उचित फैसला

केन्द्र सरकार द्वारा एकाएक चर्चित एवं विवादास्पद हो गये वक़्फ बोर्ड संशोधन विधेयक को लेकर संयुक्त संसदीय समिति बनाना नि:संदेह एक बहुत वाजिब और दुरुस्त फैसला कहा जा सकता है। लोकसभा में  पेश किये जाने के तत्काल बाद इस विधेयक को लेकर एक ओर मुस्लिम वर्ग के नेताओं की ओर से विरोध प्रकट किया जाने लगा था, वहीं सम्पूर्ण विपक्ष इस मुद्दे पर इण्डिया गठबन्धन के ध्वज तले एक-स्वर होने लगा था। सरकार बेशक इस विधेयक के मुद्दे पर दृढ़-निश्चयी प्रतीत होती हो, किन्तु विपक्ष की मांग पर उसने संयुक्त संसदीय समिति के गठन की घोषणा करके सचमुच लचकदार रवैया अपनाया है। वक़्फ बोर्ड का वजूद बेशक अंग्रेज़ी शासन के समय से रहा है, किन्तु इसे कानूनी दर्जा स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 1954 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की सरकार के समय मिला था। नि:संदेह खुदा के नाम पर दी जाने वाली सम्पत्तियों को केन्द्र में रख कर बनाया गया वक़्फ शुरू-शुरू में इस्लाम से जुड़े गरीब और आम लोगों के कल्याण के लिए तत्पर रहा, किन्तु कालांतर में इसमें अनेक त्रुटियां और कमियां पैदा होने लगीं। सम्पूर्ण मुस्लिम समुदाय का पिछड़ापन दूर करने, समाज में शिक्षा का प्रकाश फैलाने और उनकी ़गरीबी दूर करने तथा खास तौर पर मुस्लिम महिलाओं को शिक्षित करने के जिस उद्देश्य के तहत इसकी कल्पना की गई थी, उस पथ से भी वक़्फ बोर्ड भटक गया। इसकी इन्हीं त्रुटियों के दृष्टिगत आज़ादी से लगभग तीन दशक पहले की अंग्रेज़ी सरकार ने एक बार इसे अवैध करार देकर रद्द भी कर दिया था। आज़ादी के बाद 1954 में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की सरकार में इसे फिर पारित किया गया किन्तु धीरे-धीरे इसे लेकर इतनी शिकायतें उत्पन्न होने लगीं कि यह अपने आप में अत्यधिक विवादास्पद होकर रह गया। इसके बावजूद वर्ष 2013 में संप्रग के नेतृत्व में डा. मनमोहन सिंह की कांग्रेस नीत सरकार ने इस बोर्ड की शक्तियों को और बढ़ा दिया था। बहुत स्वाभाविक था कि इससे बोर्ड की ज्यादतियों और मनमानियों में इज़ाफा होता चला गया जिस कारण यह कानून और विवादास्पद होता चला गया। वर्ष 2014 में केन्द्र में भाजपा के नेतृत्व वाली राजग सरकार के गठन के बाद से देश के एक वर्ग में यह समझा जाने लगा था कि वक़्फ बोर्ड कानून में संशोधन होना लाज़िमी हो गया है। बेशक सरकार इस पथ पर निरन्तर सक्रिय भी रही। लिहाज़ा इसी मास केन्द्रीय विधि मंत्रालय ने केन्द्रीय मंत्रिमंडल की मंजूरी के बाद, इस कानून में लगभग 40 संशोधनों का एक विधेयक लोकसभा में पेश कर दिया किन्तु इसके पेश होते ही देश इस मामले पर दो विचारों में बंटने लगा था। मुस्लिम समाज का एक बड़ा वर्ग तो कुछ अधिक ही मुखर होने लगा था। 
वक़्फ बोर्ड के प्रति एक अधिक कटु आपत्ति यह भी की जाने लगी थी, कि इस बोर्ड का गठन बेशक मुस्लिम समुदाय की सम्पत्तियों के रख-रखाव हेतु हुआ था किन्तु इसने अपनी शक्तियों का विस्तार कुछ इस तरीके से किया कि ़गैर-मुस्लिम समुदायों की कुछ परि-सम्पत्तियां भी इसकी ज़द में ली जाने लगी थीं। इस कारण भी इसके अधिकार क्षेत्र पर आपत्तियां और शिकायतें दर्ज होने लगीं। केन्द्र की मोदी सरकार अपनी तीसरी पारी के शुरू से ही इस कानून को अपने निशाने पर लेने के उपाय करने लगी थी, और अब साझा सरकार का लाहा लेते हुए सरकार ने अन्तत: वक़्फ बोर्ड और इसके कानून के पंख कुतरने का एकपक्षीय फैसला कर लिया, और इस हेतु बाकायदा विधेयक भी प्रस्तुत कर दिया। बहुत स्वाभाविक है कि इस विधेयक के पेश होते ही इसके विरुद्ध आवाज़ बुलन्द होने लगी। ़गैर-भाजपा-शासित राज्यों में खास तौर पर इस विरोध का स्वर अधिक मुखर हुआ, तो सेंक सरकार के पैरों तले भी जा पहुंचा। इसी के बाद से सरकार ने अपने रुख को थोड़ा नर्म करते हुए संयुक्त संसदीय समिति के गठन की घोषणा कर दी।
वक़्फ बोर्ड और इस संबंधी कानून के विरुद्ध एकाएक उभरी जन-भावनाओं के दृष्टिगत, सरकार को अपने बहुमत के बल-बूते इसमें संशोधन अथवा परिवर्तन का बेशक अधिकार है, किन्तु यह सब कुछ आम सहमति और साझी राय के अनुरूप होना चाहिए, एकपक्षीय और बहुमत के बल पर धौंस नहीं जमाई जानी चाहिए। लोकतांत्रिक शासन में विपक्ष को भी अपना मत रखने की पूरी छूट है। भाजपा और उसकी केन्द्र सरकार लाख कांग्रेस-विरोध को बेशक तृष्टिकरण की नीति करार दे किन्तु विपक्ष की राय को अवश्यमेव सुना जाना चाहिए। वैसे भी, प्रस्तावित विधेयक में कुछ सुझाव अवश्य ऐसे हैं जिनसे एक ओर जहां वक़्फ से जुड़े विवादों और वादों में कमी आएगी, वहीं विवादास्पद बन गई सम्पत्तियों का समुचित समाधान भी सम्भव हो सकेगा। मुस्लिम समाज को केन्द्रीय वक़्फ परिषद् और राज्य वक़्फ बोर्ड के गठन पर भी आपत्ति हो सकती है, किन्तु हम समझते हैं कि इससे इस धरातल पर एक सम्पर्क-पुल बना रह सकता है। चूंकि सरकारें वक्फ बोर्ड को वित्तीय मदद भी देती हैं, अत: बहुत स्वाभाविक है कि सरकार का थोड़ा-बहुत अंकुश तो अवश्य रहना चाहिए। सरकारों की बात भी सुनी जानी चाहिए। प्रस्तावित संशोधनों में कुछ संशोधन ऐसे भी हैं। फिर भी, हम समझते हैं कि इस संबंध में जो भी फैसला लिया जाए, वह सर्व-सहमति और सभी से विचार-विमर्श करके लिया जाना चाहिए। इससे जहां देश में साम्प्रदायिक सद्भाव बना रहेगा, वहीं सरकार के लिए अपने उद्देश्य की पूर्ति का मार्ग भी प्रशस्त होने की सम्भावना है।