झूलता पुल

 

अपने यहाँ झूले को पुल या पुल को झूला कहें, एक ही बात है। मुल्क में पुल से अधिक झूले हैं, लिहाजा लोगों को झूलते रहने की आदत पड़ गई है। आदमी ही क्यों, पता नहीं क्या-क्या झूल रहा है अपने यहाँ। सुनहरा अतीत का गर्व रखने वाले महान देश के स्वतंत्र नागरिक गरीबी-अमीरी, शिक्षा-अशिक्षा, व्यवस्था-अव्यवस्था और जीवन-मृत्यु के बीच दशकों से झूल रहे हैं। योजनाएं मंत्रालयों में झूल रहीं हैं, फाइलें दफ्तरों में झूल रही हैं, मुकदमें न्यायालयों में झूल रहे हैं, मरीज अस्पतालों में झूल रहे हैं और समग्रता में कहा जाए तो सुख की चाह कल्पना में झूल रही है। जब इतना झूल-झाल होगा तो झूला कभी-न-कभी टूटेगा। टूट जाए, कौन-सा उसमें कोई वीआपी या धनश्रेष्ठ मरने वाला है! जो मरेगा वह निश्चित रूप से सस्ता तमाशाई होगा, उसके मरने से गरीबी कम होगी! 
डॉलर, यूरो, बिटक्वाइन तथा हवाला जैसी मुद्राओं के इस जमाने पंद्रह-बीस रुपये का टिकट लेकर मनोरंजन करने वाले गोलोकवासी हो जाएँ तो हाय-तौबा की कौन-सी बात है? सुंदर दृश्य देखते हुए, नदी के ऊपर झूलापुल पर झूलते हुए प्राण त्याग करने का सौभाग्य सबको नहीं मिलता। ज्यादातर लोग बिस्तर की ही मौत पाते हैं। यहाँ तो झूलापुल से झूलते-झूलते सीधे ही पवित्र जलराशि में प्राणोत्सर्ग हो रहा है, वह भी बंधु-बांधवों के साथ। लोग झूठ बोलते हैं कि आदमी दुनिया में अकेले आता है और अकेले ही जाता है। यहाँ तो सैकड़ों की संख्या में एक साथ प्रस्थान मिल रहा है। स्वर्ग तक की यात्रा में अकेलेपन की समस्या नहीं आने वाली। फिर कोई खानदान में बच-बुचा गया होगा तो उसे क्रिया-कर्म के लिए मुआवजा भी मिल जाएगा। जितना जीते-जी नहीं कमा सकते थे, उससे अधिक मरने पर मिल जाना है। इससे बड़ा सौभाग्य क्या होगा?
नुकसान हुआ है तो उस झूलते पुल का। इन नामुरादों की वजह से सौ-डेढ सौ साल पुरानी अद्भुत विरासत से हाथ धोना पड़ा है। ये तो नहा-धोकर चल दिए, छोड़ गए एक ऐतिहासिक पुल के अस्थि पंजर। कायदे से तो इन तमाशाइयों से हर्जाना लेना चाहिए। आखिर बहुत सारे प्रदेशों में सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुँचाने वालों से हर्जाना लिया जाता है। यह तो संपत्ति भी विलक्षण थी। इसके टूटने से एक झूलता पुल कम हो गया।
वैसे घोषित तौर पर झूलापुल कितनी संख्या में हैं, इसका पता लगाना आँकड़ेबाजों का शगल हो सकता है। लेकिन इसमें संदेह नहीं कि अपन ने जो भी पुल बनवाए, वह कभी-न-कभी झूलने जरूर लगे। कुछ तो फीताकर्तन समारोह के बाद ही झूलने लगे। झूलने के अतिरिक्त आनंद के लिए उदारतापूर्वक कोई अतिरिक्त शुल्क भी नहीं लिया गया। बनने के चार-छह महीने के भीतर ही कितने ही पुलों ने लोगों को अपने तईं स्वर्गारोहण करवाया! कितनी गाड़ियों ने जलसमाधि ली और उन्हें बुकर पुरस्कार तक नहीं मिला। दो-चार जाँच कमेटियां बनी जिन्हें कैबिनेट स्तर की सुविधाएँ मिलीं। उच्चस्तर के रोज़गार का सृजन हुआ। यह तो गनीमत हुई कि जाँच कमेटियों के विरुद्ध जांच कमेटियां नहीं बनीं, अन्यथा उन्हें और ऊँचा पद देना पड़ता।
झूला पुल पर भेड़ियाधसान करके पुल को तोड़ने वाले पंजीकृत शवों के परिजनों को मुआवजे का ऐलान कर दिया गया है। आह और वाह! कितनी उदारता है अपने यहाँ की सरकारों में! जिनसे पुल तोड़ने की आपराधिक धाराओं के अंतर्गत जुर्माना-हर्जाना वसूल करना था, आरसी काटनी थी, उन्हें जनता की गाढ़ी कमाई से मुआवजा दिया जा रहा है!
 खैर, जनता समझती नहीं है। चुनावों के वक्त उसे समझाना भी नहीं चाहिए। बुद्धिराम जी कहते हैं कि जनता को समझाया नहीं जा सकता, बहलाया जा सकता है। वैसे भी, धन तो जनता से ही आया है। कुछ दे देने में क्या बुराई है? तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा? उसे कौन-सा करोड़ या हजार करोड़ देना है? उनकी मृत्यु कोई विमान दुर्घटना में तो नहीं हुई है! वे कोई बहुराष्ट्रीय कंपनी तो नहीं कि किसी अंतर्राष्ट्रीय अदालत में हर्जाने का दावा ठोंक देंगे। आम आदमी हैं, अभी भी लखपति होना उनका अधूरा सपना है। दे दो दो-चार लाख, उसी को गिनते रहें। इतने बड़े देश में ऐसे छोटे-मोटे हादसे होते रहते हैं। स्थितिप्रज्ञ मनुष्य इन सबसे विचलित नहीं होता। वह आत्मग्लानि, अपराधबोध, नैतिकता और जिम्मेदारी जैसे झूले पर नहीं झूलता। वह तो अपने बंगले के पार्क में या ड्राइंगरूम में बने झूले पर भुने काजू की प्लेट और विदेशी सोमरस की गिलास के साथ झूलता है और पैसे के पुल पर चलता है। (युवराज)