दो के बहाने सात सौ

जिंदगी के तीन अक्षरों में दो शब्दों का बड़ा महत्त्व होता है। परन्तु आज तक मैं इन दो शब्दों का अर्थ नहीं समझ पाया। ये दो शब्द होते क्या हैं और कहे कैसे जाते हैं, यह मेरी समझ से परे ही रहा। दो शब्द कहने वाला इतना परेशान नहीं होता जितना परेशान उन दो शब्दों को सुनने वाला। ये दो शब्द सुनने के लिए धैर्य किसी दुकान पर नहीं मिलता, इसे अपने अंतर में पैदा करना पड़ता है। लिखारी बड़े हों या छोटे, उनका सामना इन दो शब्दों से पड़ता ही है। हर लिखारी चाहता है कि उससे बड़ा लिखारी अगर उसकी पुस्तक के लिए दो शब्द लिख देगा तो पता नहीं उसके दो शब्दों के कारण ही उसकी पुस्तक बेस्टसेलर का अवॉर्ड ले मरे। बड़ा लिखारी उन दो शब्दों में अपना पूरा जीवन झोंक देता है और अक्सर वे दो शब्द कम से कम पुस्तक के दो तीन पृष्ठों पर पसर जाते हैं। यूं लगने लगता है कि जैसे शब्दों ने स्वयं ही विस्तार का ठेका ले रखा हो।
अब देखिए, अगर कोई मुझसे कहे कि ‘भाई साहब, बस दो शब्द बोलिए,’ तो मैं तो भैया ‘राम राम’ कहकर मंच से नीचे उतर जाऊं। लेकिन अगर आयोजक बुरा मान जाएं और कहें, ‘अरे, आपने तो कुछ बोला ही नहीं!’ तो मेरा सीधा सा उत्तर होगाए, ‘भाई साहब, आप ही ने तो कहा था कि दो शब्द बोलने हैं।’ अब इसमें मेरा क्या दोष? पर अफसोस, हर कोई इतना सुलझा हुआ नहीं होता।
हमारे स्कूल के एक प्रिंसीपल साहब को ही देख लीजिए। उनकी आदत थी कि छुट्टी से पांच मिनट पहले स्टाफ मीटिंग में ‘दो शब्द’ कहने की। जैसे ही यह घोषणा होती कि ‘आज प्रिंसीपल साहब दो शब्द कहेंगे’, वैसे ही स्टाफ में सिहरन दौड़ जाती। कई दूर-दराज़ से आने वाले शिक्षक बेचारे पहले ही बेचैन हो जाते क्योंकि उनकी बस छूटने का पूरा-पूरा खतरा बन जाता था।
समस्या सिर्फ बस छूटने की नहीं थी, समस्या तो असली उनके ‘दो शब्दों’ की लंबाई की थी। जब वे ‘दो शब्द’ बोलने के लिए खड़े होते तो घड़ी की सुइयां भी ठहरकर सोचने लगतीं कि इनकी बात कब खत्म होगी। 10-15 मिनट नहीं, घंटा बीत जाता था, लेकिन ‘दो शब्द’ थे कि खत्म होने का नाम ही नहीं लेते थे। कई बार तो ऐसा हुआ कि शिक्षक छुट्टी के समय ‘दो शब्द’ सुनने आए और रात के खाने की योजना वहीं बनानी पड़ी।
अब बात करें हमारे एक वरिष्ठ व्यंग्यकार मित्र की, तो वे जब भी ‘दो शब्द’ कहने के लिए माइक थामते, तो ऐसा लगता कि माइक और वे किसी पुराने अखाड़े के प्रतिद्वंद्वी हैं। माइक को पकड़ते ही वे उसे इस तरह घूरने लगते जैसे कोई पहलवान अपने प्रतिद्वंद्वी को देखता है। उधर, माइक भी उनकी ओर ऐसे ताकता जैसे उसकी लंबी परीक्षा बस अब शुरू होने वाली हो। शुरू में तो श्रोता बेचारे बड़े उत्साह से ताली बजाकर उनका स्वागत करते, किन्तु कुछ देर बाद इस आशा में जोर-जोर से तालियां पीटते कि कब ये अपने दो शब्दों को विराम दें।
किसी साहित्यिक गोष्ठी में जब किसी कवि महोदय को दो शब्द कहने के लिए बुलाया जाता है तो जेब से पर्ची निकाल पढ़ने वाले कवि से मंच छुड़वाने के लिए क्या-क्या पापड़ बेलने नहीं पड़ते? श्रोताओं की बेचैनी बढ़ती रहती है। उनका धैर्य जवाब दे देता है। मगर कवि महोदय के दो शब्द खत्म नहीं होते। मंच संचालक को ही बार-बार उनका कुर्ता खींच कर उन्हें बिठाने की चेष्टा करनी पड़ती हैं। कईं मामलों में तो पजामा खींचने तक की नौबत आ जाती है।
दो शब्दों की गूंज सिर्फ साहित्यिक गोष्ठियों या शिक्षण संस्थानों तक सीमित नहीं रहती, बल्कि चुनावी रैलियों में इसका रंग ही कुछ और होता है। जब ये दो शब्द किसी ऐसे व्यक्ति के मुंह से निकलते हैं जिसकी आवाज फटे बांस जैसी हो, तो उनका भार और भी बढ़ जाता है।
वास्तव में ‘दो शब्द’ बहुत ही खतरनाक शब्दावली है। जब भी आपको लगे कि कोई व्यक्ति दो शब्द कहना चाहता है तो सावधान हो जाइए। या तो दो शब्द सुनने का धैर्य पैदा कीजिए या वह स्थान छोड़ जाइए। वैसे आपके धैर्य की प्रशंसा मुझे भी करनी होगी कि दो के बहाने सात सौ तो आपने पढ़ ही लिए।
-मो. 8901006901

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