प्रकृति की नेमत हर साल क्यों बनती है आफत ?

भारी बारिश के कारण इन दिनों कई राज्यों में बाड़ के हालात बने हुए हैं, दिल्ली से लेकर उत्तर प्रदेश, बिहार और असम तक भारी बारिश ने जनजीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया है। महाराष्ट्र में भी कई इलाकों में लोग बाढ़ में फंसे हैं। कहीं तेज़ बारिश, कहीं भू-स्खलन तो कहीं बादल फटने की घटनाएं स्थिति को और विकराल बना रही हैं। पहाड़ी क्षेत्रों से लेकर मैदानी इलाकों तक हर कहीं आसमान से आफत बरस रही है और कई राज्यों में बाढ़ से भयानक तबाही का मंजर नज़र आ रहा है। हालात ऐसे हैं कि देश के कई इलाकों में जल आतंक का नज़ारा है। भारी बारिश के कारण पहाड़ों में कई जगहों पर लैंड स्लाइड के मामले भी लगातार सामने आ रहे हैं, वहीं मैदानी इलाकों में स्थानीय नदियों के जलस्तर में बढ़ोतरी होने के कारण अनेक गांवों में जल भराव की स्थिति बनी हुई है, जिससे स्थानीय लोगों का जनजीवन पूरी तरह अस्त-व्यस्त हो गया है। हिमाचल के क्षेत्रीय मौसम कार्यालय के मुताबिक भारी बारिश के कारण कांगड़ा, कुल्लू, किन्नौर, मंडी, सिरमौर और शिमला ज़िलों के कुछ इलाकों में अचानक बाढ़ आ सकती है। उत्तर प्रदेश के कुशीनगर में नारायणी नदी पूरे उफान पर है, उत्तराखंड में जोशीमठ के विष्णु प्रयाग से दो किलोमीटर ऊपर पैंका पुल के पास पहाड़ी का हिस्सा टूटकर गिर गया, जिससे चारधाम यात्रा में बद्रीनाथ का रूट जाम हो गया। कई जगहों से पुलों के पिलरों में दरारें आने की खबरें भी हैं, जिससे इन पुलों के टूटने का खतरा भी मंडरा रहा है।
बारिश के कारण बाढ़ से सबसे ज्यादा तबाही असम में हो रही है, जहां बाढ़ ने लाखों लोगों के जीवन पर असर डाला है। राज्य में अधिकांश नदियों का जल स्तर खतरे के निशान से ऊपर है। ब्रह्मपुत्र नदी का जलस्तर खतरे के निशान से ऊपर बना हुआ है और नेमाटीघाट, गुवाहाटी, गोलपारा तथा धुबरी में भी ब्रह्मपुत्र खतरे के निशान से ऊपर बह रही है। खोवांग में बुरही दिहिंग, शिवसागर में दिखौ, नंगलमुराघाट में दिसांग, नुमालीगढ़ में धनसिरी, धरमतुल में कोपिली, बारपेटा में बेकी, गोलकगंज में संकोश, बीपी घाट में बराक और करीमगंज में कुशियारा नदियां खतरे के निशान से ऊपर हैं। असम में पिछले करीब एक महीने से भयंकर बाढ़ की स्थिति के कारण बुनियादी ढांचे को भारी नुकसान पहुंचा है, सड़कें बंद हैं, फसलें तबाह हो गई हैं और पशुधन को भी बड़ी मात्रा में नुकसान हुआ है। प्रदेश में लोगों का हाल बेहाल है और हज़ारों लोग बेघर हो गए हैं। असम के कुल 28 ज़िलों की करीब 24 लाख की आबादी बाढ़ से प्रभावित है। आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, 8 जुलाई तक ही राज्य में बाढ़, भूस्खलन और तूफान में 78 लोगों की मौत हुई है, जिनमें केवल बाढ़ के कारण ही 66 लोगों की मौत हो चुकी है। बाढ़ की दूसरी लहर से 68 हजार हेक्टेयर से भी ज्यादा फसल भूमि जलमग्न हो चुकी है। असम स्थित काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान में बाढ़ के कारण 8 जुलाई तक 130 से ज्यादा वन्य जीव मारे गए हैं जबकि करीब सौ जानवरों को बचाया गया है।
हालांकि ऐसा नहीं है कि बारिश के कारण देश के विभिन्न इलाकों में ऐसे चिंताजनक हालात पहली बार बने हों बल्कि मानसून के दौरान अब हर साल ऐसे ही हालात देखे जाने लगे हैं, जब एक साथ कई राज्य बाढ़ के रौद्र रूप के सामने इसी प्रकार बेबस नज़र आते हैं। विडम्बना है कि हम हर साल उत्पन्न होने वाली ऐसी परिस्थितियों को ‘प्राकृतिक आपदा’ के नाम का चोला पहनाकर ऐसे ‘जल प्रलय’ के लिए केवल प्रकृति को ही कोसते हैं लेकिन कड़वी सच्चाई यही है कि मानसून गुजर जाने के बाद भी पूरे साल हम ऐसे पुख्ता प्रबंध नहीं करते, जिससे आगामी वर्ष बाढ़ के प्रकोप को न्यूनतम किया जा सके। आपदा प्रबंधन के लिए केन्द्र सरकार द्वारा हर साल भारी-भरकम राशि का प्रावधान किया जाता है, जिससे सहजता से समझा जा सकता है कि आपदा प्रबंधन कार्यों के लिए धन की कोई बड़ी समस्या नहीं है लेकिन यदि फिर भी बाढ़ जैसी आपदाएं हर साल देश में कहर बरपाती हैं तो इसका सीधा सा अर्थ है कि आपदाओं से निपटने के नाम पर विभिन्न राज्यों में दीर्घकालीन रणनीतियां नहीं बनाई जाती। कई बार देखने में आता है कि प्राकृतिक आपदाओं के लिए स्वीकृत फंड का इस्तेमाल राज्य सरकारों द्वारा दूसरे मदों में किया जाता है।
