गुलज़ार से ‘गुलज़ार’ है भारतीय साहित्य

ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने पर विशेष

गुलज़ार की कलम में जादू है। गुलज़ार की फिल्में, गुलज़ार के डॉयलाग, गुलज़ार के गीत, गुलज़ार की कविताएं एवं सम्पूर्ण गुलज़ार हमारे लिए गर्व का प्रतीक हैं। उन्होंने जो किया, स्पष्ट किया। जो कहा, स्पष्ट कहा। कुछ भी छुपाया नहीं। कितनी ही अन्धेरी आई, तूफान आए। उन्होंने अपनी प्रतिबद्धता को आंच नहीं आने दी तथा प्रतिबद्धता थी लोगों के प्रति, अपने समाज के प्रति, अपने आस-पास के प्रति। गुलज़ार ने कभी भी अपने काम को द़ागदार नहीं किया। उनकी विचारधारा उनके विचारों में दिखाई देती है। उनकी फिल्मों में धड़कती है। उनके गीतों एवं ़गज़लों द्वारा पूरे अवाम को प्रभावित करती है।
गुलज़ार मूल रूप में साहित्यकार हैं। कविता एवं कहानी द्वारा बात कहने की उनके पास प्रतिभा है। उन्होंने पंजाबी तथा उर्दू के माध्यम से साहित्य के अपने कितने ही प्रशंसक पैदा किए हैं। अपने साहित्य ‘रावी पार’ (1999), ‘धुआं’ (2001), ‘रात पशमीने की’ (2002), ‘ख़्वाहिशें’ (2003), ‘मीरा’ (2004), ‘पुखराज’ (2005), ‘त्रिवेणी’ (2005), ‘कुछ और नज़्मे’ं (2008), ‘नगलैकटिड पोइम्ज़’ (2013), ‘माई फेवरट स्टोरीज़’ (2013) और ‘सस्पैक्टड पोइम्ज़’ (2017) आदि ने साहित्यिक दुनिया में अपनी अनोखी छाप छोड़ी है। चाहे गुलज़ार मूल रूप में कवि या कहानीकार हैं, परन्तु उनकी वास्तविक पहचान फिल्में हैं। फिल्में करते समय भी उन्होंने अपने साहित्य को मरने नहीं दिया। उनके शब्दों, डॉयलाग एवं गीतों में साहित्यिकता झलकती है। यही कारण है कि भारत के बड़े-बड़े साहित्यिक समारोहों में गुलज़ार एक अदीब के रूप में भाग लेते हैं।
प्रसिद्ध फिल्म निर्माता बिमल राय के साथ गुलज़ार फिल्म करते हैं ‘बंदिनी’ (1963)। उस फिल्म में वह सह-निर्देशक के रूप में काम कर रहे थे परन्तु गीतकार शैलेन्द्र थे। गुलज़ार ने पहले ही बिमल राय को कह दिया था कि वह गीतकार नहीं बनना चाहते परन्तु संगीतकार एस.डी. बर्मन के ज़ोर देने पर गुलज़ार ने गीत लिखा, जो लता ने गाया, ‘मेरा गोरा रंग लई ले’। गुलज़ार की यह विशेषता है कि वह जो भी लिखते हैं, उसे साहित्य रंगत दे देते हैं तथा इस गीत की लोकप्रियता आज भी कायम है। फिर गुलज़ार ने राहुल देव बर्मन, सचिन देव बर्मन, शंकर जय किशन, हेमंत कुमार, लक्ष्मीकांत प्यारे लाल, मदन मोहन, राजेश रोशन, सलिल चौधरी, विशाल भारद्वाज तथा अनु मलिक के अतिरिक्त कितने ही संगीतकारों के साथ काम किया।  पंजाबी स़ूफी कवि बुल्ले शाह की क़ाफी ‘थइया-थइया’ को गुलज़ार ने नयी रंगत दी तथा फिल्म ‘दिल से’ (2007) के लिए गीत लिखा ‘छइयां-छइयां’। यह गीत रतनाम तथा रहमान के साथ किया गया और आवाज थी सुखविन्दर की। इसी तरह हॉलीवुड फिल्म ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’ (2007) के लिए उनका देश भक्ति में रंगा गीत ‘जय हो’ लोगों की पहली पसंद बना और इसने ‘बढ़िया मौलिक गीत’ का पुरस्कार जीता। अब भी आज़ादी समारोहों में यह स्कूल के विद्यार्थियों