विफल होती जा रही है विपक्ष-मुक्त लोकतंत्र की योजना 

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के कुछ ऐसे फैसले आये हैं जिनके कारण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी की एक दूरगामी योजना खटाई में पड़ती दिख रही है। इस योजना को मैं विपक्ष-मुक्त लोकतंत्र बनाने का नाम देता हूं। पड़ोसी देश बांग्लादेश में श़ेख हसीना ने अपने तऱीके से विपक्ष-मुक्त लोकतंत्र बनाने का माडल तैयार किया था। इसके तहत उन्होंने विपक्ष का निरंकुश दमन किया, और आईनाघर नामक नारकीय जेल बना कर अपने विरोधियों को उसमें ठूंस दिया और उन्हें बर्बर यातनाएं दीं। श़ेख हसीना के बदनाम कार्यकाल में उनका विरोध करने वाले तकरीबन दस हज़ार लोग हमेशा के लिए लापता हो गए। विरोधी पार्टियों को प्रतिबंधित करना और फिर चुनाव में अपने डमी प्रत्याशी खड़े करके चुनावी प्रतियोगिता का ढोंग करना भी इसी मॉडल का हिस्सा था। मोहन भागवत और नरेंद्र मोदी का मॉडल हसीना के मॉडल से अलग तरह का है। इसकी गाइडलाइंस पहली बार मोहन भागवत ने नरेंद्र मोदी को थमायी थीं। विज्ञान भवन में दिये गये अपने भाषणों (इनका प्रकाश भविष्य का भारत शीर्षक के तहत हो चुका है) में इन गाइडलाइंस को देखा जा सकता है। 
आंतरिक सुरक्षा की चुनौती से संबंधित प्रश्न पूछे जाने पर उनका कहना था कि सरकार की कमियों का फायदा उठा कर सुरक्षा के लिए मुश्किलें पैदा करने वालों का ‘बंदोबस्त कड़ाई से होना चाहिए’। अगर ‘और स़ख्त कानूनों की आवश्यकता है तो बनने चाहिए’। यहां उल्लेखनीय है कि सरसंघचालक कड़े कानूनों की ज़रूरत पर बल देते हुए यह भी रेखांकित करते हुए दिखाई दिये कि शासन-प्रशासन अपना है— यह विश्वास लोगों के मन में पैदा करना होगा। ‘कानून तोड़ने वाले, देशद्रोह की भाषा बोलने वालों की तरफ से अपने ही समाज से उनका समर्थन करने वाले खड़े न हों, यह भी आवश्यकता है। तो समाज का मन ऐसा बने कि ऐसी बातें करने वाले अलग-थलग हो जाएं। ये दोनों बात जब होती हैं (कड़ा ़कानून और समाज का समर्थन न मिलना) तब फिर आंतरिक सुरक्षा अत्यंत मज़बूत रहती है।’
यह कोई साधारण बात नहीं थी। इन शब्दों में विपक्ष का कानून-आधारित दमन करने की रणनीति छिपी हुई थी। भागवत की तरफ से हरी झंडी मिलने के बाद मोदी सरकार ने धीरे-धीरे प्रतिरोध की राजनीति की विभिन्न अभिव्यक्तियों को दबाने के लिए एक बहुआयामी कानूनी ढांचे के विकास पर काम करना शुरू किया। ध्यान रहे कि कानून के प्रावधानों का इस्तेमाल करके वैचारिक विरोधियों को कोने में धकेलने का प्रयोग हिंदुत्ववादी राजनीति 2014 के पहले से ही कर रही थी। कांग्रेस के दस वर्षीय शासन के दौरान कला और संस्कृति के क्षेत्र में हो या किसी अन्य क्षेत्र में, हिंदू भावनाओं को आहत करने के नाम पर कलाकारों, एक्टिविस्टों और विद्वानों के खिलाफ देश के अलग-अलग इलाकों की अदालतों एक साथ मुकद्दमे दायर किये जाने लगे थे। इसी के समांतर बजरंग दलियों से चित्र प्रदर्शिनियों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों पर हमला करने की घटनाएं भी आयोजित की जाती रहती थीं। ऐसा करने वालों से जब पूछा जाता था कि वे इस तरह से आवाज़ दबाने का काम क्यों कर रहे हैं, तो उनका जवाब होता था कि अपनी धार्मिक और सांस्कृतिक भावनाओं की रक्षा के लिए कानून की मदद लेना उनका अधिकार है। कुल मिला कर उनका म़कसद यह था कि विचारधारात्मक विरोधी सहम जाएं। 
