रोगी मानसिकता तथा दुष्कर्म

दिन-प्रतिदिन भारत में बढ़ रहे कुकर्म चिन्ता का विषय हैं। सोमवार 19 अगस्त को तीन पंजाबी समाचार पत्रों ‘अजीत’, ‘पंजाबी ट्रिब्यून’ व ‘देश सेवक’ तथा दो अंग्रेज़ी भाषा के समाचार पत्रों ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ तथा ‘द ट्रिब्यून’ ने कोलकाता दुष्कर्म व हत्या के मामले सहित चार स्थानों पर दुष्कर्म की घटनाओं के समाचार दिए हैं। इनमें देहरादून के बस अड्डे पर पांच व्यक्तियों द्वारा एक नाबालिग लड़की के साथ दुष्कर्म, बेंगलुरू में मोटरसाइकिस सवार से लिफ्ट लेने वाली छात्रा से मारपीट के बाद दुष्कर्म तथा जोधपुर की एक तीन वर्षीय बच्ची के साथ वहिशी दुष्कर्म के सामाचार शामिल हैं।
इन दुष्कर्मियों के बीज रोगी मानसिकता में हैं, जो उनका पालन करने वालों की लापरवाही बनी है। निश्चय ही उनके बचपन में उनके माता-पिता रोज़ी-रोटी के लिए काम पर जाते समय उन्हें अकेले छोड़ते रहे होंगे और आस-पास का बुरा माहौल उनके आकर्षण का केन्द्र बनता रहा होगा। पकड़े जाने के बाद उन्हें कैसी सज़ा मिलनी चाहिए, यह तो मनोवैज्ञानिक ही बता सकते हैं, परन्तु सभी अमीर और गरीब माता-पिता को इस बात की समझ होनी चाहिए कि यदि वे अपनी औलाद का पालन-पोषण उचित ढंग से नहीं कर सकते तो सिर्फ उतने ही बच्चे पैदा करें जितनो को सम्भाल सकते हैं।
एक नाबालिग बच्ची के साथ दुष्कर्म, विशेषकर बस अड्डे जैसे सार्वजनिक स्थान पर, उसके मन पर कैसा प्रभाव डालता है और समाज के प्रति किस प्रकार की धारणा बनाता है, यह भी सोचने वाली बात है। विषय बड़ा है और गम्भीर मंथन की मांग करता है। 
भारत-मालदीव एकता
विदेश मंत्री एस. जयशंकर के ताज़ा मालदीव दौरे ने मुझे 1976 का मालदीव याद करवा दिया है जब मैं डेढ़ महीना वहां रहा था। जिस सड़क को भारतीय सहायता से चार लेन करने के उद्घाटन के लिए विदेश मंत्री वहां गए थे। मैं सुबह की सैर करते हुए उस पर सागर की लहरों के साथ सड़क पर गिरीं मछलियां देखता था। मालदीववासियों का मुख्य भोजन मछली है और मैं वहां के बच्चों-बूढ़ों को मछलियां उठा कर खुशी-खुशी घर ले जाते हुए देखा। कुछ इस प्रकार जैसे होशियारपुर तथा अम्बाला ज़िलों के निवासी सड़कों के किनारे आम के पेड़ों से आंधी से गिरे आम उठाया करते थे। मुझे यह जान कर विशेष प्रसन्नता हुई कि भारत ने पिछले कछ वर्षों में मालदीव में 22 करोड़ अमरीकी डालर का निवेश किया है। विदेश मंत्री ने यह भी कहा कि भारत वहां पर्यटन के साधन पैदा करने के लिए भी अधिक निवेश करने का रास्ता तलाश रहा है। मालदीव समुद्र तल से लगभग आठ फुट ऊंचा है, परन्तु इसने अभी तक वह वक्त नहीं देखा जब सागर की लहरों ने इसे कोई नुकसान पहुंचाया हो, अपितु मछलियां दान करता है जो आबादी का भोजान बनती हैं। 
यह जान कर हैरान हो होना कि वहां की पुलिस तथा सेना के पास डंडे से बड़ा कोई हथियार नहीं। रस्म-रिवाज़ भी बहुत अजीब हैं। कोई व्यक्ति जितने चाहे विवाह कर ले, परन्तु एक समय एक से अधिक नहीं। यह भी कि यदि कोई व्यक्ति अपनी तलाकशुदा पत्नी से पुन: विवाह करना चाहता है तो उस पत्नी को वहां के कानून के अनुसार अपने पति से पुन: संबंध जोड़ेन से पहले किसी अन्य की दुल्हन होना पड़ता था, चाहे एक-दो दिन के लिए ही। वहां ऐसी शादी करने वाले पुरुष भी मिल जाते हैं, परन्तु उन्हें मालदीव समुदाय ऐसे ही नफरत करता था जैसे हमारे देशवासी दल्लों को करते हैं। 
