विपक्षी दलों से ़खतरा महसूस कर रही है भाजपा !


दिल को तेरी चाहत पे भरोसा भी बहुत है,
और तुझ से बिछड़ जाने का डर भी नहीं जाता।
प्रसिद्ध शायर अहमद फराज़ का यह शे’अर इस समय भाजपा के प्रमुख नेताओं की हालत पर इतना फिट बैठता है कि एक तरफ तो उन्हें विश्वास है कि 2024 के लोकसभा चुनावों में लोग प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नीतियों पर मोहर लगा कर भाजपा को फिर जीत दिलाएंगे परन्तु दूसरी तरफ उन्हें विपक्षी दलों की सम्भावित एकजुटता की सम्भावनाओं से भी डर महसूस हो रहा है। वास्तव में यह डर ऐसे ही नहीं है। इस डर के पीछे ठोस कारण भी हैं, अन्यथा भाजपा के निचले स्तर के नेताओं से लेकर गृह मंत्री अमित शाह तथा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तक विपक्षी नेताओं की पहली बैठक पर कड़ी टिप्पणियां क्यों करते। अपितु इसे नज़र-अंदाज़ कर देते। गौरतलब है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने चाहे अपने दम पर ही 303 सीटों पर जीत हासिल की थी परन्तु उसे मत सिर्फ 37.76 प्रतिशत ही मिले थे। वैसे यह भाजपा की आज तक की सबसे अच्छी कारगुज़ारी है परन्तु इसके विपरीत भाजपा विरोधी दल जो आपस में भी लड़ रहे हैं, को कुल 55 प्रतिशत मत मिले थे। उन्हें 189 सीटों पर जीत प्राप्त हुई थी। इसके विपरीत भाजपा के नेतृत्व वाले एन.डी.ए. (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) को कुल मिला कर 45 प्रतिशत मत ही मिले थे तथा उसने 353 सीटों पर जीत प्राप्त की थी, परन्तु अब स्थिति बहुत बदली हुई है। ज्यादातर पार्टियां जो 2019 के चुनावों के दौरान भाजपा के समर्थन में थीं, अब एक तरफ हो चुकी हैं। कहने को तो भाजपा के नेतृत्व वाले एन.डी.ए. में दो दर्जन से अधिक पार्टियां हैं परन्तु इनमें लोकसभा चुनाव में कुछ बड़ा कर दिखाने के योग्य कोई भी पार्टी दिखाई नहीं देती। इस समय शिव सेना का एक अलग हुआ भाग एवं ए.आई.डी.एम.के. ही कुछ महत्त्वपूर्ण पार्टियां हैं, जो भाजपा के साथ हैं, जबकि एन.डी.ए. छोड़ने वाली पार्टियों में जनता दल (यू.) जिसका नेतृत्व नितीश कुमार करते हैं, अकाली दल तथा टी.डी.पी. जैसी कई पार्टियां हैं। यही कारण है कि 353 सीटें जीतने वाले एन.डी.ए. के पास इस समय 329 सीटें हैं हालांकि भाजपा अकाली दल जैसे अपने पुराने साथियों के साथ फिर से समझौता कर सकती है। दूसरी तरफ एन.डी.ए. भारत के 31 प्रदेशों तथा केन्द्र शासित प्रदेशों में से केवल 15 पर ही सत्तारूढ़ है।
