पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव ममता का बड़ा दांव है एक सीट से चुनाव लड़ना 

पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में ज़बरदस्त त्रिकोणीय मुकाबला होने की उम्मीद है। एक तरफ  सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस है तो उसे कड़ी चुनौती देने के लिए दूसरी तरफ  भाजपा व एक पूर्णत: नया गठबंधन (कांग्रेस, वाम मोर्चा व इंडियन सेक्युलर फ्रंट) हैं। चुनावी जीत का ऊंट किस करवट बैठेगा, फिलहाल कुछ कहना जल्दबाजी होगा, लेकिन जिस प्रकार मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भाजपा की खुली चुनौती को स्वीकार करते हुए केवल एक सीट (नंदीग्राम) से चुनाव लड़ने का फैसला किया है, उससे न केवल उनका आत्मविश्वास जाहिर होता है बल्कि यह भी कि वह अपनी विजय को लेकर पूर्णत: आश्वस्त हैं। उन्होंने अपनी पार्टी के 291 प्रत्याशियों (दार्जीलिंग, कलिम्पोंग व कुर्सेओंग की सीटें पहाड़ी साथी दलों के लिए छोड़ दी गई हैं) के नामों की घोषणा करते हुए ममता बनर्जी ने कहा, ‘मैं सिर्फ  नंदीग्राम से चुनाव लडूंगी, मैं अपने वायदे पूरा करती हूं।’ वह इस चुनाव को ‘कठिन’ नहीं बल्कि ‘स्माइली इलेक्शन’ मानती हैं, अत: उनका कहना है, ‘खेला होबे, देखा होबे, जीता होबे (खेल जारी है, हम देख लेंगे, हम जीतेंगे)। बंगाल पर वही लोग शासन करेंगे, जो यहां रहते हैं न कि बाहरी गुंडे।’
गौरतलब है कि भाजपा के अनेक नेता ममता बनर्जी को लगातार चुनौती दे रहे थे कि वह दक्षिण कोलकाता में अपनी परम्परागत (और संभवत: सुरक्षित) सीट भवानीपुर को छोड़कर केवल पूर्वी मिदनापुर की अर्द्ध-शहरी सीट नंदीग्राम से ही चुनाव लड़ें। ममता बनर्जी ने यह चुनौती स्वीकार तो कर ली है, लेकिन राजनीतिक दृष्टि से यह बहुत बड़ा दांव है, जो सीधा पड़ने पर उन्हें बंगाल का लगातार तीसरी बार मुख्यमंत्री भी बना सकता है और अगर उल्टा पड़ जाये तो उन्हें लम्बे समय के सियासी हाशिये पर भी डाल सकता है। बंगाल की समकालीन राजनीति में नंदीग्राम (और साथ ही हुगली में सिंगुर) का ज़बरदस्त प्रतीकात्मक महत्व है। इन दोनों ही जगह जन आन्दोलन हुए थे, जिनकी वजह से 2011 में ममता बनर्जी वाम मोर्चा के राज्य में तीन दशक से भी अधिक के शासन को उखाड़ फेंकने व स्वयं सत्ता में आने में सफल हुई थीं। 
इन जगहों पर किसानों के भूमि अधिकारों को लेकर 2007 में खूनी संघर्ष हुआ था। वामपंथी सरकार इस क्षेत्र में रासायनिक हब स्थापित करना चाहती थी और टाटा की नैनो फैक्टरी भी प्रस्तावित थी, जिनके लिए भूमि अधिग्रहण का प्रयास था। इस बार नंदीग्राम का महत्व पहले से कहीं अधिक हो गया है। नंदीग्राम को सुभेंदु अधिकारी अपना गढ़ मानते थे। एक समय वह ममता बनर्जी के विश्वासपात्र थे, लेकिन पिछले साल दिसम्बर में उन्होंने दल बदल लिया और भाजपा के सदस्य बन गये। भाजपा ने अधिकारी को अपने पाले में आने को बहुत बड़ी सफलता माना। अब अधिकारी को उन्हीं के ही गढ़ में चुनौती देकर ममता बनर्जी न सिर्फ  भाजपा से ‘हेड ऑन’ लड़ने के लिए तैयार हैं बल्कि उन सबको सख्त संदेश दे रही हैं, जिन्होंने उनका साथ छोड़कर भाजपा का दामन थामा है। भाजपा एक तरह से तृणमूल के ‘भगोड़ों’ के कंधे पर बंदूक रखकर ममता बनर्जी को बंगाल में हराने का प्रयास कर रही है। 
