...जान बची, तो!

यह जो सामने एक बड़ा-सा वन-उपवन जैसा दिखाई देता है, इसे इसके पुराने नाम से पुकारें, तो अंग्रेज़ी बाग कहते हैं। अंग्रेज़ी बाग इसलिए कि लोग कहते हैं कि कभी यहां अंग्रेज़ी सेना की कम्पनियां पड़ाव डाला करती थीं। कभी यह बहुत बड़ा होता था—दूर तक फैला हुआ, किन्तु इसे कोई चन्दरी नज़र लगी, तो इसके शरीक ही इस पर कब्ज़ा करते चले गये।
एक समय था जब इसमें फल-फूल हुआ करते थे। आज फल तो कहीं रहे नहीं, फूल भी बहुत ढूंढने पर ही मिलते हैं। यहां आम और अमरूद के अनेक दरख़्त होते थे। जामुन और शहतूत के वृक्ष भी बहुत फलते थे। बाल-गोपाल ऊपर-नीचे, दोनों जगहों से फल तोड़ लिया करते थे। कभी यहां कोयल की कूक और मोर की पीहू रे इधर-उधर से अक्सर सुनाई देती थी। आज मोर तो शायद पूरे शहर में नहीं रहा, कोयल की एकमात्र कुहुक कभी सुनाई देती है, तो मन बाग-बाग हो जाता है।
लिहाज़ा आज यह काफी अटा-कटा-सा हो गया है। इसके भीतर के फलदार वृक्ष काट दिये गये हैं। इधर-उधर झाड़-झंखाड़ और टीला-टिब्बे उग आए हैं। यहां लोग सुबह-शाम सैर-त़फरीह के लिए आते हैं। अल सुबह सैर-त़फरीह करने वालों में मैं स्वयं भी शुमार होता हूं। इसी बहाने कुछ लोग यहां रातों को चोर-पार्टियों का आयोजन भी करते हैं। कभी-कभार ये चोर पार्टियां रेव पार्टियों जैसी बन जाती हैं...शाकाहारी भी, मांसाहारी भी।
इस कारण यहां कुत्ता कम्पनियों ने अपने पड़ाव बढ़ा लिये हैं—कुछ छोटे, कुछ बड़े वाले। कुछ मझोले और कुछ बौने-जैसे कद वाले। कुछ चितकबरे, भूरे और कई काले कुत्ते भी। इनमें से एक काला कुत्ता थोड़ा अधिक तेज़-तर्रार लगता है। पहले भी उसे कई बार देखा था—इधर से उधर भागते हुए...कभी गिलहरियों के पीछे, कभी दूसरे कुत्तों को भगाते हुए। कभी-कभार वह सैर करने वालों को घूरने और गुर्राने भी लगता है। उसकी बड़ी-बड़ी बिल्लौरी चमकदार आंखें ही लोगों को भयभीत कर देने के लिए काफी हैं।
उसकी पतली टांगें उम्मीद से कुछ ज्यादा ही लम्बी हैं। इस कारण उसका कद भी अन्यों से ऊंचा है। सम्भवत: इसी कारण जब वह अंग्रेज़ी बाग के पाथ-वेज़ अथवा नुक्कड़-पार्कों में भागता है, तो सैर करने वाले इधर-उधर होकर बैठ जाने का उपक्रम करने लगते हैं।
उस दिन शायद मैं थोड़ा अल-सुबह ही वहां पहुंच गया था...थोड़ा-थोड़ा सुरमई अन्धेरा अभी बाकी था। सड़क पर से गुज़रते हुए भी थोड़ा भय तो लगा था। आजकल ज़माना ही बहुत खराब चल रहा है न! चोर, लुटेरों, गुण्डों और डाकुओं की तादाद और उनकी गतिविधियां बहुत बढ़ गई हैं। बाग का लोहे की जाली वाला घुमाव-द्वार लांघते ही सबसे पहले मेरी नज़र कुत्तों के एक झुण्ड पर पड़ी। मैंने गिने तो दो, चार, छह  शायद आठ थे। सभी की नज़र मेरी तरफ उठी थी। शायद सोच रहे हों—यह कौन घुसपैठिया आ गया है सवेरे सवेरे।
थोड़ा और आगे गया, तो सफेद कुर्ता-पाजामा पहने, मझले-से कद का एक शख्स कुत्तों को बिस्कुट डाल रहा था...वहां पर कुल चार कुत्ते थे। दो-चार और थोड़ी दूर खड़े थे—वे शायद बिस्कुट खाने वाले शाकाहारी नहीं थे।
