स्कूल की छत ही नहीं गिरी, समूचा शिक्षा तंत्र ढह गया
राजस्थान के झालावाड़ ज़िले के सरकारी स्कूल की छत गिरने से मलबे में दबकर सात बच्चों की मौत होना मात्र एक खबर नहीं है। यह पूरी तरह से शिक्षातंत्र की लापरवाही और अंदर तक घुस चुकी राजनीति का परिणाम है। छत का गिरना सिर्फ राजस्थान में हुआ हो, ऐसा भी नहीं है। देश के हर राज्य में सरकारी स्कूलों की दशा-दिशा कमोवेश यही है। निजी स्कूलों को मात देने के लिए होते यत्न सफल नहीं हो रहे बल्कि शिक्षकों की शिक्षा प्रदान करने को लेकर सोच भी कम होती जा रही है। इतना जानने के बाद भी केन्द्र-राज्य सरकारें प्रतिनिद नए-नए प्रयोग कर रही हैं और मूलभूत सुविधाओं को बेहतर बनाने के स्थान पर सिर्फ लीपापोती कर रही हैं।
स्कूल की छत का गिरना और ज़िम्मेदार मानकर कुछ शैक्षिक कार्य में संलग्न कर्मियों को सरकार द्वारा निलम्बित कर देना, प्राथमिक तौर पर कठोर कारवाई भले लग रही हो, लेकिन यह वास्तव में लीपापोती के अतिरिक्त कुछ और नहीं है। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि किसी विद्यालय में ऐसा हादसा हुआ हो। इससे पहले छत का प्लास्टर गिरना, पंखा गिरना, टूटी बेंच से गिर-टकराकर बच्चों का घायल होना, शौचालय नहीं होने के कारण बच्चों का स्कूल से बाहर जाने से हादसों का घटित होना तथा छोटी-छोटी ज़रूरतों के लिए दानदाताओं पर आश्रित होना आम बात है। देश के सरकारी स्कूलों की हालत इतनी खराब हैं कि हर राज्य के आधे से अधिक विद्यालय खुद की सुरक्षा की मदद मांग रहे हैं। राजस्थान जहां पर यह अब तक का सबसे बड़ा हादसा हुआ है, वहां पर कम से कम 2200 स्कूलों की दशा बेहद जर्जर है। यह व्यवस्था कब शिक्षामंदिरों को मौत का मैदान बना देगी, कह पाना कोई मुश्किल नहीं है। यदि इसे समीक्षात्मक तरीके से देखें तो यह सरकारी विद्यालयों की नियति बन चुकी है।
झालावाड़ में जो हुआ, वह किसकी लापरवाही का परिणाम है? इसके लिए दोषारोपण आरंभ होने के साथ ही विद्यालयों की जांच तथा सुविधाएं बढ़ाने के लिए सरकारी आदेश जारी हो चुके हैं। लगभग हर राज्य की सरकार ने अपने यहां के सरकारी विद्यालयों में व्यवस्थाओं की समीक्षा करके असुरक्षित विद्यालयों में बच्चों को नहीं पढ़ाने के लिए कहा है, परन्चु सरकारें ये भूल रही हैं कि ऐसी स्थिति आज से नहीं है, ऐसा तो दशकों से हो रहा है। कहीं पर बैठने के लिए कुर्सी-मेज़, बेंच नहीं हैं, तो बच्चे खुले मैदान में दरी बिछाकर बैठते हैं। यह दरी भी या तो वह अपने घर से लाते हैं या फिर कोई दानदाता स्कूल को उपलब्ध करवा देता है। छप्पर के नीचे, पेड़ के नीचे या फिर मंदिर आदि में कक्षाओं का लगना, अब हमारी नियति का हिस्सा हो गया है।
सुविधाओं की हालत क्या है? यह इससे ही समझ में आ जाता है कि बच्चों के बैग, ड्रेस, जूते जैसी आम वस्तुएं भी दानदाता देते हैं। यह शिक्षातंत्र की शर्मनाक व्यवस्था ही है कि सरकार इसके लिए पैसा जारी करती है, लेकिन फिर भी दानदाताओं से मांगने में व्यवस्थापकों शर्म महसूस नहीं होती। स्कूलों में सत्तर प्रतिशत बच्चे तो दोपहर के मिड-डे-मील के लिए आते हैं और शिक्षक उन्हें भोजन आदि कराकर निश्ंिचत हो जाते हैं। संभवत: यह भी एक कारण है कि विद्यालयों में लापरवाही बढ़ने का, कि शिक्षामंत्री शिक्षा पर कम खुद की राजनीति ज़िंदा रखने के लिए व्यस्त रहते हैं। राजस्थान, जहां पर यह हादसा हुआ वह पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का चुनाव क्षेत्र है और वह राजस्थान की तेज-तर्रार मुख्यमंत्री मानी जाती रही हैं।
