जी.एस.टी. सुधारों का श्रेय विपक्षी पार्टियां नहीं ले सकीं

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अगर वस्तु व सेवा कर (जी.एस.टी.) में कटौती का श्रेय अकेले ले रहे हैं तो ऐसा सिर्फ कांग्रेस सहित विपक्षी दलों के नाकारापन की वजह से हो रहा है। ममता बनर्जी एकमात्र मुख्यमंत्री हैं, जो लगातार यह सवाल उठा रही हैं कि वस्तु व सेवा कर में कटौती का श्रेय अकेले केन्द्र सरकार कैसे ले रही है? उन्होंने पिछले सप्ताह कोलकाता में दुर्गा पूजा पंडालों का उद्घाटन करने के बाद इस बात को दोहराया कि केन्द्र सरकार और प्रधानमंत्री इसका अकेले श्रेय ले रहे हैं, जबकि जी.एस.टी. मे कटौती करने या स्लैब कम करने का फैसला राज्यों ने केन्द्र के साथ मिल कर किया था और इसका सबसे बड़ा नुकसान राज्यों को होने वाला है। यह हकीकत है कि जी.एस.टी. काउंसिल की 56वीं बैठक में अगर सभी राज्य सहमति नहीं देते तो यह फैसला नहीं हो सकता था। इस फैसले का नुकसान राज्यों को होगा, लेकिन हैरानी की बात है कि न तो कांग्रेस इसे मुद्दा नहीं बना रही है और न ही विपक्षी पार्टियों के शासन वाले राज्यों ने जी.एस.टी. कटौती का श्रेय लेने का कोई प्रयास किया। राज्य सरकारों के पास मीडिया बजट होता है और विज्ञापन पर भारी भरकम खर्च होता है लेकिन किसी राज्य सरकार ने वैसा अभियान नहीं चलाया, जैसी केन्द्र सरकार और भाजपा ने चलाया है। अगर विपक्ष ज़रा सी सक्रियता दिखाता तो विपक्षी शासन वाले राज्य एक साथ मिल कर जीएसटी कटौती का श्रेय लेने का अभियान चला सकते थे।  
अब केरल के लोग भी निशाने पर 
पश्चिम बंगाल के बाद अब केरल के लोगों पर अत्याचार की खबर आई है और वह भी दिल्ली में। गौरतलब है कि पिछले दिनों बिहार, उत्तराखंड, दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र यानी गुरुग्राम, फरीदाबाद, नोएडा और गाज़ियाबाद में बांग्ला बोलने वाले कई लोगों को बांग्लादेशी घुसपैठिए बता कर उन्हें प्रताड़ित करने और उन्हें बांग्लादेश भेजने की खबरें आई हैं। ऐसे कुछेक मामलों में तो हाईकोर्ट ने भी हस्तक्षेप किया है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी कई बार आरोप लगा चुकी हैं कि दिल्ली और एनसीआर में बांग्ला बोलने वालों पर अत्याचार हो रहा है और वहां से निकाला जा रहा है। बिल्कुल इसी तरह का आरोप केरल में सत्तारूढ़ लेफ्ट डेमोक्रेटिक अलायंस की ओर से लगाया जा रहा है। सीपीएम के सांसद जॉन ब्रिटास ने दिल्ली के पुलिस कमिश्नर सतीश गोलचा को चिट्ठी लिख कर शिकायत की है। उनकी शिकायत के मुताबिक केरल के दो लोगों को दिल्ली पुलिस ने बंधक बनाया और उन्हें प्रताड़ित किया। ब्रिटास का आरोप है कि दोनों को हिन्दी बोलने के लिए मजबूर किया गया और केरल की पारम्परिक वेशभूषा यानी लुंगी पहनने के कारण निशाना बनाया गया। हो सकता है कि यह संयोग हो, लेकिन ऐसा है तो यह कमाल का संयोग है। अगले साल केरल में विधानसभा के चुनाव है और उससे पहले सीपीएम को यह मुद्दा मिल गया है। इस घटना के हवाले सीपीएम नेता भाजपा पर आरोप लगा रहे हैं और उसे मलयाली भाषा और केरल की संस्कृति का विरोधी बता रहे हैं।
सिद्धारमैया की आक्रामक राजनीति
कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया जिस तरह बिल्कुल अपने अंदाज़ में राजनीति कर रहे हैं, उससे ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस आलाकमान ने भी उनके आगे हथियार डाल दिए हैं। जैसे-जैसे अढ़ाई साल की कथित समय सीमा नज़दीक आ रही है वैसे-वैसे उनकी आक्रामकता बढ़ती जा रही है। उन्होंने कांग्रेस आलाकमान पर इतना दबाव डाल दिया है कि अगर उसके मन में डीके शिवकुमार को अढ़ाई साल के बाद मुख्यमंत्री बनाने का रत्ती भर भी विचार है तो वह उस बारे में सोचना बंद कर दे। कर्नाटक में जैसी राजनीति हुई है, उसमे सिद्धारमैया को बदलना कांग्रेस के लिए आत्मघाती हो सकता है। सिद्धारमैया ने मैसुरू दसरा यानी मैसूर दशहरा कार्यक्रम का उद्घाटन बानू मुश्ताक से ही कराया। सभी तरह के  राजनीतिक, सामाजिक और