इस छोटे-से देश के रस्म-रिवाज़ कैसे भी हो, भारत को इसके साथ अच्छे संबंध बना कर रखने पड़ते हैं। समुद्र में इसके रणनीतिक महत्व से दिल्ली द्वारा मालदीव का पांच करोड़ डालर का बिल आगे डाल कर इसकी अवधि में एक वर्ष की वृद्धि करना भी इसी भावना का हिस्सा है। चाहे चीन भी मालदीव की ओर मित्रता का हाथ बढ़ा रहा है, परन्तु मालदीव के आर्थिक विकास मंत्री मुहम्मद सैय्यद चीन के एक दौरे में वहां के टीवी चैनल पर अपने देश के आर्थिक विकास के लिए भारत का महत्व दर्शा चुके हैं। भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर के ताज़ा मालदीव दौरे को इस प्रसंग में देखने की ज़रूरत है।   
सुरेन्द्र गिल का जीवन दर्पन
मैंने सुरेन्द्र गिल को कवि के रूप में जाना है। किसी समय उसके द्वारा गा कर सुनाई गई कविता ‘छट्टा चानण दा देई जाना’ मेरे मन में अभी तक बसी हुई है। वह रघबीर सिंह सिरजना तथा सुलेखा जोड़ी के करीब रहा है और मैंने उसके बचपन एवं जवानी को उनके माध्यम से जाना है। वास्तविकता कितनी दुखद थी कि अभी-अभी प्रकाशित उनकी पुस्तक  ‘दोस्ती की सूही लाट’ के पृष्ठ खंगालते हुए पता चली है। विशेषकर चार वर्ष की आयु में उस समय जब उसकी मां का निधन हो गया। परमात्मा माताएं तो कई बच्चों से छीनता रहा है, परन्तु हर किसी ने वह समय नहीं देखा होगा जब यह घटना अचानक ही घटित हो गई और वह भी बाल-आयु में। गिल उसमें से गुज़रा है। 
उसने प्राथमिक तथा एम.ए. तक की शिक्षा के इतने वर्ष कैसे बिताए होंगे, इसका तो अनुमान लगाना भी आसान नहीं परन्तु शिक्षा प्राप्ति के बाद अचानक टी.बी. मैनेजाइटस की चपेट में आकर दयानंद अस्पताल में दाखिल होना तथा आने-जाने वाले न पहचानना बड़ा दुखद वृत्तांत है। ताज़ा पुस्तक में लेखक ने यह कुछ लिखा है। उसके अपने शब्दों में इस पुस्तक के लेख किसी सुनियोजित योजना या उद्देश्य को मुख्य रख कर नहीं लिखे, अखबारों के कहने पर गाहे-बगाहे लिखे थे। उसके जीवन में घटित घटनाओं सहित। उसने इस पुस्तक में मोहन सिंह, शिव बटालवी, डाक्टर सीता तथा वामपंथी पंडित किशोरी लाल संबंधी अपने लेखों को प्राथमिकता दी है। 
इस में लोप हो रहा गांव ही नहीं, गांव के लोग भी हैं। उनके गीत मृत्यु, सियापा तथा सभ्याचारक टोटके भी। नमूना पेश है। 
बुज़ुर्ग बाबा घर के द्वार के भीतर, चारपाई पर बैठा जा लेटा रहता। पास ही पड़ी होती उसकी छड़ी और पानी का बर्तन, मच्छर, मक्खी को रोकने के लिए कटोरे से ढंका हुआ। वह हर आने-जाने वाले को ‘कौन है’ पूछता और आगे जाने देता। घरों के आगे धूप सेंकते पोते-पोतियों को आवाज़ लगा कर बुलाता और पूरी खबर रखता। सर्दियों की रातों में उसका काम इन बालकों को अनोखी एवं रोचक कहानियां सुना कर हंसाना होता। 
वैसे शाम होती तो पूरे गांव वाले घरों के निकट चौपाल में जा बैठते। यह चौपाल एक-एक, दो-दो करके भरती जाती और रौनक लग जाती। यहां साधारण दुख-सुख से शुरू होती बात कहां की कहां पहुंच जाती। गांव की कोई घटना, खेल, पैलियां, मौसम, नई वारदात पड़ोसी गांव से आई खबर। चौपाल कई रूप बदलती। कभी सुधार सभा, कभी सत्संग, कभी कार्यकारिणी तथा कभी चुगल दरबार। सब कुछ सादा, साफ एवं स्पष्ट। यहां झूठ बोलना पाप था। एक न बख्शा जाने वाला गुनाह। यदि नियम टूटते तो भाईचारे में ही निपटा लिए जाते। पंचायत का फैसला सबके द्वारा माना जाता।  यह गांव की विधानसभा भी होती और संसद भी।
अंतिका
(नूर मुहम्मद नूर)
विच्च गुदामा थां न लब्भे,
 दाणा फक्का सांभण नूं,
सीरी दे घर खाली भांडे-टींडे 
दी कंगाली वेख।

#रोगी मानसिकता तथा दुष्कर्म