रणबांकुरे राठौड़ों की वीरता का साक्षी - मेहरानगढ़

राजस्थान के पर्वतीय दुर्गों में थार में स्थित जोधपुर का मेहरानगढ़ दुर्ग अनूठे स्थापत्य और विशिष्ट संरचना के कारण पूरे देश में विशेष पहचान बनाए हुए है। रणबांकुरे राठौड़ों की वीरता और पराक्रम के साक्षी इस किले का निर्माण जोधपुर के संस्थापक राव जोधा ने 12ई., शनिवार सन् 1459 को अरावली की विशाल पर्वत श्रृंखला पर नींव रख कर करवाया था। साथ ही किले के चारों और अपने नाम पर ही ‘जोधपुर’ नगर बसाया।
अपने चतुर्दिक बसे जोधपुर नगर के मुकुट के समान शोभायमान इस किले के चारों ओर सुदृढ़ परकोटा है, जो लगभग 20 फुट से 120 फुट तक ऊंचा और 12 से 20 फीट चौड़ा है। किले का क्षेत्रफल लम्बाई में 500 गज और चौड़ाई में 250 गज के लगभग है। इसकी ऊंचाई धरातल में 450 फुट हैं इसकी प्राचीर में विशाल बुर्जियां है। जो किले को एक अभेद्य दुर्ग का स्वरूप प्रदान करती है। इस दुर्ग के दो बाह्य प्रवेश द्वार है। उश्रर-पूर्व में जयपोल तथा दक्षिण-पश्चिम में फतेहपोल, इमें जयपोल का निर्माण जोधपुर के महाराजा मान सिंह ने 1808 ई. के आस-पास करवाया था। इसमें लगे लोहे के विशाल किवाड़ों को यहां के महाराजा अभय सिंह की सरबलदखां के विरूद्ध मुहिम में निजाम के अदावत ठाकुर अमर सिंह अहमदाबाद से लूटकर लाए थे, जिन्हें बाद में महाराजा मान सिंह ने उनके वंशजों से लेकर यहाँ लगवाया था। किले के नगर की ओर के प्रवेश द्वार फतेहपाल का निर्माण महाराजा अजीत सिंह द्वारा जोधपुर से मुगल खालसा (आधिपत्य) समाप्त होने के उपलक्ष्य में करवाया था।
मेहरानगढ़ दुर्ग के अन्य प्रवेश द्वारो में लोहापोल, धु्रवपोल, सूरजपोल, इमरतीपोल तथा भैरोपोल प्रमुख हैं, जोधपुर दुर्ग पर अनेक बार आक्रमण हुए। राव जोधा की मृत्यु के बाद बीकानेर राज्य के संस्थापक उनके कनिष्ठ पुत्र बीकाजी ने ‘राजचिन्ह’ लेने के लिए सूजा के शासनकाल में जोधपुर पर चढ़ाई की, लेकिन उसकी माता जसमादे द्वारा मेलमिलाप करवाए जाने पर वह वापस लौट गया। सन् 1544 में अफगान शासक शेरशाह सूरी ने जोधपुर किले पर अधिकार कर लिया और उसमें एक मस्जिद का निर्माण करवाया, लेकिन शेरशाह की मृत्यु के उपरांत राव मालदेव ने जोधपुर पर पुन: अधिकार कर लिया। 
राव चंद्रसेन के शासनकाल में 1565 ई. में मुगल सूबेदार हसन कुली खां ने इस किले पर फिर से अधिकार कर लिया, परंतु बाद में मुगल आधिपत्य स्वीकार करने पर यह दुर्ग राजा उदय सिंह को जागीर में दे दिया गया। 1674 ई. में महाराजा जसवंत सिंह की काबुल में जामरूद में मृत्यु के बाद दिल्ली के बादशाह औरंगजेब ने जोधपुर पर मुगल तैनात कर दिए, लेकिन वीर शिरोमणि स्वामीभक्त दुर्गादास राठौड़ के नेतृत्व में राठौड़ सरदारों के लम्बे संघर्ष के बाद महाराजा अजीत सिंह ने जोधपुर पर पुन: अधिकार जमा लिया।