सत्ता में आने के बाद हिंदुत्ववादियों ने इस प्रौद्योगिकी का और विकास किया। मुकद्दमे दायर करने के अलावा वैचारिक विरोधियों को तंग करने के लिए पुलिस में देशद्रोह के आरोप के तहत रिपोर्ट दर्ज कराने का सिलसिला भी शुरू कर दिया गया। चूँकि ज्यादातर जगहों पर भाजपा ही सत्ता में है, इसलिए पुलिस वाले तत्परता से रिपोर्टें लिखने लगे। महज़ एक ट्वीट या एक पोस्ट पर देशद्रोह का इल्ज़ाम लगने लगा। इसके अतिरिक्त जिन पहलुओं पर सीधे-सीधे कानून बनाया जा सकता है, या संशोधन के ज़रिये स्थिति बदली जा सकती है, वहां भाजपा की सरकारें विधायी रास्ते का सहारा लेती हैं (जैसे, तीन तलाक, कश्मीर से धारा 370 हटाना और लव जिहाद के खिलाफ कानून बनाना)। जहां ऐसा तुरंत नहीं हो सकता, वहां हिंदुत्व की कानूनी टीमें अदालतों में याचिका डाल कर ‘लिटमस टेस्ट’ करती हैं (जैसे, काशी और मथुरा से मस्जिद और ईदगाह हटाने के हिंदू-अधिकार के लिए दायर की गई याचिका)। सोशल मीडिया और ओटीटी प्लेट़फॉर्म पर नियंत्रण के लिए सरकार की जारी कोशिशें इसका एक अन्य प्रमाण हैं। इसी तरह अल्पसंख्यक अधिकारों को लेकर की जाने वाली प्रतिरोध की राजनीति को पटरी से उतारने की कानूनी कोशिश भी की जा रही है। इसके तहत उन नौ राज्यों के बारे में याचिका दायर की गई जहां हिंदू संख्या की दृष्टि से अल्पमत में हैं। याचिका का  दावा है कि यहां हिंदुओं को धार्मिक अल्पसंख्यकों जैसे अधिकार मिलने चाहिए। 
विपक्ष-मुक्त लोकतंत्र का मॉडल उस समय अपने चरम पर पहुंचा जब एक कांग्रेसकालीन कानून पीएमएलए और उसके एक खास प्रावधान जिसे हम धारा 45 कह सकते हैं का इस्तेमाल करके विपक्ष-विहीन लोकतंत्र बनाने की ट्रिक तैयार की गई। 80 के दशक में नशे की तिजारत की विश्वव्यापी समस्या का सामना करने के लिए यूएन के निर्देशों के तहत बनाया गया यह कानून कैसे राजनीतिक दमन का औज़ार बना, यह एक ऐसा इतिहास है जिस पर अभी सिलसिलेवार काम नहीं हुआ है। कांग्रेस ने जब यह कानून बनाया था तो उसका म़कसद ड्रग बिज़नेस और उससे पैदा होने वाले अनापशनाप धन पर रोकथाम लगाना था। 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून की धारा 45 को असंवैधानिक भी घोषित कर दिया। लेकिन मोदी सरकार ने इस धारा के महत्व को भांपा और मनी बिन के ज़रिये चोर दरवाज़े से इसे फिर से जीवित करके उसे और कड़ा बना दिया। इसी के साथ प्रवर्तन निदेशालय को छापा मारने, रिपोर्ट लिखने, किसी को भी जांच के लिए बुलाने और गिरफ्तारी करने के असाधारण अधिकार दे दिये। इसके बाद शुरू हुआ विपक्ष के नेताओं की गिरप्तारियों का सिलसिला। उन्हें जेल में सड़ाने और उनका राजनीतिक भविष्य खत्म करने की योजना चल निकली। 
सुप्रीम कोर्ट ने किया यह है कि पीएमएलए कानून के तहत ज़मानते के मामलों की सुनवायी करते हुए एक बार फिर ज़मानत को नियम और जेल को अपवाद बताने की नज़ीर पेश की। उसने प्रवर्तन निदेशालय और सीबीआई की जांच प्रक्रिया को आड़े हाथों लिया, और वह यहीं नहीं रुका बल्कि निचली अदालतों के सरकारपरस्त रवैये पर उँगली रखी। एक लम्बे अरसे से हो यह रहा था कि निचली अदालतें (जिनमें बदकिस्मती से हाईकोर्ट भी शामिल हो गये थे) जांच एजेंसियों द्वारा सुनाई गई कहानियों पर यकीन करके किसी भी किस्म की राहत देने से इंकार करने लगी थीं।  सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियां मोदी सरकार को पूरी तरह से कठघरे में खड़ा करने के लिए पर्याप्त हैं। यह अलग बात है कि मौजूदा सरकार को आंख का लिहाज़ नहीं है। वह अपने ढर्रे पर ही चल रही है। लेकिन हवा, वक्त और राजनीति तेज़ी से बदल रही है। जल्दी है विपक्ष-मुक्त लोकतंत्र बनाने की यह हिंदुत्ववादी मुहिम मुंह के बल गिरते हुए दिख सकती है।   

लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।