संदेह की दीवार

 

(क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)

‘क्या तुम उसके पति के जाने के बाद उसके घर नहीं जाते?’
‘हां-हां, जाता हूं। एक बार नहीं हजार बार जाऊंगा। तुमसे जो करते बने कर लेना। मुझे तुम्हारा क्या किसी का भी डर नहीं है, समझी।’ अधीर ने गुस्से में चिल्लाकर कहा।
इसके आगे अब राजन में और बातें सुनने की सामर्थ्य नहीं थीं। उसका सिर घूमने लगा। मन में तूफान मच गया। रानी और अधीर, अधीर और रानी। जैसे उसके कानों में हजारों हथौड़ों की एक साथ आवाज होने लगी। काश, यह जमीन फट जाती और मैं उसमें समा जाता। किसी तरह लड़खड़ाते कदमों से राजन घर आया और चुपचाप पलंग पर पड़ गया। स्वाति पा... पा...! करके राजन के पास आयी और बोली- ‘पापा, कपड़ा खोलो! लेकिन ‘हूं’ करके राजन ने दूसरी तरफ करवट बदल ली। तभी रानी ने जाकर कहा- ‘वाह जी, मैं रसोई में इंतजार कर रही हूं और आप है कि यहां आराम फरमा रहे हैं।’
‘मुझे आज भूख नहीं है।’ राजन ने रानी की ओर बिना देखे हुए ही रुखेपन से जवाब दिया।
‘क्यों आज भूख को क्या हुआ?’
‘यूं ही मन नहीं है।’
‘ऐसी भी क्या मन। चलिए उठिए नए पता नहीं कल रात में भी कुछ खाया होगा या नहीं।’
‘देखो, एक बार कह दिया तो कह दिया कि मुझे भूख नहीं है। तुम जाओ और मेरा दिमाग मत चाटो।’ राजन ने क्रोध से भर्रायी हुए आवाज में कहा।
रानी चुपचाप वहां से चली गई। उसका मन जैसे भारी सा हो गया। रसोई घर में जाकर बहुत देर तक रोती रही। आखिर मुझसे ऐसी कौन-सी गलती हो गयी कि आज मेरे प्रति उनका व्यवहार बदल गया। कारण पूछने की उसकी हिम्मत न पड़ी। दोनों ही उस दिन बिना कुछ खाये-पीये चुपचाप सो गये।
राजन अब रानी से खिंचा-खिंचा सा रहने लगा। ज्यादातर वह घर से बाहर ही रखने की कोशिश करता। बातचीत भी कोई खास नहीं होती। सोच-सोच कर रानी हार चुकी थी। उसने कई बार राजन से इस बेरुखी का कारण जानना चाहा, लेकिन वह चुप्पी साध लेता या फिर क्रोधित हो उठता। दोनों के बीच एक अदृश्य-सी दीवार खड़ी हो गई... शक की, कटुता की। हरा-भरा चमन जैसे वीरान हो गया।
एक दिन राजन ने सुना कि विभाग में अधीर चोरी करता हुआ पकड़ा गया और उसे पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है।
घर आते ही राजन ने यह समाचार रानी को व्यंग्यपूर्वक सुनाया।
‘रानी तुम्हें जानकर शायद काफी दु:ख होगा कि तुम्हारे अधीर को चोरी करते हुए पकड़े जाने के कारण पुलिस ने उसे पकड़ लिया है।’
रानी को सारी परिस्थिति भांपते देर न लगी। तभी वह बोली- ‘मैं सब समझती हूं कि तुमने यह समाचार मुझे क्यों सुनाया। अगर पहले ही मन की बात को बतला देते कि अधीर को लेकर मेरे प्रति तुम्हारे मन में इतने दिनों से जो भ्रम था तो आज यहां तक यह नौबत न आती। बोलो, जवाब दो।’
राजन ने रानी की ओर घूर कर कहा-‘तो क्या तुम अपनी सफाई देना चाहती हो? मुझे अब तुम्हारी एक भी बात नहीं सुननी है, समझी।’
‘मैं सफाई देना नहीं चाहती हूं। मैं तो केवल तुम्हारी आंखों से सन्देह का आवरण हटाना चाहती हूं। बिना असलियत को जाने ही जो तुम मेरे प्रति निष्ठुर बन रहे हो वह तुम्हारी भूल है, सबसे बड़ी भूल।’ रुआंसी होकर रानी ने जवाब दिया।
‘भूल! भूल मैंने की है या तुमने? मुझे बेवकूफ समझती हो? मैं तुम्हें अच्छी तरह से पहचान चुका हूं।’
इस वक्त तुम जो भी कह लो, लेकिन उस नीच, कमीने, पापी को अपने किये की सजा भगवान ने स्वयं दे दी है, जिसने मेरी हरी-भरी दुनिया में आग लगाने की कोशिश की। तुम्हारी अनुपस्थिति में वह कमीना शराब पीकर मेरे सामने बकवास कर रहा था। यह बात मैंने इसलिए तुम्हें नहीं बतलायी कि तुम उसे अपने सगे भाई के समान मानते थे। कहीं यह सुनकर तुम अनर्थ न कर बैठो। उस दिन के बाद आज तक मैंने उस पापी की शक्ल भी नहीं देखी। यह कहते-कहते उसकी हिचकियां बंध गयी।
राजन रानी की बात सुनकर उसे खुद पर शर्मिंदगी महसूस होने लगी। उसकी आंखों से मानों संदेह का गंदा आवरण एकाएक हट गया। उसे अपनी गलती का एहसास होने लगा। वह उस वक्त अपने को रानी के सामने हीन समझने लगा। कुर्सी से उठकर उसने रानी को गले से लगाते हुए बोला- ‘मुझे क्षमा कर दो, रानी! स्चमुच तुम्हें पहचाने में मैंने बड़ी भारी भूल की। अब जो चाहो मुझे सजा दे दो। मैंने तुम्हें बड़ा दु:ख दिया है।’ कुछ ही क्षणों में, दोनों के बीच जो एक खाई थी वह पट गई। (समाप्त) 

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