इस तरह यदि इस बार आम आदमी पार्टी को छोड़ कर सभी विपक्षी दल एकजुट हो जाते हैं तो भाजपा के लिए जीत का मार्ग ज्यादा आसान नहीं रहेगा। हमारी जानकारी के अनुसार भाजपा तथा सरकारी एजेंसियों के कुछ सर्वेक्षणों ने भी भाजपा को यह एहसास करवाया है कि यदि विपक्षी दलों में एकजुटता हो जाती है तो वे सभी पर न सही, कम से कम 400 सीटों पर एक ही साझा उम्मीदवार देने में सफल हो जाते हैं तो भाजपा के लिए स्थिति बहुत चुनौतीपूर्ण बन सकती है। भाजपा का बहुसंख्यवाद के ध्रुवीकरण का नारा भी कमज़ोर पड़ रहा प्रतीत होता है, जो भाजपा की जीत की सम्भावनाओं के लिए ़खतरा बन सकता है परन्तु भाजपा के विरुद्ध राजनीतिक संघर्ष इतना आसान भी नहीं है। भाजपा के पास असंख्य स्रोत हैं तथा विपक्षी दलों ने एकजुटता की ओर अभी पहला कदम ही उठाया है। कागज़ों में तथा मेज़ पर एकजुटता होना तथा क्रियात्मक रूप में टिकटों के वितरण का फार्मूला लागू हो जाना, इसके बीच लम्बा स़फर अभी शेष है। वैसे आम आदमी पार्टी जैसी पार्टियां जो अपना अलग मार्ग चुन सकती हैं, इस विपक्षी एकजुटता को क्या क्षति पहुंचाएंगी, यह अभी स्पष्ट नहीं है।
वैसे भाजपा इस स्थिति से अनभिज्ञ भी नहीं है। वह अपनी कुछ पुरानी सहयोगी पार्टियों जिनमें अकाली दल भी शामिल है, को फिर से साथ लेने संबंधी विचार कर रही बताई जाती है परन्तु मुख्य रूप से वह बहुसंख्यकों को अल्पसंख्यकों का डर दिखा कर एकजुट करने की रणनीति को तेज़ कर रही है। वह इस धारणा को फिर से तूल देगी कि हिन्दुओं का बचाव सिर्फ नरेन्द्र मोदी जैसा मज़बूत नेता ही कर सकता है। भाजपा ने अपना पहला पत्ता यूनिफार्म सिविल कोड (यू.सी.सी.) लागू करने के नाम पर चल भी दिया है। अब देखने वाली बात है कि विपक्षी दल इस जाल से कैसे बाहर निकलते हैं, क्योंकि उन्हें अल्प-संख्यकों के साथ-साथ बहुसंख्यकों के मतों की भी ज़रूरत है। वैसे ‘आप’ तो इस जाल में फंस गई प्रतीत होती है, क्योंकि ‘आप’ ने बहुसंख्यकों को खुश रखने के लिए बिना एक भी दिन गंवाये, बिना कोई विधिवत विचार किये, यह घोषणा कर दी है कि वह सिद्धांतत: यू.सी.सी. का समर्थन करती है। नि:संदेह वे यह समझते हैं कि उन्हें अल्प-संख्यक मत तो मिलेंगे नहीं, इसलिए बहुसंख्यक मत लेने के लिए इस कानून का समर्थन करना ज़रूरी है परन्तु पंजाब जहां ‘आप’ सबसे अधिक शक्तिशाली है तथा जहां देश की एक प्रमुख अल्प-संख्या बहु-संख्या में है, आम तौर पर इस कानून की विरोधी है। हो सकता है कि ‘आप’ का यू.सी.सी. पर स्टैंड उसे पंजाब में विपरीत ही पड़े।
इसके अलावा अनुमान ये भी हैं कि भाजपा विरोधी एकता रोकने के लिए मोदी सरकार केन्द्रीय एजेंसियों का सहारा ले सकती है तथा पाकिस्तान की सीमा पर चुनावों से पहले कोई उल्लेखनीय कार्रवाई भी हो सकती है। 
परन्तु अनुमानों की बात छोड़ दें तो अक्तूबर में राम मंदिर का ग्राऊंड फ्लोर तैयार हो जाएगा। 13 अक्तूबर से राम मन्दिर के संबंध में 90 दिन का जश्न शुरू हो रहा है। यह जश्न भी भाजपा के बहुसंख्यकवाद को भाजपा के पक्ष में उभारने की भूमिका निभाएगा। इसके दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को हिन्दू गौरव बहाल करने वाले नायक के तौर पर उभारने के यत्न किए जाने के भी आसार हैं। फिर भी चुनावों में परिणामों तक एक डर तो हमेशा बना ही रहता है।