बारिश प्रकृति की ऐसी नेमत है, जो लंबे समय के लिए धरती की प्यास बुझाती है, इसलिए होना तो यह चाहिए कि मानूसन के दौरान बहते पानी के संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाए जाएं ताकि संरक्षित और संग्रहीत यही वर्षा जल मानूसन गुजर जाने के बाद देशभर में पेयजल की कमी की पूर्ति कर सके व इससे आसानी से लोगों की प्यास बुझाई जा सके। ऐसे में गंभीर सवाल यही है कि प्रकृति की यही नेमत हर साल इस कदर आफत बनकर क्यों सामने आती है? यदि हम अपने आसपास के हालातों पर नज़र दौड़ाएं तो पाएंगे कि मानूसन से पहले स्थानीय निकाय तेज़ बारिश होने पर बाढ़ के संभावित खतरों से निपटने को लेकर कभी मुस्तैद नहीं रहते, हर जगह नाले गंदगी से भरे पड़े रहते हैं, उनकी साफ-सफाई को लेकर कोई सक्रियता नहीं दिखती। विकास कार्यों के नाम पर सालभर जगह-जगह सड़कें खोद दी जाती हैं लेकिन मानसून से पहले उनकी मुरम्मत नहीं होती और अक्सर ये टूटी सड़कें मानूसन के दौरान बड़े हादसों और अस्त-व्यस्त जीवन का कारण बनती हैं। प्रशासन तभी हरकत में आता है, जब कहीं कोई बड़ा हादसा हो जाता है या जनजीवन बुरी तरह अस्त-व्यस्त हो जाता है।
तेज़ मूसलाधार बारिश को भले ही प्रकृति की मर्जी कहा जा सकता है किन्तु यदि अब साल दर साल थोड़ी तेज़ बारिश होते ही पहाड़ों से लेकर मैदानों तक हर कहीं बाढ़ जैसे हालात नज़र आने लगते हैं तो इसे ईश्वरीय प्रकोप या दैवीय आपदा की संज्ञा हरगिज नहीं दी सकती क्योंकि यह सब प्रकृति के साथ बड़े पैमाने पर की जा रही छेड़छाड़ का ही दुष्परिणाम है, जो हम हर साल कभी सूखे तो कभी बाढ़ के रूप में भुगतने को विवश हो रहे हैं। हालांकि कहा जा रहा है कि भारी बारिश के चलते ही हर कहीं तबाही का मंजर पैदा हुआ है, वैसे औसत से ज्यादा बारिश होना भी कोई ईश्वरीय प्रकोप नहीं है बल्कि यह पृथ्वी के बढ़ते तापमान अर्थात् जलवायु संकट का ही दुष्परिणाम है। 
प्रकृति ने बारिश को समुद्रों तक पहुंचाने का जो रास्ता तैयार किया था, हमने विकास के नाम पर या निजी स्वार्थों के चलते उन रास्तों को ही अवरूद्ध कर दिया है। नदी-नाले बारिश के पानी को अपने भीतर सहेजकर शेष पानी को आसानी से समुद्रों तक पहुंचा देते थे किन्तु नदी-नालों को ही हमने मिट्टी और गंदगी से भर दिया है, जिससे उनकी पानी सहेजने की क्षमता बहुत कम रह गई है, बहुत सारी जगहों पर नदियों के इन्हीं डूब क्षेत्रों को आलीशान इमारतों या संरचनाओं के तब्दील कर दिया गया है, जिससे नदी क्षेत्र सिकुड़ रहे हैं। ऐसे में नदियों में भला बारिश का कितना पानी समाएगा और नदियों से जो अतिरिक्त पानी आसानी से अपने रास्ते समुद्रों में समा जाता था, उन रास्तों को भी अवरूद्ध कर देने से बारिश का यही अतिरिक्त पानी आखिर कहां जाएगा? सीधा सा अर्थ है कि जरा सी ज्यादा बारिश होते ही यही पानी जगह-जगह बाढ़ का रूप लेकर तबाही ही मचाएगा। बड़े पैमाने पर वनों की कटाई और प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट के चलते ही इस प्रकार की पारिस्थितिकीय त्रासदियां पैदा हो रही हैं। फिर भला इसमें प्रकृति का क्या दोष? सारा दोष तो उस मानवीय फितरत का है, जो प्रकृति प्रदत्त तमाम नेमतों में केवल और केवल अपने स्वार्थ ही तलाशती है।

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