जातिवार जनगणना का मतलब
जातिवार जनगणना की बहस फिर से केन्द्र में है। बिहार राज्य में उठी यह बहस अब कांग्रेस राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल कर रही है। इसके पक्ष-विपक्ष में खड़े लोग अपनी बात ज़ोर से रख रहे हैं। कुछ समय पहले नैशनल कौंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनोमिक रिसर्च का छपा एक अध्ययन बताता है कि लोगों के सामाजिक, आर्थिक पिछड़ेपन का कारण उनका जाति विशेष में जन्म लेना नहीं बल्कि ऐसी जगह में पैदा होना या बसे रहना है, जहां तक पहुंचते-पहुंचे शिक्षा की रोशनी धुंधली पड़ जाती है और विकास के पांव थक जाते हैं। अब समय की मांग है और यह होना भी चाहिए कि हर व्यक्ति को विकास का लाभ मिले और शिक्षा के द्वार सभी के लिए खुल जाएं और खुले रहें।
इस बात को समझना बेहद ज़रूरी है कि भारत के लिए जिस सामाजिक ठहराव के लिए जाति-व्यवस्था को कसूरवार माना जाता है, वह पूरे तौर पर ब्रिटिश औपनिवेशिकता की देन है। उसी ने अपनी सत्ता को मज़बूत बनाए रखने के लिए हिन्दू संरचनाओं को निर्मुल करने की नीति अपनाई थी।
आर्थिक हैसियत को भी समझ लें। शहरों में आर्थिक हैसियत के अतिरिक्त किसी की भी जाति दिखना असम्भव सा होता है। रोजमर्रा के जीवन में जाति आधार पर भेद ढूंढना काफी कठिन रहता है। हां, विवाह संबंध स्थापित करते समय (अगर वह प्रेम विवाह नहीं है) जाति की पूछताछ हो सकती है। अमरीका में श्वेत-अश्वेत, सऊदी अरब में शिया-सुन्नी भेदभाव से अगर तुलना हो तो भारत में जातिगत उत्पीड़न की बातें बहुत बड़ी नहीं लगेंगी।
हमारे अतीत के भारत में जाति व्यवस्था यदि किसी चीज़ को रोकती थी तो वह थी योग्यता-विहीन महत्त्वाकांक्षा। आज हमारे समाज में अयोग्य लोगों की जो भरमार और पदोन्नित देखी जा रही है, वह जाति व्यवस्था वाले भारत में शायद ही कहीं थी। वह व्यवस्था शांति, सहयोग, न्याय के साथ स्वस्थ प्रतियोगिता को बढ़ावा देती थी। अन्याय, लोभ और उच्छृंखलता को नहीं। अंग्रेज़ों ने जातियों का शिड्यूल बना कर ऊंच-नीच का स्थाई भेदभाव गढ़ने का काम किया। उसे हिन्दू समाज की विकृति बता कर निंदित करने का अभियान चलाया।
इस समय जातिवाद जनगणना का विरोध मनुवादियों की तरफ से उतना नहीं है जितना आम लोगों की तरफ से है। इसकी वजह यह है कि लोगों के मन में यह धारणा विद्यमान है कि इससे जातिगत भेदभाव बढ़ेगा, देश की एकता को धक्का लग सकता है, सामाजिक समरसता को चोट पहुंच सकती है और विकास की गति बाधित हो सकती है। आप इस डर को काल्पनिक ठहरा सकते हैं, लेकिन यह डर किसी ने उनके मन में बैठाया नहीं है, अपितु इसलिए है कि पक्ष के लोगों ने इस तरह की गणना के निहितार्थ को सुनियोजित तरीके से लोगों तक पहुंचाया ही नहीं। जानकारी की इस कमी ने लोगों को यह सोचने का मौका दिया है कि यह सारी मुहिम पिछड़ों को आरक्षण दिलाने के लिए है। आरक्षण के प्रति आज भी आम लोगों का नज़रिया बहुत सकारात्मक नहीं है। इसने दलित और पिछड़ों में एक ऐसा वर्ग पैदा कर लिया है जो न केवल अपने आप को सुरक्षित रख आगे बढ़ते रहना चाहता है बल्कि अपने ही लोगों को उनके अधिकारों से वंचित रखना चाहता है।
हम शायद शिक्षा की भूमिका को भी नज़र अंदाज़ कर रहे हैं। जीवन में अवसर का दरवाज़ा खोलने में जो काम शिक्षा कर सकती है उसका कोई मुकाबला ही नहीं। पहले आम तौर पर यह तर्क दिया जाता था कि गरीब लोग अपने बच्चों को इसलिए नहीं पढ़ा पाते क्योंकि उन्हें लगता था कि पढ़ाई का कोई फायदा नहीं, लेकिन अब वह धारणा खत्म होती जा रही है। अब कम आय वाले लोग भी जैसे-तैसे गुज़ारा कर बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं।
हमें एक बेहतर नागरिक होने के नाते करना यह होगा कि जातिगत अंधविश्वास, दुर्व्यवहार एवं शोषण की परम्परा से दूर रहें। सभी को मानवीय आधार पर सम्मान दें। मानवीय व्यवहार करें। किसी से जातिगत आधार पर नफरत न करें, मज़ाक न उड़ाएं। भ्रमपूर्ण धारणाओं का खंडन करें, ओछी राजनीति को बढ़ावा न दें। जन-जन से प्रेम सत्कार करें। एक बेहतर दुनिया बनाने के लिए संकल्पबद्ध रहें। तभी सच्चे भारतीय हो पाएंगे।