एवं अध्यापकों की पहली पसंद बना हुआ है। यही नहीं, फिल्म ‘गुड्डी’ (1971) के लिए लिखा उनका गीत ‘हमको मन की शक्ति देना’ विद्यार्थियों की सुबह की सभा में आज भी पूरी श्रद्धा से गाया जाता है। इसके अतिरिक्त गुलज़ार ने पाकिस्तानी नाटक ‘शहिरयार शहज़ादी’ के लिए ‘तेरी रज़ा’ भी लिखा। विशाल भारद्वाज के संगीत में सजी फिल्म ‘माचिस’ (1996) के गीतों ने तो तहलका ही मचा दिया था और ‘चप्पा-चप्पा चरखा चले’ तो पूरे भारत में गूंज उठा था।
गुलज़ार का कार्य-क्षेत्र बहुत विशाल है। फिल्म ‘मेरे अपने’ (1971) के साथ गुलज़ार निर्देशक के रूप में पांव रखते हैं। फिल्म ठीक-ठाक रहती है। उसके बाद गुलज़ार की फिल्म आती है ‘परिचय’ (1972)। यह एक अध्यापक की कहानी है, जोकि शरारती बच्चों को उनके घर जाकर पढ़ाता है तथा सभी बच्चों के दिल में अपनी जगह बनाता है। अपनी अगली फिल्म ‘कोशिश’ (1972) में गुलज़ार गूंगे एवं बहरे पति-पत्नी की गाथा को छूते हैं। फिर ‘अचानक’ (1973), नानावती एवं महाराष्ट्र सरकार में कत्ल मामले से संबंधित), ‘आंधी’ (श्रीमती इन्दिरा गांधी  से संबंधित) (1975 में यह फिल्म बैन हो गई थी), खुशबू (1975, शरत चन्द्र के नावल पर आधारित) और ‘अंगूर’ (1982, शेक्सपीयर के नाटक पर आधारित)। गुलज़ार ने अपनी फिल्मों में कुछ अलग करने का यत्न किया है। फिल्म ‘लिबास’ (1988) में वह शहरियों की खोखली ज़िन्दगी पर अंगुली उठाते हैं। ‘मौसम’ (1975, नैशनल अवार्ड विजेता) में नायक अपनी बेटी को धंधे से निकाल कर अच्छी ज़िन्दगी के रास्ते पर डालता है। ‘माचिस’ (1996) में पंजाबी युवक पंजाब के काले दिनों की चपेट में आ जाता है। ‘हू तू तू’ (1999) में वह भ्रष्टाचारियों  से सामना करने के लिए मैदान तैयार करता दिखाई देता है। इसके अतिरिक्त इजाज़त (1987), लेकिन (1990), किताब (1977), आनंद (1971), खामोशी (1969), अंदाज़ (1971), रुदाली (1993), सदमा (1988), घरौंदा (1977), बसेरा (1981), नो स्मोकिंग (2007), पहेली (2005)। आस्था (1997), नमक हराम (1973) और चाची 420 (1997)। वह जिस फिल्म के साथ भी जुड़ा, उसमें कुछ अलग ही किया। मौलिक किया।
गुलज़ार ने दूरदर्शन के लिए भी काम किया। अपनी साहित्यिक रंगत बरकरार रखते हुए गुलज़ार ने एक सीरियल ‘मिज़र्ा ़गालिब’ (1988) भी तैयार किया। इसके अलावा उसने ‘जंगल बुक’, ‘अलाईस इन वंडरलैंड’, ‘हैलो ज़िंदगी’, ‘गुच्छे’, ‘दाने अनार के’ और ‘पोटली बाबा की’ के लिए भी काम किया। इतनी बड़ी देन के बाद भी गुलज़ार रूका नहीं, बल्कि वह समाज सेवी संस्थाओं के साथ निरंतरता के साथ काम करता रहा। वह ‘एकलव्य फाऊंडेशन’ (भोपाल) के साथ भी जुड़ा हुआ है, जो कि विद्या जैसे अहम विषय पर काम करती है। उसकी इन प्राप्तियों को देखते हुए ही उसको ‘असम यूनिवर्सिटी’ के चांसलर के पद पर नामज़द किया गया। जितना बड़ा गुलज़ार का काम है। उसको उतना मान-सम्मान भी मिला है। 5 नैशनल फिल्म अवार्ड, 22 फिल्म फेयर अवार्ड, साहित्य अकादमी अवार्ड (2002), पद्म भूषण (2004), अकादमी अवार्ड (2008), ग्रैमी अवार्ड (2010) और दादा साहब फाल्के अवार्ड (2013)।
