अंधकूप से उभरती आवाज़

इधर तरक्की की घोषणाएं ज्यादा होने लगी हैं। तलाशते हैं, तरक्की नज़र नहीं आती। घर से बाहर जो सड़क टूट-फूट गई है, इधर घर का पता पूछे बिना चले आने वाले आगन्तुक की तरह बार-बार चली आने वाली बे-मौसमी बारिश ने इसे गड्डों में तबदील कर दिया है। बारिश का पानी यहां आकर आराम फरमाने लगता है, तो धीरे-धीरे ये अन्धे कुओं में तबदील हो जाते हैं। यहां रात को सड़कों पर बत्तियां नहीं जलतीं। अंधेरा हर मोड़ पर ठिठका रहता है। इसलिए उन्हें अंधेरे अंधकूप भी कह सकते हो।
पहले गड्डों में केंचुए जीते थे या न उठाया गया कूड़ा कर्कट बिलबिलाया करता था। अब गाहे बगाहे इनमें गिरा हुआ कोई राहगीर अपनी टांग तुड़वा कर या अपने टूटे वाहन का मातम मनाता नज़र आता है। अपनी टूटी टांग-बांह देख रुआंसा हो कह देता है, यह न थी हमारी किस्मत। लेकिन बन्धु, यहां विसाले यार क्या है? क्या गड्डों का भर जाना या सड़क पर अर्से से बुझी हुई बत्तियों का जल जाना।
़खैर, इसे छोड़िये। बात तो तरक्की की घोषणाओं की हो रही थी। खुशी का अवसर क्या यह है कि दस बरस पहले हम विश्व की दसवीं बड़ी शक्ति थे, आज पांचवीं बड़ी शक्ति बन गये। यूं ही चलता रहा, तो तीन बरस में तीसरी बड़ी शक्ति बन जाएंगे और फिर देश आज़ादी का शतक वर्ष मनाने के साथ दुनिया की सबसे बड़ी शक्ति हो जाएगा। सम्पूर्ण विकसित देश कहलाएंगे, बड़े-बड़े महाबलियों के गुरुदेव बन जाएंगे। चौथी औद्योगिक क्रांति के अगुआ बन जाएंगे।हम अंधेरी सड़क पर बन गये गड्डे में गिरे हुए आदमी को उठाते हुए उसके साथ कोई हर्षगीत गाना चाहते हैं। लेकिन चहुं ओर व्याप्त शोक धुनों पर कोई हर्ष गीत गाया जा सकता है क्या?
क्यों नहीं गाया जा सकता, समय के सिद्ध पुरुष हमें दिलासा देते हैं। देखते नहीं हो अभी दुनिया में भुखमरी के आंकड़े सामने आये हैं। हर साल दुनिया के पच्चीस करोड़ भूख से मर रहे हैं, लेकिन अपने देश मेें एक भी नहीं मरा क्योंकि देश के अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त या रियायती गेहूं बांट कर ज़िन्दा रखा जा रहा है। यह दरियादिली एकाध साल के लिए नहीं, फिलहाल यह घोषणा पूरे पांच साल के लिए बढ़ा दी गई है। अब अपना कल्याणकारी समाज है और हाकिमों को अपनी कुर्सी स्थिर रखने की ज़रूरत है। अपने लिये भी और अपने नाती-पोतों के लिए भी। इसलिये उम्मीद है कि विकसित भारत के शतकीय आज़ादी वर्ष तक परिवारवाद के नारे चलते रहेंगे। राजनीति में नया खून भी तो आना चाहिए बन्धु! यूं रियायती गेहूं बांटने की यह घोषणा भी दीर्घ-जीवी होती रहेगी। हमने अपने देश में एक भी व्यक्ति भूख से मरने नहीं देना है। हां, काम न मिलने के अवसाद और व्यथा से कोई मर जाये तो यह मामला दूसरा है। यह मनोवैज्ञानिक रूप से विश्रृंखल हो जाने का मामला है। वह अवसादग्रस्त होकर मरा, भूख से तो नहीं मरा न। ़खैर जैसे-जैसे देश में भूख से न मरने वालों की संख्या घटती जा रही है, उतना ही अवसादग्रस्त या उपेक्षित होकर मरने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है, लेकिन फिलहाल ये मौतें सन्दर्भच्युत हैं। आप भूख से मरने वाली मौतों की विडम्बना के बारे में सोचें, मानसिक रूप से विक्षिप्त हो मरने वाले युवा बल के बारे में नहीं। इसकी चिन्ता मनोचिकित्सक कर लेंगे, भुखमरी के आंकड़े बताने वाले आंकड़ा शास्त्री नहीं, जो यह कहते हैं, कि दूसरे देशों की तुलना में भारत में भुखमरी से मरने वाले बहुत कम हैं।
देश की तरक्की के साथ-साथ खुशी मनाने वाले कुछ आंकड़े हैं, हमारे पास। ये बताते हैं कि जहां पूरी दुनिया महंगाई से त्रस्त है, भारत ने महंगाई पर नियन्त्रण पा लिया है। आंकड़े गवाह हैं। देश का थोक मूल्यों का सूचकांक देख लो, शून्य से नीचे चला गया है, अब कठिनाई से आधा प्रतिशत है। परचून कीमतों को देख लो। रिज़र्व बैंक की बताई पांच प्रतिशत से नीचे चल रही है, और जल्दी ही उसे सुरक्षित चार प्रतिशत पर ले आएंगे। उत्सव मना लो कि हमने कीमतें नियंत्रित कर लीं, लेकिन फटी जेब और खाली थैलों वाले लोग उत्सव मनाने बाज़ारों में कैसे जायें? बाज़ार में जाते हैं, तो खाने-पीने की चीज़ें दूर से ही उन्हें देख कर चिल्ला देती हैं, ‘मुझे हाथ न लगाना।’ सिर छिपाने के लिए मकान तलाश करने जाते हैं, तो उनके आसमान छूते किराये कहते हैं, इधर रुख न करना। यह मकान किराये के लिए खाली नहीं है। साग सब्ज़ी, फल, अनाज सभी की कीमतें तो दून सवाई हो रही हैं। जानकार पूछते हैं, किस सस्ते युग की तलाश करने चले हो, तेरे घर की थाली की लागत तो पिछले दिनों पच्चीस प्रतिशत बढ़ गई। हम पूछते हैं, भय्या सुना था, सस्ता युग आ गया। कीमतें कहां घटी हैं? जवाब मिलता है, ‘बुनियादी उद्योगों की वस्तुओं की घटी हैं, इसका लाभ तुझे देश विकास के रूप में मिलेगा।’
हमारे बड़े बूढ़े होते तो कह देते, ‘हां बेटा, आंवले का खाया, और हमारा कहा तुझे बाद में अर्थ देगा। अभी इंतज़ार करो।’ बेशक हम इंतजार में हैं, लेकिन इधर खबर मिली है, कि बाज़ार में आंवलों के दाम भी तेज़ी से बढ़ गये हैं। अब इसे खाकर इसका लाभ प्राप्त हो सकने का भी इंतज़ार करेंगे तो कैसे?