कानूनी दबाव के बावजूद वह नहीं झुके। मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया। तमाम सामाजिक समूह भी विरोध कर रहे थे कि हिन्दू त्योहार का उद्घाटन कोई मुस्लिम कैसे कर सकता है, चाहे उसकी उपलब्धियां कितनी भी बड़ी हों, लेकिन सिद्धारमैया ने कराया। इसी तरह राज्य सरकार की ओर से शुरू कराई गई जाति गणना से लिंगायत समुदाय में विभाजन स्पष्ट है। पिछले दिनों एक मठ के स्वामी को हटाया गया क्योंकि उन्होंने लिंगायत लोगों से अपील की थी कि वे हिन्दू धर्म में ही अपनी गिनती कराएं। ज्यादातर समूहों ने अपने को अन्य श्रेणी में दर्ज कराने का फरमान जारी किया है। अत: कर्नाटक के सबसे बड़े हिन्दू धार्मिक समुदाय में विभाजन का दांव भी उन्होंने चला है। ऊपर से पिछड़ी जातियों के बीच अपना आधार मज़बूत किया है। 
गठबंधन के लिए ओवैसी की बेचैनी
देश में गठबंधन की राजनीति का दौर चल रहा है तो सभी पार्टियों को गठबंधन के लिए सहयोगियों की ज़रुरत होती है। लेकिन आजतक किसी पार्टी को गठबंधन के लिए इतना बेचैन नहीं देखा गया, जितनी बेचैन असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एम.आई.एम. बिहार में है। उसकी ओर से लगातार राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और कांग्रेस पर गठबंधन करने के लिए दबाव डाला जा रहा है, लेकिन न तो राजद तैयार है और न कांग्रेस। दोनों पार्टियां अपने ऊपर कोई लेबल नहीं लगवाना चाहती है। इसलिए वे कोई ध्यान नहीं दे रही हैं। ओवैसी और बिहार में उनकी पार्टी के नेता चाहते हैं कि महागठबंधन में उन्हें भी किसी तरह से शामिल किया जाए। सबसे पहले एम.आई.एम. के प्रदेश अध्यक्ष अख्तर उल ईमान ने राजद और कांग्रेस नेताओं को पत्र लिखा, जिसमें कहा कि बिहार में एनडीए को रोकने के लिए समान विचारधारा वाली सभी पार्टियों को एक साथ आना चाहिए। इसके बाद एक दिन एम.आई.एम. के नेता ढोल-नगाड़े बजाते हुए राबड़ी देवी के आवास पर पहुंच गए और गठबंधन में शामिल होने की मांग करने लगे। पत्र और ढोल-नगाड़े वाला दांव नहीं चला तो ओवैसी के समर्थकों ने तेजस्वी यादव की बिहार अधिकार यात्रा के दौरान कई जगह उन्हें रोका और कहा कि एम.आई.एम. को वह गठबंधन में शामिल करें। ऐसा लग रहा है कि ओवैसी को इस बार दिख रहा है कि एन.डी.ए. को हराने के लिए मुस्लिम पूरी तरह से महागठबंधन के साथ हैं। इसलिए उनकी ओर से लगातार महागठबंधन में शामिल होने का प्रयास हो रहा है।
बीसीसीआई में भी कद से बड़ा पद
अब तक ऐसा सिर्फ भाजपा में ही हो रहा था कि चुन-चुन कर ऐसे लोगों को ऊंचे पद दिए जा रहे हैं, जिनका राजनीतिक कद उस पद के अनुरूप नहीं होता है। जनाधार वाले नेताओं की जगह नया नेतृत्व लाने के नाम पर पहली बार या दूसरी बार के ऐसे विधायक मुख्यमंत्री बनाए गए हैं, जिन्हें उनके अपने क्षेत्र से बाहर कोई नहीं जानता है। अब यह सिद्धांत क्रिकेट के सबसे बड़े संगठन भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) में भी पहुंच गया है। जिस संगठन में भारत के सबसे महान कप्तान सौरव गांगुली अध्यक्ष रहे, वहां अब मिथुन मन्हास अध्यक्ष बनने वाले हैं। गौरतलब है पिछले कुछ सालों से बीसीसीआई पूरी तरह से जय शाह के नियंत्रण में ही है, जिनकी एकमात्र योग्यता यह है कि वह केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के बेटे हैं। पिछली बार सौरव गांगुली की जगह पुराने टैस्ट क्रिकेटर रोजर बिन्नी को अध्यक्ष बनाया गया था। हालांकि वह मूर्ति की तरह पद पर स्थापित किए गए थे। उन्होंने अध्यक्ष के तौर पर सिर्फ नौकरी की। अब उनकी जगह मिथुन मन्हास को अध्यक्ष बनाया जा रहा है। मिथुन मन्हास दिल्ली की टीम से खेलते थे, लेकिन आज तक उन्होंने भारत के लिए कोई अंतर्राष्ट्रीय मैच नहीं खेला है। उनके पास न तो प्रशासनिक अनुभव है और न क्रिकेट कोच के तौर पर उन्होंने काम किया है। हो सकता है कि वे निष्ठावान हो। सिर्फ इसी आधार पर उन्हें बीसीसीआई का अध्यक्ष बनाया जा रहा है।

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