बॉलीवुड की पहली आइटम गर्ल कुक्कू मोर की दर्दनाक कहानी
क्या आपको मालूम है कि बॉलीवुड की फिल्मों में कैबरे को आवश्यक हिस्सा बनाने का श्रेय किसको जाता है? कुक्कू मोरे को, जो 1940-50 के दशक में कुक्कू के नाम से विख्यात थीं। हिंदी सिनेमा की इस ‘डांसिंग क्वीन’ का बदन इतना लचीला था कि उन्हें ‘रबर गर्ल’ भी कहा जाता था। एक एंग्लो-इंडियन परिवार में 1928 में जन्मीं कुक्कू को बचपन से ही फिल्मों में नृत्य करने का शौक था। उनकी यह इच्छा 1946 में उस समय पूरी हुई जब निर्देशक नानूभाई वकील ने उन्हें अपनी प्रतिभा प्रदर्शित करने का अवसर फिल्म ‘अरब का सितारा’ में दिया। इस फिल्म में उनकी नृत्यकला ने दर्शकों को तो उनका दीवाना बना ही दिया, साथ ही बड़े-बड़े निर्देशकों ने भी उनके लिए अपनी फिल्मों के दरवाज़े खोल दिए। इन निर्देशकों में विशेषरूप से महबूब खान शामिल थे, जिनकी फिल्म ‘अनोखी अदा’ (1948) ने कुक्कू को अपने दौर की प्रमुख नृत्यांगना के रूप में स्थापित कर दिया।
इसके बाद 1949 में महबूब खान ने फिल्म ‘अंदाज़’, जिसमें नर्गिस, दिलीप कुमार व राज कपूर की प्रमुख भूमिकाएं थीं, में कुक्कू को अपनी अभिनय प्रतिभा दिखाने का अवसर दिया। इस तरह वह डांसिंग स्टार बन गईं। हालांकि कुक्कू ब्लैक एंड वाइट फिल्मों में ही नज़र आयीं, लेकिन अपने कई दशक के लम्बे, सफल व प्रभावी करियर में उन्होंने दो रंगीन फिल्मों में भी काम किया- ‘आन’ और ‘मयूर पंख’। ‘आन’ भारत की पहली रंगीन फिल्म थी, इसमें कुक्कू का डांस सीक्वेंस में कैमियो भी था, जिससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि उनकी ख्याति को भुनाने के लिए निर्माता निर्देशक खासतौर से उनके लिए भूमिकाएं लिखवाया करते थे। कुक्कू को भी इस बात का खूब अंदाज़ा था, इसलिए वह भी इस स्थिति का लाभ उठाने से चूकती नहीं थीं; एक डांस नंबर के लिए 6,000 रूपये लेती थीं, जो 1950 के दशक में बहुत बड़ी रकम थी।
अपनी तगड़ी फीस के कारण कुक्कू बहुत रईस हो गईं थीं। बॉम्बे (अब मुम्बई) में उनका एक बंगला और तीन कारें थीं। वह इस शानो शौकत से रहती थीं कि एक कार में वह खुद सफर करतीं, दूसरी में उनके दोस्त और तीसरी में उनके कुत्ते। पांच सितारा होटलों में अपने दोस्तों को दावत देतीं और अपनी ऐश के लिए पानी की तरह पैसा बहातीं। बहरहाल, कुक्कू के पास एक कोमल और दया से भरा हृदय भी था, वह किसी की भी मदद करने से पीछे नहीं हटती थीं। फिल्मी दुनिया में ब्रेक पाने के लिए संघर्ष कर रहे अनेक कलाकारों को ब्रेक दिलाने में वह आगे रहती थीं, जिनमें से दो नाम बाद में बहुत चर्चित हुए, एक प्राण का और दूसरा हेलन का। प्राण को फिल्म ‘ज़िद्दी’ में कुक्कू ही ने ब्रेक दिलवाया था। हेलन का परिवार जब बर्मा (अब म्यांमार) से बहुत बुरी आर्थिक स्थिति में बॉम्बे आया था, उस समय 13 वर्ष की हेलन को कुक्कू ने ही न सिर्फ फिल्मों में नृत्य करने का सुझाव दिया बल्कि उन्हें काम भी दिलाया, पहले कोरस नृत्यांगना के रूप में (शबिस्तान व आवारा, दोनों ही फिल्में 1951 में आयी थीं) और फिर अपने साथ युगल गीत व नृत्य सीक्वेंस में, जैसे ‘चलती का नाम गाड़ी’ (1958), ‘यहूदी’ (1958) आदि में। कुक्कू को आखिरी बार बड़े पर्दे पर 1963 में फिल्म ‘मुझे जीने दो’ में देखा गया और उसके बाद वह बॉलीवुड से गायब हो गईं।
बॉलीवुड में ऐसे सितारों की लम्बी फेहरिस्त है जिन्होंने सफलता की बुलंदियों को स्पर्श किया और फिर उसके बाद उनका कोई नाम लेने वाला भी दिखायी न दिया। लेकिन जो पतन कुक्कू का हुआ वह शायद ही किसी अन्य कलाकार ने देखा हो। कुक्कू जब एक बार गिरीं तो फिर कभी संभल नहीं पायीं। वह जीवनभर दूसरों की मदद करती रहीं, उन्हें ऐश कराती रहीं, लेकिन उनके अंतिम दिनों में कोई उनका मददगार न था। कहते हैं दोस्तों, किस्मत व वक्त का कोई भरोसा नहीं होता, जब बुरा समय आता है तो सबकुछ पलट जाता है। कुक्कू के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। आयकर का छापा पड़ा, उनकी सारी सम्पत्ति ज़ब्त कर ली गई और देखते ही देखते सबकुछ खत्म हो गया। कुक्कू के पास न दौलत रही और न शुहरत। वैसे इसके लिए वह खुद भी ज़िम्मेदार थीं। जब उनके पास दौलत व शुहरत थी, तो उन्होंने इनकी कद्र नहीं की और अंत में एक-एक पाई के लिए मोहताज हो गईं। पांच सितारा होटलों से खाना मंगाकर खुद खाना व दोस्तों को भी खिलाने वाली कुक्कू के लिए एक समय ऐसा आया कि वह सब्ज़ी मार्किट में जाकर सब्ज़ीवालों द्वारा सब्जियां साफ करने के बाद जो डंठल व सूखे पत्ते सड़क पर फेंके जाते थे, उन्हें बटोरती और पक्का कर खातीं। अनेक बार उन्हें भीख मांगते हुए भी देखा गया।
अंतिम दिनों में कुक्कू को कैंसर हो गया। उस कठिन घड़ी में उनके साथ न कोई रहने वाला था और न कोई साथ देने वाला। जिस निर्देशक से वह प्यार करती थीं, वह भी उनका साथ छोड़कर चला गया। उनके पास खाने को पैसे नहीं थे, दवा के लिए कहां से आते। आखिरकार 30 दिसम्बर, 1981 को कुक्कू ने गुमनामी में इस दुनिया को अलविदा कह दिया। जब ज़िन्दा थीं तो खाना नहीं मिला और जब मरीं तो क़फन नसीब नहीं हुआ- ‘लाश उसकी मांगती रही कांधा/उम्र जिसकी कटी रिश्ते निभाने में।’
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