चुनाव परिणामों से जुड़ी अनावश्यक अटकलों से बचें राजनीतिक दल

लोकसभा चुनावों के 6 चरणों का मतदान हो चुका है। अंतिम एवं सातवें चरण का मदतान 1 जून को है। राजनीतिक दलों की आक्रामकता अब चुनाव परिणामों को लेकर फिजूल की अटकलों के रूप में देखने को मिल रही है। वैसे तो तीन चरणों के बाद ही चुनाव परिणामों से जुड़ी अटकलें पर सारे चुनावी परिदृश्य बन रहे हैं। राजनीतिक दलों की सोची-समझी रणनीति के तहत चुनाव परिणामों की संभावनाएं व्यक्त करना, अटकले एवं कयास लगाना चुनावी परिदृश्यों को भटकाने की कोशिशें हैं, इसमें राजनीतिक विश्लेषण और उनके निष्कर्ष भी कहीं न कहीं ऐसा वातावरण बना रहे हैं, जिससे मतदाता को लुभाया जा सके।
राजनीतिक दलों ने राष्ट्र के ज़रूरी एवं बुनियादी मुद्दें को तवज्जों न देकर राजनीतिक अपरिपक्वता का ही परिचय दिया है। दिक्कत यह है कि सभी पार्टियां अपने दल या गठबंधन की जीत को सुनिश्चित बताते हुए इस तरह के विश्लेषण और निष्कर्ष निकाल रहे हैं जो सत्यता से दूर हैं। ऐसे निष्कर्ष अतीत में कई बार गलत साबित हो चुके हैं। 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को ऐसी जीत मिली, जिससे देश में तीन दशक बाद किसी पार्टी ने अपने बहुमत वाली सरकार बनाई। 2019 में पार्टी ने उससे भी बड़ी जीत हासिल की, लेकिन 2019 में भी चुनाव नतीजों से पहले शेयर बाज़ार लड़खड़ाते नज़र आ रहे थे एवं विपक्षी दल भाजपा के हार की भविष्यवाणी कर रहे थे। 2014 में भी कई विश्लेषक उत्तर प्रदेश की कई सीटों पर मुस्लिम मतदाताओं के कथित ध्रुवीकरण का हवाला देते हुए खास तरह के चुनाव नतीजों की भविष्यवाणी कर रहे थे, जो गलत साबित हुए। ऐसी ही भविष्यवाणियां इस बार भी बढ़-चढ़ कर हो रही है, लेकिन इस बार के चुनाव परिणाम अप्रत्याशित होने वाले हैं, चौंकाने एवं चमत्कृत करने वाले होंगे।
निश्चित ही चुनाव परिणामों से जुड़ी अटकलों का शेष रहे चरणों पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। पहले तीन चरणों के कम मतदान को सत्तापक्ष के समर्थक मतदाताओं के उत्साह में कमी का संकेत बताया जा रहा है तो महाराष्ट्र और बिहार जैसे राज्यों में राजग के सहयोगी दलों की वोट ट्रांसफर करने की क्षमता पर सवाल उठाए जा रहे हैं। जहां तक वोटरों के उत्साह में कमी की बात है तो अव्वल तो चुनाव आयोग के अंतिम आंकड़ों के मुताबिक वोट प्रतिशत का अंतर काफी कम रह गया है, दूसरी बात यह कि वोट न देने वालों में किस पक्ष के समर्थक ज्यादा हैं, इसे लेकर परस्पर विरोधी दावे किए जा रहे हैं जिनकी सचाई 4 जून को ही सामने आएगी, लेकिन चुनाव परिणामों को लेकर विरोधाभासी अटकलों का असर मतदाता पर पड़ता ही है। समूचे देश की बात करें तो इस पर लगभग आम राय है कि इन चुनावों में कोई लहर नहीं है। 
अनेक चुनाव विश्लेषण बताते हैं कि 1999 और 2004 में कम मतदान प्रतिशत से भाजपा को फायदा हुआ था, लेकिन 2014 में अधिक मतदान से लाभ हुआ। लेकिन विश्लेषक मतदान प्रतिशत और अंतिम परिणामों के बीच स्पष्ट संबंध बताने में विफल हैं। बाज़ार के इस उतार चढ़ाव के बीच निवेशक लोकसभा चुनाव में कुछ चरणों के कम मतदान प्रतिशत को लेकर चिंतित हैं। वे चुनाव परिणाम के बारे में अनिश्चितता पाले हुए हैं। निवेशक ही नहीं, मतदाता एवं नेता भी भ्रम एवं भटकाव पाले हुए हैं। लोकसभा चुनाव के बाद केंद्र में भाजपा विरोधी ‘इंडिया’ गठबंधन के सत्ता में आने पर तृणमूल कांग्रेस ने नई सरकार के गठन में ‘बाहर से समर्थन’ देने की बात की। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की इस टिप्पणी के बाद से ही राजनीतिक हलकों में कयासों और अटकलों का दौर तेज़ हो गया था। सवाल उठ रहा था कि क्या उनकी इस टिप्पणी में कोई नया संकेत छिपा है? पांचवें चरण की सम्पन्नता के बाद यह साफ हो गया है कि राष्ट्रीय स्तर पर इस बार सत्तारूढ़ भाजपा की कांग्रेस समाहित विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ के साथ कांटे की लड़ाई हैं और दोनों ही पक्ष अपनी-अपनी विजय का दावा कर रहे हैं। 
कम मतदान की पहेली का एक मतलब यह भी निकाला जा सकता है कि मतदाता को कोई उत्साह नहीं है, क्योंकि उसे यह लगता है कि भाजपा द्वारा 400 सीटों की जीत का दावा किया जा रहा है तो उसके वोट से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। एक वजह यह भी हो सकती है कि वह परिणाम को लेकर पहले से ही आश्वस्त है, लेकिन इन दोनों वजहों में राजनीतिक कार्यकर्ताओं की भूमिका है, ये मतदाता की पहचान से जुड़े मामले नहीं हैं। विपक्ष इस बात को हवा दे रहा है कि जब सत्ताधारी दल का कार्यकर्ता जनता को बूथ पर लाने में विफल होता है तो इसका मतलब है कि कुछ गड़बड़ है। कुछ जानकार कह रहे हैं कि मामला उतना स्पाट नहीं है। एक तो मौसम की मार और दूसरा यह एक ऐसा राजनीतिक मैच है जिसका नतीजा पहले से पता है। इसलिए ऐसे मैच में कोई उत्साह नहीं होना बहुत सामान्य है।
पूरे देश में चुनाव प्रतिशत में कमी के रुझान पर चुनाव आयोग को भी गम्भीर मंथन करना चाहिए कि मतदान बढ़ाने के लिये देशव्यापी अभियान चलाने के बावजूद वोटिंग अपेक्षाओं के अनुरूप क्यों नहीं हो पायी। वहीं राजनीतिक दलों को भी आत्ममंथन करना चाहिए कि मतदाता के मोहभंग की वास्तविक वजह क्या है। उन्हें अपनी रीतियों-नीतियों तथा घोषणा-पत्रों की हकीकत को महसूस करते हुए अतिश्योक्तिपूर्ण भविष्यवाणियों एवं अटकलों से बचना चाहिए।

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