गुलज़ार के यहां तक पहुंचने की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है। उनका जन्म सिख घराने में पिता मक्खन सिंह कालड़ा और माता सुरजीत कौर के घर गांव दीना ज़िला जेहलम (पाकिस्तान) में हुआ। माता-पिता ने प्यार के साथ नाम रखा ‘संपूर्ण सिंह कालड़ा’। बंटवारे के दौरान उसकी पढ़ाई छूट गई और वह मुम्बई आ गये। बंटवारे का संताप उसने झेला और इसकी तपिश उसकी शायरी और फिल्मों में दिखी। सम्पूर्ण सिंह ने अपने गुज़ारे के लिए छोटे-मोटे काम किए। अपनी यादों की गुथली खोलते हुए उसने बताया कि उसने एक गैराज में भी काम किया, जहां दुर्घटनाग्रस्त गाड़ियों का रंग तैयार करके गाड़ियां ठीक की जाती थीं। उसको लिखने की आदत थी, लेकिन उसके पिता उसके लिखने से खुश नहीं थे। इसलिए सम्पूर्ण सिंह अपने पिता की नज़रों से बचने के लिए ‘गुलज़ार दीनवी’ के नाम के साथ लिखने लगा और फिर ‘गुलज़ार’ नाम के साथ ही उसके लेख मशहूर होने लगे और उसकी शादी प्रसिद्ध अभिनेत्री राखी के साथ हुई। उनके घर में एक बेटी ने जन्म लिया, जिसका नाम ‘मेघना गुलज़ार’ रखा गया, लेकिन राखी उसको ‘बोसकी’ के नाम से बुलाती थी। मेघना ने भी कई प्रसिद्ध फिल्में डायरैक्ट की हैं। राखी से अलग रहने के बावजूद उनके संबंधों में कड़वाहट नहीं है।
यही नहीं, कुछ विवाद भी गुलज़ार के साथ चलते रहे हैं। कुछ उसकी फिल्मों के विषय के साथ भी है, लेकिन दूरदर्शन पर चलते क्रमवार ‘जंगल बुक’ के लिए लिखे उसके गीत ‘जंगल जंगल बात चली है, पता चला है, चड्डी पहन के फूल खिला है’ की चर्चा तो संसद में भी हुई थी। दूरदर्शन ने भी इसको चलाने से इंकार कर दिया था, लेकिन गुलज़ार अपने लिखे को बदलने के लिए तैयार नहीं हुआ और महाभारत के साथ चलते इस क्रमवार के लिए भी सब तरफ चुप्पी छा जाती थी। इस प्रकार साहित्यिक क्षेत्रों में विद्वानों ने गुलज़ार के फिल्म ‘ओमकारा’ (2006) में लिखे गीत ‘बीड़ी जलाई ले, जिगर से पिया, जिगर मां बड़ी आग है’ के ़गैर साहित्यिक होने के कारण बड़ी आलोचना की थी।
गुलज़ार का काम बड़ा है। साफ और स्पष्ट है। उसकी फिल्मों में बहुत कुछ कहा गया है लेकिन बहुत कुछ गुलज़ार ने दर्शकों के समझने के लिए भी छोड़ा हुआ है। यही उन फिल्मों की या उसके साहित्य की खूबी है। याद करो शेखर कपूर की फिल्म ‘मासूम’ (1983) को। गुलज़ार ने इस फिल्म की पटकथा लिखी थी और इस फिल्म को आज भी बेहतर फिल्म माना जाता है और इसके गीत ‘तुझसे नाराज़ नहीं जिंदगी, हैरान हूं मैं’ की बड़ी तारीफ हुई थी, लेकिन दूसरा गीत ‘लकड़ी की काठी, काठी पे घोड़ा’ तो आज भी बच्चों की पहली पसंद है। गुलज़ार ने यादें सांझी करते हुए बताया कि यह गीत उसने अपनी बेटी मेघना के लिए लिखा था, जब वह बच्ची थी। कुल मिलाकार 89 साल की आयु में गुलज़ार को ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ मिलने पर हमारे पंजाबियों का सम्मान भी बढ़ा है क्योंकि गुलज़ार के लेखन में आज भी पंजाब धड़कता है और यह महसूस किया जा सकता है।

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