बंगाल में मतदान आठ चरणों में होगा जोकि 33 दिनों (27 मार्च से 29 अप्रैल) के दौरान पूर्ण होंगे। तृणमूल का आरोप है कि इतना लम्बा चुनाव कार्यक्रम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व अन्य भाजपा नेताओं के निर्देश पर रखा गया है। इस लम्बे कार्यक्रम का लाभ किस दल को मिलेगा, इसका जवाब तो 2 मई को चुनावी नतीजे आने पर ही मालूम हो सकेगा, जब 1,01,916 पोलिंग बूथ्स पर लगभग 7,32,94,980 मतदाता अपनी इच्छा को प्रकट कर चुके होंगे, लेकिन इतना तय है कि यह दोधारी तलवार है, जो किसी भी तरफ  काट कर सकती है। कुछ राजनीतिक पर्यवेक्षकों का अनुमान है कि आठ चरणों में मतदान कराकर भाजपा चुनावी प्रक्रिया को नियंत्रित करने में सफल रहेगी, खासकर केंद्रीय सुरक्षा बलों की तैनाती की बदौलत। लेकिन यह तस्वीर का एक ही रुख है। ममता बनर्जी कोलकाता में सत्ता में हैं और राज्य का गुप्तचर विभाग उनके अधीन है, इसलिए वह इस स्थिति में रहेंगी कि एक चरण के मतदान के बाद अपनी पार्टी के प्रदर्शन की समीक्षा कर लें और अगर कोई कमी रह गई हो तो दूसरे चरण से पहले उसे दूर कर लें। 
बहरहाल, लम्बे समय तक चुनावी टेम्पो बनाये रखना आसान नहीं होता है, लेकिन यह बात भी सभी पार्टियों पर लागू होती है। जहां तक इस चुनाव में मुद्दों की बात है तो भाजपा नागरिकता संशोधन कानून (सीएए), तथाकथित ‘अल्पसंख्यक तुष्टिकरण’, राजनीतिक हिंसा व ‘जय श्री राम’ पर अधिक बल दे रही है। उसे लगता है कि बाकी काम सत्ता विरोधी लहर और असदुद्दीन ओवैसी द्वारा ममता बैनर्जी की मुस्लिम वोटों में सेंध से हो जायेगा लेकिन इन मुद्दों की भी अपनी सीमाएं हैं। असम को खोने के डर से भाजपा सीएए पर अधिक ज़ोर नहीं दे सकती, असम में सीएए अति संवेदनशील मुद्दा है। दूसरा यह कि ‘हिन्दू-मुस्लिम’ की राजनीति से जनता तंग आ चुकी है, अब वह जीवन से जुड़े मुद्दों जैसे महंगाई, रोज़गार आदि पर बात करना व सुनना चाहती है। पेट्रोल, डीज़ल व कुकिंग गैस के निरन्तर बढ़ते दाम और किसान आन्दोलन के कारण बंगाल में भाजपा भी उसी पायदान पर खड़ी है जिस पर सत्ता विरोधी लहर के कारण ममता बनर्जी हैं। ऐसे में कांग्रेस-वाम मोर्चा-इंडियन सेक्युलर फ्रंट गठबंधन की दावेदारी को हल्के में नहीं लिया जा सकता, खासकर इसलिए कि वह हार व जीत का अंतर बनने व किंग मेकर की स्थिति में अवश्य है। 
हाल के बिहार विधानसभा चुनाव में वाम मोर्चा का जो अच्छा प्रदर्शन रहा, विशेषकर रोजगार के मुद्दे पर, उससे बंगाल के वाम मोर्चा में भी नये जोश का संचार हुआ है। ध्यान रहे कि पिछले 100 दिन से भी अधिक से दिल्ली की सीमाओं पर तीन नये कृषि कानूनों को रद्द कराने की मांग को लेकर धरना दे रहे किसान संगठन भी बंगाल में भाजपा के विरुद्ध प्रचार कर रहे हैं। राष्ट्रीय जनता दल, शिव सेना व समाजवादी पार्टी ने ममता बैनर्जी की पार्टी का समर्थन करने की घोषणा की है। हालांकि केंद्र सरकार के पक्ष वाला इलेक्ट्रॉनिक मीडिया बंगाल के विधानसभा चुनाव को ममता बनाम मोदी के रूप में प्रचारित करने का प्रयास कर रहा है, लेकिन जमीन पर घूमने से मुकाबला त्रिकोणीय प्रतीत हो रहा है, जिसमें ममता बनर्जी ने केवल एक सीट (नंदीग्राम) से चुनाव लड़ने की चुनौती स्वीकार करके ‘करो या मरो’ का बहुत बड़ा दांव खेला है, और ज़ाहिर है, जो साहस करते हैं सफल भी वही होते हैं।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर