एक कहानी जो कभी खत्म नहीं होगी ... गिरीश कर्नाड

1973 की एक शाम अपने धारवाड़ स्थित मकान में डिनर करते हुए गिरीश कर्नाड (1938-2019) को अपने जीवन का सबसे बड़ा शॉक लगा। उनकी मां ने उनके पिता से कहा, और हम सोचते थे कि हमें यह बेटा नहीं चाहिए ...। गिरीश कर्नाड उस समय 35 वर्ष के थे और लापरवाही में की गई इस टिप्पणी की गहराई में जाना चाहते थे। मालूम हुआ- उनके माता-पिता के पहले से ही तीन बच्चे थे और वह चौथा बच्चा नहीं चाहते थे, जो उस समय गर्भ में था। इसलिए वह पुणे के एक डॉक्टर के पास गये गर्भपात कराने के लिए। लेकिन लम्बी प्रतीक्षा के बाद भी जब डॉक्टर क्लीनिक पर नहीं आयीं तो हार मानते हुए वह घर लौट आये। सोचो! अगर उस दिन गर्भपात हो जाता तो दुनिया गिरीश कर्नाड को देखने से वंचित रह जाती। इस घटना को अपनी आत्मकथा ‘आदादाता आयुष्य’ में लिखते हुए गिरीश कर्नाड ने कहा था कि ‘संयोग से मिली यह जानकारी मेरे लिए बिजली गिरने से कम न थी’। गिरीश कर्नाड ने अपनी आत्मकथा डा. मधुमालती गुणे को समर्पित की है, जो उस दिन क्लीनिक नहीं पहुंचीं थीं। गिरीश कर्नाड का 10 जून, 2019 को अपने बैंगलुरु स्थित निवास पर निधन हो गया। वह 81 वर्ष के थे। कल्पना कीजिये कि भारतीय संस्कृति क्षेत्र को अगर यह  81 बसंत न मिलते तो वह कितने गिरीश कर्नाडों से महरूम रह जाता- उस गिरीश कर्नाड से जो ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता नाटक लेखक था, जिसने भारतीय थिएटर को नई दिशा दी। उस गिरीश कर्नाड से जो कन्नड़ में ‘वमशा’, ‘वृक्षा’, ‘काडू’, ‘ओंदानोंदु कालादाल्ली’ और हिंदी में ‘गोधूलि’ व ‘उत्सव’ जैसी फिल्मों का संवेदनशील निर्देशक था। उस गिरीश कर्नाड से जो 1970 व 80 के दशकों में शबाना आजमी, स्मिता पाटिल व नसीरुद्दीन शाह के साथ आर्ट सिनेमा का स्तंभ था तथा उस गिरीश कर्नाड से भी जो हाल के वर्षों में टाइगर सीरीज (एक था टाइगर, टाइगर अभी जिन्दा है) में सलमान खान को कठिन मिशन पर भेजता है। इसके अतिरिक्त भी गिरीश कर्नाड का एक अन्य पहलू था। वह सामाजिक, सांस्कृतिक या राजनीतिक मुद्दों पर अपनी राय हमेशा खुलकर व्यक्त करते और अकसर जनहित के आंदोलनों का हिस्सा भी बनते। कोंकणी बोलने वाले सारस्वत परिवार में जन्मे गिरीश कर्नाड ने अंग्रेजी की बजाय कन्नड़ में अपने नाटक लिखे (बाद में स्वयं ही उनका अंग्रेजी में अनुवाद किया), हालांकि वह रोड्स स्कॉलर थे और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस के साथ सात वर्ष तक प्रकाशक थे। उन्होंने सफलता के साथ अनेक सार्वजनिक पदों (निदेशक- फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया, चेयरमैन- संगीत नाटक अकादमी, निदेशक- नेहरु सेंटर, लंदन) पर ही कार्य किया, जिनमें से कुछ तो समानांतर प्रयास थे। लेकिन एक सफल चालक की तरह वह हाईवे पर लेन बदलते रहे और अपनी मंजिल तक भी पहुंचे। जब गिरीश कर्नाड निदेशक फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीच्यूट ऑफ  इंडिया थे तो ओम पुरी को रिजेक्ट कर दिया गया था कि उनकी एक्टर जैसी शक्ल नहीं है, लेकिन गिरीश कर्नाड के हस्तक्षेप से ओम पुरी को प्रवेश मिला और देश को एक शानदार एक्टर।  बहरहाल, गिरीश कर्नाड का सबसे अधिक महत्व व प्रभाव थिएटर में था। लगभग 12 फिल्मों का निर्देशन, अनेक टीवी धारावाहिकों व डाक्यूमेंट्री का निर्देशन, हिंदी, कन्नड़, तमिल, तेलगु व मलयालम की 90 से अधिक फिल्मों में अभिनय करने वाले गिरीश कर्नाड ने 15 नाटक लिखे। इनमें समकालीन विषयों का बल और
