन किया जाता था। कुओं की संस्कृति भी वर्षा के पानी की सम्भाल हेतु बहुत कारगर सिद्ध हुआ करती थी किन्तु मौजूदा काल में कुएं तो रहे नहीं, और तालाबों एवं जौहड़ों की संस्कृति को भी संरक्षण न मिलने से ये अस्तित्वहीन होते चले गये। दूसरी ओर सिंचाई के लिए पानी की निरन्तर बढ़ती आवश्यकता की पूर्ति के लिए ट्यूबवैलों की भरमार होती चली गई। इसी प्रकार शहरों में नलों से प्राप्त होने वाले पेयजल की सम्भाल एवं इसके सीमित उपयोग की व्यवस्था न होने से भी एक ओर पानी का निकास अधिकाधिक होते चला गया, दूसरे पानी को बचाने वाली संस्कृति का अधिक प्रचार-प्रसार न होने से भी व्यर्थ होने वाली पानी की मात्रा बढ़ती चली गई।
भू-जल विशेषज्ञों ने अक्सर यह प्रस्ताव रखा है कि एक ओर देश में पानी के समुचित उपयोग की संस्कृति को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। दूसरे, वर्षा के पानी को व्यर्थ बह जाने से रोकने हेतु समुचित कार्य-प्रणाली विकसित की जानी चाहिए। इस हेतु नई-नई तकनीकों के आविष्कार को भी प्राथमिकता दी जा सकती है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के वैज्ञानिकों ने भी यह दावा किया है कि देश में भू-जल की प्रचुरता के लिए एक ओर जहां पानी के अकारण एवं अंधाधुंध प्रयोग को रोका जाना चहिए, वहीं धरती के ऊपर खास तौर पर वर्षा के अतिरिक्त पानी के संचय हेतु नये-नये स्रोतों की तलाश और उनका संरक्षण अवश्यमेव किया जाना चाहिए। इन वैज्ञानिकों ने वैश्विक तौर पर पर्यावरण के बढ़ते तापमान को भी भू-जल की कमी के लिए उत्तरदायी करार दिया है।
यह स्थिति आज सचमुच गम्भीर होती जा रही है। पर्यावरण विशेषज्ञों के अनुसार पानी खासकर भूमि के नीचे वाले पानी  पर ही सृष्टि का अस्तित्व सम्भव है। अत: सृष्टि के बचाव हेतु पानी को संरक्षित किया जाना अत्यावश्यक है। विशेषज्ञों ने यह भी दावा किया है कि पर्यावरण में बढ़ते तापमान और ग्लेशियरों के अधिक तेज़ी के साथ पिघलते जाने के कारण भी भविष्य में भू-गर्भीय जल का संकट उपजने की आशंका बनती है। भारत में तापमान वृद्धि का संकट आसन्न रूप से सामने खड़ा है, इससे कोई इन्कार भी नहीं कर सकता। विशेषज्ञों के अनुसार वनों एवं वृक्षों के अंधाधुंध कटान और वर्षा ऋतु में  उपजा असंतुलन भी पानी के इस संकट का कारण बनता है। इससे एक ओर जहां नदियों में पानी कम हुआ है, वहीं नदियों में एकाएक बाढ़ें उपजने का अंदेशा भी बढ़ता जा रहा है। वैज्ञानिकों के अनुसार पिछले वर्ष पाकिस्तान में एकाएक उपजी विनाशकारी बाढ़ के लिए भी यही असंतुलन ज़िम्मेदार रहा है। हम समझते हैं कि सचमुच इस धरती और मानवीय सृष्टि के बचाव हेतु जहां धरती के नीचे वाले पानी को संरक्षण दिये जाने की महती आवश्यकता है, वहीं वर्षा के पानी को संचित किया जाना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। पानी के बचाव और इसके संरक्षण हेतु पूरे देश में सोच विकसित की जानी चाहिए, किन्तु उत्तर भारत में किसी सांझा प्रणाली को तैयार किया जाना बेहद आवश्यक है। ऐसा इस लिए भी कि उत्तर भारतीय क्षेत्र में पंजाब और हरियाणा दो ऐसे प्रांत हैं जो कृषि कार्य की मुख्य भूमि बने हैं। इन दोनों राज्यों में उपजे अन्न से ही देश का अन्न भंडार भरा रहता है। अत: पर्यावरण को संरक्षण और भू-गर्भीय जल को बचाने का यह कार्य राष्ट्र के भविष्य से भी जुड़ जाता है। इस कार्य हेतु जन-साधारण में चेतना और जागृति उत्पन्न किया जाना भी उतना ही ज़रूरी है। राष्ट्र के हित में इस पुनीत कार्य के प्रति जितना शीघ्र सरकारें, प्रशासनिक तंत्र और विशेषकर जन-साधारण जागृत होंगे, उतना ही यह राष्ट्र और सम्पूर्ण मानवता के हित में होगा।