राजस्थान के शिक्षा मंत्री का भी इस क्षेत्र से गहरा नाता है और वह नियमित दौरे भी कर रहे हैं। आखिर उनके दौरों के दौरान ऐसे विद्यालय कहां गायब हो जाते हैं, जहां पर व्यवस्थाएं मदद मांगती हैं? तंत्र की राजनीति इस स्तर पर है कि अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों में शिक्षक बनने के लिए मंत्री तक की सिफारिश होती है, वह भी प्रतिनियुक्ति पर। विद्यालय विलय करना, ऐसा हो गया है जैसे बच्चों के कम आने पर कई कक्षाओं को एक कर देना। शिक्षकों को तबादले के लिए साल भर जूझना पड़ता है। यह भी कम हास्यास्पद नहीं है कि जिन्हें बच्चों को पढ़ाने की ज़िम्मेदारी निष्ठा-सत्यता से दी जाती है, वह तबादले के लिए कोई न कोई बहाना ढूंढ लेते हैं। अपवाद छोड़ दे, तो ग्रामीण क्षेत्रों में जाने के स्थान पर प्रतिनियुक्ति करवाने में ही पूरा ध्यान रखना अब शिक्षातंत्र में बीमारी बन चुका है। इन स्थितियों में विद्यालय की छत गिरने वाली है या फिर तपती धूप में पढ़ने की मजबूरी, शिक्षकों को यह देखने की फुर्सत ही नहीं मिलती।
राजस्थान, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे राज्यों में बच्चे अपनी जान जोखिम में डालकर कैसे स्कूल जाते हैं, यह प्रतिदिन के समाचार बताते हैं। कहीं उन्हें पीठ पर बैठाकर नदी पार कराई जाती है, तो कहीं जर्जर पुलों को पार करके वे स्कूल पहुंचते हैं। नाव में स्कूल जाना या फिर एक-दूसरे के सहारे नदी पार करना सिस्टम की उस लापरवाही को धिक्कारता है, जो छोटे-छोटे पुल बनाने के स्थान पर तबादलों के लिए सिफारिश की दौड़ और ज़िम्मेदार लोगों के बेहूदा बयानों से पैदा होती हैं। महाराष्ट्र में तो सरकारी स्कूलों की स्थिति देखते हुए उन्हें ज़िंदा ताबूत तक कहा जाने लगा है।
आखिर जो विद्यालय भवन गिरा है और उसके नीचे दबकर बच्चों ने अपना जीवन खोया है, उसके लिए ज़िम्मेदार लोगों का क्या होगा? क्या उन पर कोई मुकद्दमा दर्ज होगा? क्या उन्हें भविष्य में अब कभी शिक्षा मंदिरों में वापस आने नहीं दिया जाएगा? क्या जिनके बच्चे इस हादसे में नहीं रहे हैं, उनसे पूछा जाएगा कि गलती किसकी थी और उसके बाद दोषियों के वेतन से वसूली कर घायलों आदि की मदद की जाएगी? आखिर होगा क्या? कोई ठोस काम होगा या फिर एक जांच कमेटी गठित होगी और तारीख पर तारीख पड़ेगी। वैसे इस घटना का संदर्भ लेकर यदि देखा जाए तो साफ नजर आ रहा है कि कोचिंग संस्थानों में होने वाली आत्महत्याओं पर आज तक सरकारें कोई कदम नहीं उठा सकी है।
जब आज तक सरकार डमी शिक्षा नीति पर ही कोई कदम नहीं उठा पायी है तो यह जिन शिक्षण कर्मचारियों के दम पर वह पोलियो ड्रॉप पिलवाती है, जिनके दम पर चुनाव करवाती है, जो राशन कार्ड बनवाने में भी लगे रहते हैं, जो कोरोना जैसी बीमारी में घर-घर जाकर सर्वे करते हैं या गैर-शैक्षणिक काम लेती है, उनके खिलाफ कोई बड़ा कदम कैसे उठा पाएगी? आखिर गिरते विद्यालय और मानवीय मूल्यों के भ्रष्ट सिस्टम पर कैसे रोक लगेगी? बस हर सवालियां आंखें एक ही बात पूछ रही हैं कि देश के भविष्य बच्चों का भविष्य सरकारें कब सुरक्षित कर पाएंगी या फिर यह भी गिरते, खंडित होते विद्यालयों की तरह अपनी दशा पर विस्मित रहेंगे?
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर