‘ सारा शहर मुझे लॉयन के नाम से जानता है’ अभिनेता अजीत के अनसुने किस्से

 

 जो ख्याति व सम्मान अजीत को अपने जीवनकाल में मिला, उसे पाने के लिए अधिकतर एक्टर कुछ भी करने के लिए तैयार हो जायेंगे। लेकिन इस बात को स्वयं अजीत अपना दुर्भाग्य मानते थे। सिने-प्रेमी उन्हें हंसमुख मानते थे, वह अपने आपको अति गंभीर समझते थे। दर्शक हंसते थे कि वह 1930 की हॉलीवुड की परम्परागत गैंगस्टर फिल्म देख रहे हैं, अजीत का तर्क था कि वह खलनायकी में पुराने मूल्यों को फिर से स्थापित कर रहे हैं। उन्होंने एक बार कहा भी, ‘विलन में भी कुछ मर्दानगी होनी चाहिए।’ इसलिए यह आश्चर्य नहीं है कि हामिद अली खान को अजीत जोक्स पसंद नहीं थे, जो 1980 के दशक में हर किसी की जबान पर थे। लेकिन शेष भारत इसमें मस्त था- ‘राबर्ट इसे लिक्विड ऑक्सीजन में डाल दो, लिक्विड इसे जीने नहीं देगा और ऑक्सीजन इसे मरने नहीं देगी।’ अजीत के लिए यह उनकी कला का अपमान था।
अजीत का जन्म 27 जनवरी 1922 को ऐतिहासिक गोलकोंडा के निकट हुआ था। उनके पिता बशीर अली खान निजाम हैदराबाद की सेना में काम करते थे। उनका नाम हामिद अली खान रखा गया और ज़िला वारंगल के हनामकोंडा स्थित राजकीय जूनियर कॉलेज में उन्हें भेज दिया गया ताकि वह पढ़ लिखकर डॉक्टर या बैरिस्टर बन सकें। लेकिन वह अपने लिए कुछ और ही सपने देख रहे थे। इसलिए जब वह 22 वर्ष के हुए तो कॉलेज की किताबें बेचीं और बॉम्बे (मुंबई) के लिए रवाना हो गये, फिल्मों में हीरो बनने के लिए। बॉम्बे में कुछ दिन एक दोस्त के घर पर रहे, लेकिन वहां कब तक रहते, इसलिए एक पाइप में रहने लगे जैसा कि महानगरों में अक्सर बेघर लोग रहते हैं। एक गुंडा ‘पाइप के निवासियों’ से हफ्ता वसूला करता था। अजीत से भी वसूल करने का प्रयास किया तो उन्होंने उसकी पिटाई कर दी, तब से अजीत को पास की दुकानों से मुफ्त में खाने पीने की चीजें मिलने लगीं।
संघर्ष के दिनों में अजीत की मुलाकात निर्देशक महेश भट्ट के पिता नानाभाई भट्ट से हुई, जो फिल्म ‘शाहे मिस्र’ बना रहे थे, उन्होंने अजीत को हीरो बनने का अवसर प्रदान किया। यह 1946 की बात है। नानाभाई भट्ट ने कहा कि हामिद अली खान बहुत लम्बा नाम है, कोई छोटा नाम रखो और इस तरह उनका नाम अजीत पड़ा। हीरो के तौर पर अजीत ने कुछ यादगार फिल्में कीं जैसे ‘नास्तिक’, ‘बड़ा भाई’, ‘मिलन’, ‘बारादरी’ (जिसका गाना ‘तस्वीर बनाता हूं तस्वीर नहीं बनती’ आज भी लोगों की जबान पर है), ‘ढोलक’ और कुछ सेकंड लीड भूमिकाएं कीं जैसे ‘मुगले आजम’ व ‘नया दौर’। 15 फिल्मों में उनकी हीरोइन नलिनी जयवंत थीं। लेकिन बतौर हीरो वह अधिक सफल न हो सके। चार वर्ष तक खाली रहे। एक दिन अपने दोस्त राजेन्द्र कुमार के साथ ताश खेल रहे थे कि उन्होंने अपनी फिल्म ‘सूरज’ में खलनायक की भूमिका दी और इस तरह अजीत की दूसरी पारी आरम्भ हुई, जिसे नया मोड़ ‘जंजीर’ से मिला, जिसमें उनकी तेजा की भूमिका भोपाल के एक डॉन पर आधारित थी। इस किरदार को सलीम (जावेद) ने लिखा था, जिन्हें फिल्मों में अजीत ही लाये थे। संबंधित डॉन के पास अजीत एक सप्ताह रहे और उसी की तरह उन्होंने तेजा का किरदार विकसित किया- जो आराम से ठहरकर बोलता है, बिल्कुल चिल्लाता नहीं है, अपने तमाम गंदे काम दूसरों से करवाता है, अगर वह असफल हो जाएं तो उन्हें माफ नहीं करता है। इस तरह पर्दे पर एक नया विलन आया।  ‘जंजीर’ का वह सीन कौन भूल सकता है जिसमें अजीत की कम बोलने वाली खलनायकी अपने चरम पर है। अजीत अपनी ‘मोना डार्लिंग’ (बिंदु) के साथ एक रेस्टोरेंट में डिनर कर रहे हैं, तभी वहां जेल से रिहा होने के बाद अमिताभ बच्चन (जिन्हें अजीत ने ही साजिश करके जेल कराई थी) पहुंचते हैं और कहते हैं, ‘तेजा मैं वापस आ गया हूं।’ बिना चेहरे पर शिकन लाये या किसी घबराहट के अजीत बहुत संयम के साथ कहते हैं, ‘कहो तो मैं फिर अंदर भिजवाता हूं।’ इस सफल व प्रभावी अदायेगी के चलते ही अजीत ने 70 के दशक में 57 फिल्मों में विलन का रोल किया, वैसे उन्होंने अपने 40 वर्ष के करियर में लगभग 200 फिल्में कीं। 
पुराने खलनायकों में के.एन. सिंह (आवारा) को अपनी भोएं हिलानी पड़ती थीं, प्राण (राम और श्याम) को दांत भीचकर हंटर चलाना पड़ता था, लेकिन अजीत को कुछ नहीं करना पड़ता था, बस उनकी उपस्थिति ही डर पैदा करने के लिए काफी थी। अक्सर वह ‘राबर्ट’ को पुकारते अपनी ताकत का बखान करने के लिए, ‘सारा शहर मुझे लोइन के नाम से जानता है।’ (कालीचरण)। ‘लायन’ का पंजाबी शैली में गलत उच्चारण जानबूझकर किया जाता, असर डालने के लिए। इसी वजह से ‘यादों की बारात’ में एक पैर में 8 नंबर का जूता तो दूसरे में 9 नंबर का जूता पहना।
1980 के आसपास जब जावेद जाफरी ने अपने कॉलेज के दिनों में अजीत जोक्स का पूरा मार्किट खड़ा करके अपने लिए मनोरंजन उद्योग में स्थान बनाया तो अजीत अपनी बीमारी की वजह से वापस अपने शहर लौट गए थे और खेती व पुस्तक पढ़ने पर ध्यान देने लगे थे, जिसका उन्हें बेहद शौक था। उन्हें बीच में उनके दोस्त जबरन कुछ फिल्मों (जिगर, आतिश, आ गले लग जा) के लिए वापस मुंबई लाये, जिससे उनका नियमित दैनिक कार्यक्रम बिगड़ गया और वह फिर बीमार हो गये। वह अपनी पत्नी के साथ अपने फार्म हाऊस पर थे कि उन्हें जबरदस्त दिल का दौरा पड़ा और 21 अक्तूबर 1998 को उनका निधन हो गया।
अजीत ने एक अंग्रेज महिला ग्वेन से शादी की थी, लेकिन जब उनकी मुलाकात सारा से हुई जो महबूब स्टूडियो के सामने रहती थीं और जिनके यहां अजीत टेलीफोन करने के बहाने जाया करते थे, तो उन्होंने ग्वेन को छोड़ दिया और सारा से प्रेम विवाह कर लिया, जिनसे उनके तीन बेटे हुए। अजीत साधारण व्यक्ति थे, उन्हें साल में सिर्फ 6 जोड़ी सफेद कमीज व पेंट की जरुरत होती थी। किताबें उनकी मुख्य कमजोरी थीं। अक्सर उन्हें हीरो से ज्यादा पैसे मिलते थे, लेकिन अगर कोई निर्माता उनका पूरा पैसा देने में असमर्थ होता तो विवाद उससे भी कोई नहीं था। वह अपना पैसा रियल एस्टेट में निवेश करते थे।
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