हस्बेमामूल (क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)

‘रूकिये, देखिये तभी आगे बढ़िये। इसे दुनियावी सिद्धांत मान लीजिये। जहां तक मैं समझता हूं...जीवन में उतार-चढ़ाव, धूप-छांव तो लगा ही रहता है...हां-हां-हां।’ बुजुर्ग ने अपने अंदाज में उस नवयुवक को समझाते हुए बात आगे बढ़ाई।
‘कहीं की भी यात्रा पर निकलने से पहले अजीब तरह की बेचैनी महसूस होती है। जहां के लिए निकलना है, वहां जाने पर सब कुछ ठीक-ठाक तो रहेगा न? जिस कार्य के लिए निकले हैं, वह समय से सम्पन्न हो जायेगा न? रास्ते में कुछ उल्टा-सीधा तो घटित नहीं होगा न?...आदि-आदि।’ नवयुवक ने प्रत्युत्तर में कहा।
‘ये सिर्फ तुम्हारी ही समस्या नहीं हो सकती है। बहुतों के साथ ऐसा होगा। पर कुछ लोग कह देते हैं, तो कुछ इसे सहजभाव, आत्मसात कर लेते हैं। अब मुझे ही देखो! कार में सवार हुआ तो ऐसा लगा कि ड्राइवर बहुत धीमें गाड़ी चला रहा है, सोचा कि उसे तेज़ चलाने को कहूं। लेकिन अगले ही पल यह भी ध्यान आया कि तेज़ चलाने के लिए कहने पर वो कहीं लड़-भिंड़ न जाये। इससे सारा दोष मुझ पर ही आयेगा। फिर, क्या पता ड्राइविंग के समय उस चालक को बेवजह का रोक-टोक पसंद न हो। उसे गाड़ी तेज़ चलाने के लिए कहने के बजाय कार की सवारी का आनंद ही लिया जाये। वैसे भी, मंज़िल नज़दीक आने लगी तो निश्चिन्तता का आभास होने ही लगता है। नतीजा यह रहा कि घर से तुम्हारे बाद निकलने के बावजूद, मैं भी समय से स्टेशन पहुंच गया...हां-हां-हां।’’ बुजुर्गवार ने दुनियावी ज्ञान का पिंटारा खोला था।
‘शायद आप ठीक कह रहे हैं। लेकिन मैं तो मोबाइल पर बार-बार आ रहे एक फोन कॉल की वजह से परेशान हो गया था। किसी महत्वपूर्ण कार्य के लिए घर से निकलिए, और ऐसे में यदि कोई अनसेव्ड नम्बर या अवांछित कॉल आपके मोबाइल-स्क्रीन पर चमकने लगे, जिसे आप पसंद नहीं करते हैं, तो मूड का अपसेट हो जाना स्वाभाविक है।’ नवयुवक ने मानो बुजुर्गवार के सुझावों पर सफाई दी हो।
तुम कर भी क्या सकते हो? नियति को नहीं बदल सकते। हां! लेकिन एक-दो बार और ऐसी कॉल आने पर, उसे अटेंड करना है या नहीं, तुम खुद तय कर सकते हो। यदि बहुत जरूरी होगा तो सामने वाला दुबारा-तिबारा भी कॉल करेगा। ऐसे में कॉल अटेंड करने से पूर्व तुम्हारे मन-मस्तिष्क में एक खाका सा बन चुका होगा। तुम खुद को इस बात के लिए तैयार कर चुके होंगे कि कॉल अटेंड करने के उपरांत तुम्हें उससे क्या कुछ कहना है? इससे तुम्हारा काम आसान हो जायेगा, और हो सकता है अनावश्यक तनाव से छुटकारा भी महसूस हो...हा-हा-हा।’ कहते ठठाकर हंसते, बुजुर्गवार ने एक बार फिर, अपने ही तरीके अपने अनुभव साझा किये। 
‘पर कुछ लोग ऐसे भी होते हैं मानो वे कितने खलिहा हैं। किसी को कब फोन मिलाना है, बिना उचित समय देखे-समझे, कभी भी फोन मिला देंगे। ऐसे में बड़ी असहज स्थिति उत्पन्न हो जाती है। ये भी कि अगले ही पल फोन अटेंड न करने पर नाराज़गी व्यक्त करते मेसेज भी कर देंगे।’ कहते, नवयुवक इस बार कुछ क्षुब्ध-सा नज़र आया था।
‘देखो...सामने वाले को जज मत करो। वो करो, जो तुम्हारी प्राथमिकताएं हैं। सामने वाला तो अपने अनुसार सोचने, करने के लिए स्वतंत्र है, जैसे कि तुम भी। ऐसे विध्नसंतोषियों से निपटने का तो यही तरीका है कि उनका फोन अटेंड करिये, और कोई-न-कोई व्यस्तता बताते, फिर बात करना टाल दीजिये। हमारे कार्यों की प्राथमिकता तय करने का अधिकार सिर्फ हमें है, किसी और को नहीं। कोई नाराज़ हो, होता रहे। ऐसी बातों, ऐसे लोगों की कभी परवाह नहीं करनी चाहिए।’ बुजुर्गवार की ये दुनियावी बातें सुनकर मेरी यह धारणा एक बार फिर मजबूत हुई कि कुछ सवाल, जवाब के लिए नहीं किये जाते, बल्कि यह जांचने-परखने के लिए किये जाते हैं कि सामने वाला उन्हें किस खूबसूरती से टाल जाता है।
‘‘हां! देखिये तो, एक और दिलचस्प बात बताना तो मैं भूल ही गया। जल्दबाजी में मैंने अपने शर्ट का एक बटन ऊपर-नीचे बंद कर दिया, और उसी क्रम में सारे बटन बंद करते जब आखिरी बटन बंद कर रहा था, तो इस बात का एहसास हुआ। मुझे सारे बटन खोलते, फिर से बंद करना पड़ा, जिससे एक छोटे से काम में दोगुना समय जाया हो गया। शायद इसीलिए कहते होंगे...जल्दी का काम शैतान का होता है-हें-हें-हें।’’ 


(क्रमश:)