अतीत में गहरी डुबकी है। गिरीश कर्नाड को दो नावों में पैर रखकर सफर करना पसंद था- एक्टिंग में मुख्यधारा व आर्ट फिल्में। नाटक लेखक के रूप में कन्नड़ व अंग्रेजी भाषाएं, निर्देशक के रूप में समकालीन साहित्य व क्लासिक संस्कृत नाटक। लेकिन उन्हें बॉलीवुड के गीत व नृत्य पर भी कोई आपत्ति नहीं थी। उनका  मानना था कि हिंदी सिनेमा हॉलीवुड की घुसपैठ को अपनी गीत व नृत्य की परम्परा से ही रोक सका है।भारत में गिरीश कर्नाड जैसी बहुआयामी प्रतिभाएं कम ही  हुई हैं। लेकिन उनके व्यक्तित्व का एक गुण जो भारतीय दिलों पर नक्श हो गया है, वह है उनकी अडिग, स्पष्ट विचारों वाली उदारवादिता। वह कट्टर हिंदुत्व के  सबसे बड़े आलोचक व विरोधी थे। इस कारण पुलिस जांच के अनुसार वह दक्षिण पंथियों की हिट-लिस्ट में थे। बैंगलुरु में एक प्रदर्शन के दौरान गले में काली पट्टी  लटकाए हुए उन्होंने कहा था, ‘अगर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ नक्सल होना है तो मैं अर्बन नक्सल हूं।’ यह थे गिरीश कर्नाड- फ्री स्पीच के चैंपियन। विरोधाभास देखिये कि जो मां गिरीश कर्नाड को संसार में लाना नहीं चाहती थीं, उन्हीं को गिरीश कर्नाड ने अपनी सफलता का श्रेय दिया है। उनकी मां कृष्णाबाई  किशोरावस्था में विधवा हो गई थीं। उन्हें अपने बड़े बेटे की परवरिश करने के लिए अनेक कुरीतियों व संकटों का सामना करना पड़ा। फिर वह धारवाड़ में नर्स का  जॉब करते हुए डा. रघुनाथ कर्नाड के साथ रहने लगीं। बाद में उनसे विवाह किया व चार अन्य बच्चों की परवरिश की। उन्होंने 1920 के दशक के कठिन  सामाजिक वातावरण का डटकर सामना किया और अपनी आप-बीती भी लिखी, जिसे गिरीश कर्नाड ने बाद में खोजा। इस तरह से गिरीश कर्नाड की मां ने उनकी  संवेदनशीलता को आकार व दिशा दी। यूनिवर्सिटी में गिरीश कर्नाड अंग्रेजी शायरी करना चाहते थे, लेकिन नाटक लिखने लगे जिनमें मिथ, लीजेंड, लोक कथा व इतिहास के जरिये वर्तमान को देखा गया है। इसका श्रेय उन्होंने ए.के. रामानुजन को दिया है जिनसे उनकी लम्बे समय तक दोस्ती रही। एक निर्देशक के रूप में गिरीश कर्नाड ने 1970 के दशक में नव-वास्तविकता पर आधारित नये युग के कन्नड़ सिनेमा की नीव रखी, जिसे वह सत्यजित रे से प्रेरित बताते थे। बाद में
उन्होंने कहा कि वह फिल्में उस पीढ़ी का उत्पादन थीं जो नेहरु वादी सपने से जुड़ी थी। अपने नाटक ‘प्ले विद ए कोबरा’ में गिरीश कर्नाड ने लिखा है, ‘आप कहानी सुनकर उसे वहीं नहीं छोड़ सकते, आपको उसे किसी और को भी सुनानी है।’ तो गिरीश कर्नाड की कहानी उनके निधन से समाप्त नहीं हो जाती, वह बार-बार सुनाई जाती रहेगी।

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