इतिहास इस बात का गवाह है कि उदयपुर की राजकुमारी कृष्णाकुमारी के विवाह संबंधों को लेकर जब विवाद खड़ा हो गया तो राजकुमारी ने विषपान कर लिया तथा जयपुर और जोधपुर के मध्य भीषण संघर्ष हुआ और जयपुर के महाराजा जगत सिंह ने 1807 में अपनी विशाल सेना के साथ जोधपुर पर आक्रमण कर किले को घेर लिया व जोधपुर के महाराजा मान सिंह किले में बुरी तरह घिर गए। इस दौरान दोनों और से हुए भीषण संघर्ष में महान वीर कीरत सिंह सोढ़ा भी काम आ गए थे, जिनकी विशाल छतरी जयपोल के निकट विद्यमान है। लाल पत्थरों से निर्मित और जालियों झरोखों से सुशोभित मेहरानगढ़ किले के भीतर बने महल स्थापत्य कला के उत्कृष्त उदाहरण हैं। विक्रम संवत् 1602 में सवाईराजा सूरसिंह द्वारा निर्मित मोतीमहल सुनहरी अलंकरण व सजीव चित्रांकन के लिए प्रसिद्ध है। इसकी छत व दीवारों पर सोने का बारीक काम महाराजा तख्त सिंह ने करवाया था। संवत् 1781 में महाराजा अभय सिंह ने फूलमहल निर्मित करवाया जो बारीक खुदाई व कोराई के लिए जाना जाता है। किले के भीतर अन्य प्रमुख भवनों में ख्वाबगाह का महल, तख्त विलास, दौलतखाना, चोखेलाव महल, रनिवास, बिचलामहल, सिलहखाना तथा तोपखाना भी आकर्षण के केन्द्र हैं। दौलतखाना के आंगन में महाराजा तख्त सिंह द्वारा संगमरमर में निर्मित कलात्मक ‘सिणगार चौकी’ है, जहां जोधपुर के राजाओं का राज तिलक होता था, किले के भीतर राठौड़ों की कुलदेवी नागणेची जी का मंदिर भी है। 
जोधपुर की आन-बान और शान का प्रतीक ‘महरानगढ़ दुर्ग’ के ऊपर लम्बे दूरी तक मार करके वाली अनेकानेक तोपें भी रखी हुई है जिनकी भीषण गर्जना से गर्भवती महिलाओं के गर्भ भी गिर जाते थे। इन तोपों में किलकिला, शंभुबाण और गजनी अपनी भीषण संहाकर क्षमता के लिए प्रसिद्ध रही हैं। इसके अलावा भी कई तोपे है जिन्हें यहां के महाराजाओं ने युद्धों के दौरान दुश्मनों से हासिल की थी।
किले की तलहटी में बसे ‘जोधपुर’ नगर के चारों और एक प्राचीन (शहरपनाह) बनी हुई है, जिसमें 101 विशाल बुर्जियां और 6 दरवाजे हैं। ये दरवाजे-नागौरी दरवाजा, मेड़ितिया दरवाजा, सिवांची दरवाजा, जालौरी दरवाजा, सोजती दरवाजा तथा चांदपोल दरवाजा हैं। इनमें चांदपोल को छोड़ अन्य पांच दरवाजों के नाम मारवाड़ के उन प्रमुख नगरों के नाम पर हैं जिनके मार्ग उधर होकर जाते हैं। जोधपुर दुर्ग की अब विशेषता यह है कि यह ‘मेहरानगढ़ संग्रहालय’ के रूप में अतीत की बहूमूल्य ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरेहर को संजोए हुए है। इस संग्रहालय में मध्यकाल में लड़े गए भीषण युद्धों के स्मृति चिन्ह अनेकानेक कलात्मक तलवारें, आयुध, जिरह बख्तर, भारी-भरकम ताले, ढाल-बर्छियां, कटारें, राजसी और सैनिक परिधान, शाही वैभव की प्रतीक सोने व चांदी की पालकियां, हाथियों के कलात्मक चांदी के हौदे, विभिन्न प्रकार की चित्रकला तथा सैकड़ों दुर्लभ वस्तुएं हैं, जो विगत वैभव की मनोहारी झलक प्रस्तुत करती हैं। अपने कलात्मक एवं नैसर्गिक सौंदर्य के कारण ही मेहरनगढ़ दुर्ग को देखने वाले पर्यटकों में देशी और विदेशी पर्यटकों की वर्ष भर भरमार रहती है, जो यहां पत्थरों पर की कई कला को देखकर अधीभूत हुए बिना नहीं रहते हैं। (सुमन सागर)