एक और आशीर्वाद की तलाश
‘अपने आप पर आप थोड़ा अभिमान करना भी सीखिये।’ छक्कन ने हमें दु:खी देखा तो कहा था। वास्तव में अभिमान करना तो जैसे इस देश की अस्सी प्रतिशत जनता भूल चुकी है। उन्हें याद रहता है तो यह कि ‘यहां जो चलता है, उसे चलते रहने देना चाहिए।’ यहां नेताओं का दल बदल चोला स्वीकार करना होगा। उनकी नेतागिरी में से जनसेवा का दर्शन गायब हो कर, सबसे पहले स्व-सेवा, फिर परिवार सेवा, और उसके बाद अपने चम्मचों की दुलार सेवा ने ले ली है। इसे कौन नहीं जानता, बन्धु? राजनीति से लेकर प्रशासन तक, समाज से लेकर पठन पाठन तक का चेहरा दोगला हो चुका है। आज परिवारवाद का नारा लगाने वाले सबसे बड़े परिवार पोषक बने नज़र आते हैं। सही फैसलों के लिए उन्हें अपने नाती-पोतों के हित से अधिक कुछ नज़र नहीं आता। इस विसंगित की ओर उनका ध्यान दिलाओ तो कह देते हैं कि ‘यह तो अपवाद है। वैसे दलगत राजनीति से लेकर सत्ता की राजनीति तक में नया खून आना ही चाहिए।’ फिर भी जब सतावीथियों की ओर देखते हैं, तो वे बूढ़े नेताओं के भाई-भतीजों और नाती-पोतों से भरी नज़र आती हैं।एक बार कभी संसद से लेकर विधानसभाओं में आये जन-प्रतिनिधियों की ओर देखिये। उनके चेहरे से लेकर उनके दामन तक पर गम्भीर अपराधों के आरोपों के दाग हैं। न्याय संहितायें चाहे बदल लो, फिर भी इनके अपराधों के न्याय के लिए विचाराधीन होने का लेबुल नहीं टूटता। आपने तो फैसला देने की तारीखें बांध दीं। फिर भी इनका न्याय बांटने वाली मशीनरी का माइंड सैट तो नहीं बदल सके। हां आप इसका समाधान अपने सन्देशों में तलाशते रहिये लेकिन यारों ने अपरिहार्य कारणों से न्याय मुल्तवी होने की चोर गली तो पहले ही तलाश ली है।
आप लाख कहते रहिये, ‘कानून बदल गया’ लेकिन कानून लागू करने वाले तो नहीं बदल सके। इसलिये पंचों का कहा सिर माथे रहा, और परनाला वहां का वहां ही रह गया है। आप राजनीति में, शासन में साधारण व्यक्ति या कतार में खड़े आम आदमी को तलाशते रहिये, लेकिन वहां कोरड़पतियों की भीड़ उसी तरह लगी नज़र आती है। जन-प्रतिनिधि होने की एक पारी खत्म होते न होते, नेता जी रंक से राजा हो गये, लेकिन वह विस्थापित नेताओं को शहज़ादा और अपने आप को सड़क का आदमी बताते रहे।
आजकल जीवन में व्यथा-गाथा, तनाव और पराजय को सहने के लिए अलादीन का चिराग बेशक धर्म और मुक्ति के ठेकेदारों के पास चला गया है, जो अपना सीधा सम्पर्क जगत विधाता या परमात्मा से बताते हैं। अपनी चरण रज से लेकर अपनी अभिमंत्रित पानी की बोतल के छिड़काव से लोगों के जन्म-जन्म के दु:ख और विकट बीमारियां हर लेते हैं। चमत्कृत लोगों की भीड़ उनकी इस छवि के गिर्द लगने लगी है, और उनके राजसी ठिकाने जिन्हें वे दु:ख हरने वाले आश्रम कहते हैं, देश भर में फैलते चले जाते हैं। वे वैध हों या अवैध, इसकी पड़ताल बाबा का बुलडोज़र भी नहीं कर पाता। यहां आ कर वह निस्पन्द हो जाता है। गैर कानूनी अतिक्रमण की सूचियां यहां मौन धारण कर लेती हैं, या चुपके से यहां से आंख बचा कर गुज़र जाती हैं।
भ्रष्टाचार उन्मूलन से लेकर अपराधों को जड़ मूल से उखाड़ देने वाले नामों की सूचियों की तासीर यहां स्मृति भ्रम का शिकार हो जाती हैं और ठेकेदार बिना किसी अपराध के छींटों के बच निकलते हैं। किसी अपराधी को बख्शा नहीं जाएगा का दावा क्यों उनके नाम से बचकर निकल जाता है? कानून का शिकंजा कसता है लेकिन छोटी मछलियों के गिर्द, और बड़े-बड़े मगरमच्छ आशीर्वाद की मुद्रा में नेताओं को उनकी अगली चुनाव पारी के लिए अभयदान देते हुए नज़र आते हैं।
इस अभयदान का ढिंढोरा सड़क से संसद तक पीटा जाता है, और दिन-दिहाड़े सड़कों पर लूट और गोलीकांड की घटनाओं में वृद्धि होती चली जाती है।लेकिन यह वृद्धि चाहे बन्दूक कल्चर की घटनाओं में हो, या फिरौती की धमकियों की वृद्धि में, प्रशासन द्वारा इसके मुकाबले के दावे और अपनी सफलता के आंकड़े उसी प्रकार चलते रहते हैं। जिस दिन छापामारी में तस्कर या प्रतिबंधित सामान अधिक पकड़ा जाये, उसी दिन क्यों शहर के निर्जन स्थानों पर नौजवानों की लाशें अपने हाथों में नशे के इंजैक्शन पकड़े हुए बरामद होने लगती हैं? जिन मसीहाओं ने नशा-विरोधी अभियान संचालित किये, उनकी या उनके भाई बन्दों की गुप्त दराज़ों में प्रतिबंधित नशे की खेपें बरामद क्यों होने लगती है? विसंगतियों का ज़माना है, बन्धु!
देश स्पूतनिक गति से आर्थिक विकास कर रहा है, इसके रिपोर्ताज या इनकी सूचकांकों की विकास दरें समय-समय पर प्रसारित होती रहती हैं। बात अभिमान की हो रही थी। बेशक इन आंकड़ों से आत्म-गौरव बढ़ता है। देश के अभिमान में कोई कमी नहीं आती। आखिर दुनिया में पांचवीं, और फिर तीसरी और पहली आर्थिक शक्ति हो जाना कोई छोटी बात नहीं। निरन्तर सफलता के इन आंकड़ों ने हमें उत्सव-धर्मी बना दिया है। मुर्दाबाद के नारों को देश-निकाला मिल गया है, और ज़िन्दाबाद के नारे हर झुग्गी झोंपड़ी में दिये जलाते नज़र आते हैं, लेकिन इन विजय ध्वनियों से आम आदमी के पेट की भूख नहीं घटती। उसकी सही काम पाने के लिए छटपटाते हाथों को उचित रोज़गार नहीं मिल जाता। एक ओर निरन्तर तरक्की की दरों की पताकायें लहराता हुआ माहौल है, और दूसरी ओर उनकी किसी भी रियायत से उपकृत हो जाने के लिए ललचाती अधिकांश आबादी। एक ऐसा संतुलन है जो लगता है, इस देश में हमने साध लिया है।