नये दीयों की रोशनी पर हावी अंधेरा
ज्यों-ज्यों वह बूढ़े होते चले गये ज़िंदा रहते हुए भी उनके मरने चले जाने की गुंजाइश बढ़ती चली गयी। सबसे पहले उनकी मौत की घोषणा उन समकालीन बूढ़ों ने की, जो अचानक अपनी ज़िंदगी के आखिरी एहसास को एक स्वर्ण अध्याय में बदलने की जल्दबाज़ी में लग गये। इसके लिए ज़रूरी हो गया था कि उनकी धक्का-मुक्की के लिए मैदान खाली हो जायें। इसलिये सबसे पहले उन्होंने उन पुराने बूढ़ों को भूतपूर्व घोषित कर दिया, जो अभी भी नैतिकता, आदर्श और राष्ट्रीयता की बात करते थे या सबको साथ लेकर आगे बढ़ने की तरह ही उनके नक्कारखाने में फूंकने का हौसला कर रहे थे। इसलिए उन्होंने उन्हें जीते जी अतीत घोषित कर दिया और स्वयं आपाधापी का चंवर सजाने लगे।
भाषा बदल गई है। उसका व्याकरण एक नया अनुशासन लेकर आया है और राष्ट्र कोष के जिन्हें अर्थ का अनर्थ कड़ा करते थे, वही बदलती दुनिया का मुक्तिमार्ग हो गई है। इस मुक्तिमार्ग पर हर कदम बड़बोलेपन से उठाया जाता है और अपने मुंह मियां मिट्ठू हो जाने को एक स्वाभाविक अपनी विकास दर बढ़ाने को रास्ता। जी हां इस विकास दर में अपनी झोपड़ियों के लिए प्रसाद बना देने की तलाश है, चाहे उनके पुराने साथी अपनी टूटी अंधेरी झोपड़ियों से मुर्दा सड़कों पर आ जायें। मुर्दा सड़कें जो अंधेरी रहती हैं। हां स्व-स्थापित महानुभावों के चुनाव के दिनों के उस पर अस्थायी रौशनी का इंतज़ाम कर दिया जाता है।
मुरम्मत के नाम पर चंद दिनों के लिए नये जीवन का बहाना तलाश करती हैं ये सड़कें जो शोभायात्रा का कारवां गुज़र जाने के बाद उनका गुबार देखते रहने की तरह तलघरों में तबदील हो जाती हैं, और लोग उनमें वाहन चलाते हुए मौत के कुएं में से सुरक्षित निकल जाने का चमत्कार महसूस करते हैं।
बड़े मियां जीते जी मरते चले जाने का एहसास बढ़ता पाते हैं, क्योंकि उनका शहर निरंतर सौंदर्य बोध खो रहा है। अच्छी भली सड़कों के मोड़ कूड़े के गोदाम घरों में तबदील हो रहे हैं और उनका कभी कभार उठा देने का समाचार आना एक शुभ समाचार होता है। लोगों को अब पहाड़ पर जाने की इच्छा नहीं होती, क्योंकि कूड़े के डम्प पहले मिनी पहाड़ दिखायी देते हैं, फिर पर्वतीय स्थल पर आमंत्रण का संदेश देते दिखाई देते हैं। उनके निस्तारण की मशीनें लगाने पर इलाकसी राजनीति होती है। मशीनें खरीदनें में कोताही नहीं होती, समस्या उनके चलाने के लिए मुहल्लों और बस्तियों के मीर मुंशियों की इज़ाज़त की रहती है। मशीन बिना काम अंडोल खड़ी रहती है और कूड़े के नाबदानों के पहाड़ हो जाने की सुविधा होने लगी है।
देश का मुख्य व्यवसाय कृषि की जगत पर्यटन हो गया है। आजकल जांच हो रही है कि क्या शहरों के क्षितिज पर उभरते हुए इन नये पहाड़ों को पर्यटन स्थल घोषित किया जा सकता है?
बेशक किया जा सकता है, जानकार उन्हें बताते हैं, अगर ये बूढ़े ही नहीं, असमय बूढ़ी होती हुई यह सब बकाया जनता भी अपना सौंदर्य बोध ही नहीं घ्राण शक्ति भी तबदील कर ले। बेशक इस घ्राण शक्ति को हर क्षेत्र में बदल देने की ज़रूरत है। अब आपको नयी ज़िंदगी के बदलते पैमानों में ‘कुछ गड़बड़ है’ सूंघने की ज़रूरत नहीं, बल्कि गड़बड़ को सहना ज़िंदगी स्वीकार करने की ज़रूरत है।
जिन्हें पहले योजना बना, उद्यम करने के बावजूद असफल रह जाने की गड़बड़ माना जाता था, अब उस योजनाबन्दी से उद्यम ही नहीं निकाल दिया गया है, बल्कि हथेली पर सरसों उगाने के इस युग में योजनाबंदी को ही भूतपूर्व कशर दे दिया गया है। इसकी जगह नित्य नयी घोषणाओं के प्रसारित हो जाने की खुशी ने ले ली है। इसके बाद दावों की बारात सजती है, जिसमें परियोजनाओं और अभियानों की सफलता की घोषणा होती है और उपकृत उत्सव मनाते हुए जय जय कार करते हैं।
हां, यह बात मामूली मानिये कि बाद में नये मील पत्थरों के निशान ही उनकी सुनहरी याद बन जाते हैं, और उनका अधूरा रह कर स्थगित होते चले जाना इनका भाग्य। जब कभी इनकी पुन: शुरूआत का बिगुल बजता है तो इसे आप बदलाव की बायर कहकर इसका स्वागत करते हैं। इनसे होने वाले अपने कल्याण के लिए अनुकम्पा की नई दुकानों के सामने अपनी कतार सजाते हैं।
यहां परिवर्तन के नाम पर नई अनुकम्पा की दुकानें सजती हैं, और नई उद्यम नीतियों के स्थान पर नई रियायत नीतियों की घोषणा होती है। इसे कहीं-कहीं जन कल्याण का मुखौटा पहनाने का प्रयास भी कर दिया जाता है। बूढ़े परेशान हैं, क्योंकि यह वह युग नहीं, जिसकी कल्पना उन्होंने की थी। यह कैसी तरक्की है जिसकी सफलता का दीया जलाने पर उसकी रौशनी पर दिये तले का अंधेरा अपना वर्चस्व जताता दिखाई देता है। यह अंधेरा हर दीये का साथी नहीं अग्रदूत बनता जा रहा है। अपनी बरसों की कोशिश के बाद महंगाई नियंत्रण की घोषणा कर दी जाती है। लेकिन सुविधा वस्तुओं की बात छोड़िये मौलिक ज़रूरी वस्तुएं भी अपनी कीमतों की उड़ान के साथ आपकी जेब काटने पर आमादा दिखाई देती है। आपके पास कोई विकल्प नहीं, बाज़ार के इस आदान को ही रामराज्य मान लेने का।
जैसे आपने अपने देश की आर्थिक शक्ति बनने का दर्जा बढ़ जाने को 80 करोड़ जनता को रियायती अनाज देते रहने की अनन्त स्वीकृति के साथ स्वीकार कर लिया है। देश के डिजिटल हो जाने के तेवर को साइबर अपराधों की आश्चर्यजनक वृद्धि के साथ स्वीकार कर लिया है। उससे सचेत रहने की चेतावनियों को साइबर अपराधियों की पकड़-धकड़ के बिना स्वीकार कर लिया है। जी हां इसी कारण इस देश में बूढ़ों की संख्या बट गयी, निदारा युवकों के असमय बूढ़ा हो जाने के सच के कारण।