ये हवाएं कब निगाहें फेर लें किस को ़खबर,
शोहरतों का तख़्त जब टूटा तो पैदल कर गया।
यू.सी.सी. तथा सिख
हालांकि यह लगता है कि भाजपा यूनिफार्म सिविल कोड देश में लागू करे या न,परन्तु इसका प्रचार देश की राजनीति पर बड़ा असर डालेगा और बहुसंख्यकों का ध्रुवीकरण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। हमारे हिसाब से इसके लागू होने या न होने के साथ सिख धर्म को तात्कालिन रूप से कोई प्रत्यक्ष नुकसान नहीं होगा, क्योंकि पहली बात तो यह है कि आनंद मैरिज एक्ट अभी सही तरीके से लागू ही नहीं हुआ। फिर इस एक्ट में न तो तलाक और न ही बच्चा गोद लेने के बारे में कोई धारा है। सिखों को यह सब कुछ पहले ही हिन्दू मैरिज एक्ट के अधीन ही करना पड़ता है। फिर उत्तराधिकार और संपत्ति संबंधी अन्य विवाद भी हम हिन्दू उत्तराधिकार एक्ट के अधीन ही निपटाते हैं। यदि यू.सी.सी. बनता और लागू होता है तो सिख तो बल्कि हिन्दू कानूनों की सीमा से बाहर आ जाएंगे।
लेकिन बात ‘सहे दी नहीं, पहे दी है’। यदि आज हम यह स्वीकार कर लेते हैं तो रास्ता खुल जाएगा जो कि हमारी धार्मिक विभिन्नता को निगलने का कारण बन सकता है। सबसे बड़ी बात यह है कि यदि यह लागू हो जाता है तो यह देश के बहु-धर्मी, बहु-जाति और एकता में अनेकता के ताने-बाने को तहस-नहस करेगा। यह हिन्दू राष्ट्र की तरफ एक कदम नहीं बल्कि उसकी नींव बनेगा। सिख धर्म जो सरबत के भले का धर्म है, उसका वैसे भी फर्ज है कि किसी धार्मिक अल्पसंख्यक भाईचारे या अलग-अलग कबीलों की संस्कृति को कोई खतरा दिखता है, तो यह उनके साथ खड़ा हो।
फिर सोचने वाली बात है कि अभी कुछ वर्ष पहले ही 21वें कानून कमिशन ने लम्बी सोच विचार के बाद इसको ़गैर-ज़रूरी और ़गैर-व्यवहारिक घोषित किया था तो इतनी जल्दी यह व्यवहारिक कैसे हो जाएगा। बेशक संविधान की धारा 44 में इसको लागू करने की बात कही गई है परन्तु यह मौलिक अधिकार नहीं है। यह संविधान की धारा 20 बी और 29 (1) के विरुद्ध जाता है। यह तो जैसे बहुरंगी पेंटिंग के सभी रंगों को एक रंग के साथ ढकने की कोशिश जैसा है परन्तु हम क्यों नहीं सोचते कि कभी भी कोई पेंटिंग किसी एक रंग की नहीं हो सकती। वह तो एक सपाट क़ागज ही बन जाता है।
मुनीर नियाज़ी के लफ़्जों में : 
सारे मंज़र एक जैसे, सारी बातें एक-सी, 
सारे दिन हैं एक-से और सारी रातें एक-सी, 
ऐ मुनीर, आज़ाद हो इस सहर-ए-यक-रंगी से तू, 
हो गये सब ज़हर यकसां, सब बनातें एक-सी।
-1044, गुरु नानक स्ट्रीट, समराला रोड़, खन्ना।
मो- 92168-60000