वहां से हट कर थोड़ा आगे निकला, तो छतरी के पास से होते हुए बू का एक भारी झोंका नथुनों में आ घुसा। छतरी के भीतर फर्श पर गत्ते के खाली कई डिब्बे, प्लास्टिक की दो-चार पानी वाली बोतलें, चटनी-खटाई से सनी कुछ कागज़-कटोरियां पड़ी दिखीं। बैंच के नीचे बीयर की दो बोतलें भी पड़ी थीं। ...रात को शायद यहां कोई चोर पार्टी हुई होगी, अथवा रेव-पार्टी हुई होगी। इस अंग्रेज़ी बाग में आजकल सब कुछ होने लगा है। नाक पर रुमाल रख कर अभी मैं पाथ-वे का टी-प्वाइंट, तिकोना मोड़ मुड़ा ही होगा, कि एकाएक मेरे पांव जैसे जड़ होकर एक ही जगह ठहर गये—टी-प्वाइंट के दोनों ओर बड़े-बड़े गुण्डा लठैत जैसे कई कुत्ते बड़ी मुस्तैदी के साथ खड़े थे। मुझे महसूस हुआ, अभी कहीं से ‘यल़गार हो’ की आवाज़ आएगी, तो ये कुत्ते आपस में भिड़ जाएंगे, अथवा मेरे जैसे किसी आसान-से शिकार पर टूट पड़ेंगे। 
मैंने इधर-उधर देखा, तो जैसे मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम। मेरी घिग्घी बंधने लगी थी। मैंने आव देखा, न ताव, पिछले पांवों से, पीछे की ओर लौटने लगा। इससे पहले कि उनमें से कोई एक दुंदुभि बजाता, मैंने देखा, वो ही बिस्कुट वाला आदमी बाएं हाथ में लिफाफा थामे चला आ रहा था। उसे पास आते देख, हलक से नीचे उतर गये मेरे प्राण फिर लौट आए थे। उसके मेरे बगल से होकर गुज़रने के बाद मैं भी उसके पीछे-पीछे चलने लगा था।
उन कुत्तों के पास से गुज़रते वक्त मैंने कनखियों से गिना था—उनकी संख्या एक ओर नौ और दूसरी तरफ आठ थी, और इन दोनों के बीच खड़ा था वो काला कुत्ता...बाहु-बली बन कर। जब हम दोनों दूसरी छतरी के पास तक पहुंचे, तो मैंने थोड़ा रुक कर पीछे की ओर मुड़ कर देखा था—कुत्ते अब थोड़ा और एक-दूसरे के पास आ गये थे। जहां वे खड़े थे, उनके पीछे वाला परिदृश्य भी कुछ इस प्रकार का था, कि कुछ झाड़-झंखाड़, और एक टिब्बा-सा... जब कभी इस टिब्बे पर सर्दियों के मौसम में घास उग आती थी तो इसे शिमला पहाड़ी का नाम दे दिया जाता था।
सहसा पुराने किस्सा-कहानियों में पढ़ी एक बड़ी चर्चित कहानी मुझे याद हो आईर्—अली बाबा चालीस चोर। मैंने थोड़ा रुक कर एक बार फिर उस तरफ देखा, जिधर वो कुत्ते खड़े थे। मुझे सहसा लगा, वो काला कुत्ता चोरों का सरदार है, और शेष कुत्ते उसके  चोर साथी हैं। ये सभी कुत्ते यूं भी, इस अंग्रेज़ी बाग की दीवारों के साथ बन/बना लिये गये चोर-रास्तों को लांघ कर ही भीतर प्रवेश करते हैं। किन्तु इस कहानी में एक बड़ा अन्तर यह है कि इसमें चोरों की संख्या चालीस नहीं, बत्तीस है।मैंने देखा, वो आदमी अब काफी दूर निकल गया था। मैं तेज़-तेज़ कदमों से उसके पीछे की ओर चलने लगा। गुण्डा कुत्ता तत्वों का वो समूह बेशक अभी वहीं था, किन्तु मैं ही उनसे बच कर अब काफी दूर निकल आया था। इस बीच सूर्य की किरणें वृक्षों की शाखाओं के बीच से छन कर इधर-उधर ठहराव ढूंढने लगी थीं। मैं किसी तरह वहां से बच कर निकल आया, तो सहज स्वाभाविक रूप से मेरे मुंह से निकला-जान बची, तो लाखों पाये। (समाप्त)