बुद्ध का श्रद्धाभाव

मगध की राजधानी में भगवान बुद्ध के प्रवचन सुनने भारी तादाद में लोग जुटते और उनके अमृत वचनों से लाभान्वित होते। थोड़े दिनों बाद बुद्ध ने अगले शहर जाने का विचार किया। अगले दिन के प्रवचन की समाप्ति पर बुद्ध ने वहां से जाने की घोषणा कर दी। यह सुनकर नगरवासी दुखी हो गए और उनसे कुछ दिन और रुकने का आग्रह किया, किन्तु बुद्ध ने उनसे क्षमा मांगते हुए इसे अस्वीकार कर दिया। नगरवासियों की इच्छा थी कि बुद्ध को कुछ न कुछ भेंट दें। बुद्ध अगले दिन अपने आसन पर विराजमान हुए और भेंट देने का क्रम आरंभ हुआ। जो भी भेंट आती, बुद्ध अपने शिष्यों से कहकर एक ओर रखवा देते। तभी एक गरीब वृद्धा खा चुके आधे आम को लेकर आई और बुद्ध के चरणों में वह झुठा आम रखकर बोली- भगवन्! मेरे पास यही मेरी समस्त पूंजी है। मैं धन्य होऊंगी, यदि आप इसे स्वीकार करेंगे। बुद्ध ने बड़े प्रेम से उस आम को उठा लिया। नगरवासियों ने पूछा- भगवन्! इस आम में ऐसा क्या था कि उसे आपने स्वयं उठकर ग्रहण किया? जबकि हमारे बहुमूल्य उपहार एक ओर रखवा दिए। तब बुद्ध बोले- वृद्धा के पास जितनी भी पूंजी थी, वह उसने अपने पेट की चिंता किए बगैर मुझे प्यार और श्रद्धा से अर्पित कर दी, जबकि तुम लोगों ने अहंकार से अपने धन का कुछ ही हिस्सा भेंट किया। तुम्हारे और वृद्धा के दान देने में अहंकार और श्रद्धा का भेद है। 
आशय यह है कि श्रद्धा के साथ किया गया दान दाता व याचक दोनों की आत्मा को तृप्त करता है, जबकि दान में अभिमान शामिल होने पर वह मात्र आवश्यकता को ही संतुष्ट कर पाता है। 
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