राष्ट्र की आत्मा हैं तीर्थ

भारतीय परम्परा में तीर्थों का महत्व सदैव रहा है। तीर्थ का अर्थ है पवित्र करने वाला। उस नदी, सरोवर, मंदिर अथवा भूमि को तीर्थ कहा जाता है, जहां भगवद् दिव्य शक्ति का वास माना जाता है। जिस भूमि में दिव्य पावन कारिणी शक्ति होती है, वहां जाने से मानव अपने  अंत:करण में पावनता की अनुभूति करता है। भगवान श्री राम के अवतार के कारण अयोध्या को परमधाम और सरयू को मुक्तिदायक तीर्थ कहा गया है। इसी प्रकार श्री कृष्ण की लीला स्थली सम्पूर्ण ब्रज ही तीर्थ माना जाता है जिसकी परिक्र मा करने अथवा इसकी पावन रज मस्तक पर को मस्तक पर लगा भक्तजन धन्य हो जाते हैं। भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति में धर्म एवं धार्मिक क्रि या कलापों का प्राचीन काल से ही महत्वपूर्ण स्थान रहा है। भारतीयों ने प्रकृति के मनोरम एवं पवित्र स्थलों यथा-विशाल एवं लम्बी नदियों, पर्वत एवं वन आदि के साथ अपने आराध्यदेव का तादात्म्य स्थापित करते हुए स्थायी स्मारकों एवं वस्तुओं का निर्माण किया जिससे उनका धर्म युग-युगान्तर तक अमर रहे और इस क्र म में तीर्थ परम्परा की जो नींव पड़ी, वह अनवरत रूप से अपने आध्यात्मिक एवं दर्शनीय महत्व के कारण चलती रहे। गुरुदेव रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने अपनी कृति ‘साधना’ में कहा है, ‘भारत ने तीर्थयात्रा के स्थलों को वहीं चुना जहां प्रकृति विशिष्ट आवश्यकताओं से ऊपर उठ सके और अनन्त में अपनी स्थिति परिज्ञान कर सके।’प्रकृति के ये सभी स्थल आज भारतीयों के लिए प्रेरणा-स्रोत बने हुए हैं और इन्हीं स्थलों के दर्शन भारतीयों को सन्मार्ग एवं सदाचार के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं। अतीत में भारत के संत-महात्माओं ने इन्हीं स्थानों पर जीवन एवं जगत के गूढ़तम एवं जटिल रहस्यों को जाना तथा मानवता का संदेश दिया। कालान्तर में ये स्थल भारतीयों  के लिए तीर्थस्थल बनते चले गए। तीर्थों एवं पुनीत स्थलों का उल्लेख अत्यंत प्राचीन काल से होता आया है।  प्राचीन भारत में तीर्थयात्रा का इसलिये भी महत्व था क्योंकि आज की भांति भारत राजनीतिक दृष्टि से एक न था अपितु यह विभिन्न राज्यों, सम्प्रदायों तथा उपसम्प्रदायों  में विभाजित था किंतु तीर्थ यात्राओं के माध्यम से देश के सांस्कृतिक एवं मौलिक एकीकरण को आधार मिला। बद्रीनाथ, केदारनाथ, प्रयाग एवं रामेश्वरम् आदि तीर्थ स्थल उत्तर एवं दक्षिण में समान रूप से पवित्र माने जाते हैं। तीर्थयात्रा को महाभारत एवं पुराणों में यज्ञों से भी श्रेष्ठ बताया गया है क्योंकि यज्ञादि में अनेकानेक उपकरणों एवं पात्रों की उपस्थिति आवश्यक होती है, अत: उनका सम्पादन राजाओं, महाराजाओं, एवं धनिकों द्वारा ही सम्भव है जबकि तीर्थयात्रा सर्वसुलभ होती है। तीर्थयात्रा का वास्तविक प्रयोजन तन-मन को पवित्र कर आत्मा का उद्धार करना होता है। तीर्थ ही राष्ट्र की आत्मा हैं। तीर्थ भक्त और भगवान को जोड़ें या न परंतु अपनी सांस्कृतिक विरासत से अवश्य जोड़ते हैं। भारत में विभिन्न मत-मतान्तरों के अनेक तीर्थ हैं। लोग अपनी-अपनी आस्था के अनुसार आत्म-शुद्धि के लिए तीर्थयात्रा करते रहे हैं। पवित्र तीर्थों की यात्रा करने की परम्परा आदि काल से है। प्राचीनकाल में जब यातायात के साधन आज की भांति विकसित नहीं थे, तब भी लोग कर्त्तव्य भावना से एवं शुद्ध-बुद्ध से आराधना और पुण्य संचय का साधन मानकर हजारों मील की दुर्गम यात्राएं हर कष्ट को सहते हुए पैदल ही किया करते थे। दुर्गम, पहाड़ों पर, घने जंगलों में, नदियों के तट पर, सागर तट पर, संगम में, मरुस्थलों में जहां-जहां भी संतों-ऋ षियों ने तपस्या की, वहां जीवन में कम से कम एक बार पहुंचने की इच्छा हर आस्थावान भारतीय रखता है। बारह वर्ष बाद लगने वाले कुम्भ आमजन तथा बुद्धिजीवियों के मिलन के मेले हैं जहां आपसी संवाद और रीति-रिवाज़ों का परिचय होता है। भारतवर्ष में 98 प्रतिशत व्यक्ति जब अपने घर से बाहर कहीं निकलते हैं तो मुख्यत: तीर्थयात्रा करने के लिए ही निकलते हैं। छुट्टियों में भी लोग वैष्णो देवी, हरिद्वार,तिरुपति आदि स्थानों की यात्राए करते हैं। भीषण झंझावातों को झेल, हजारों वर्षों के विदेशी आक्र मणों के पश्चात् भी भारत राष्ट्र, यहां का धर्म एवं संस्कृति जीवित रही, इसके पीछे कुछ न कुछ तो विशेष बात रही ही है।  जो व्यक्ति अहंकार एवं कुप्रवृत्तियों से रहित है, वही तीर्थफल प्राप्त करता है। जो अकल्पक है (प्रवंचना कपट से दूर), निरारम्भ है (धन कमाने के लिए भांति-भांति के उद्योगों से निवृत्त) जितेन्द्रिय है ( इन्द्रियों के संयम द्वारा पाप कर्मों से दूर) है और जो अक्र ोधी है, सत्यशील है, दृढ़वृत्ति है, अपने समान ही अन्यों को जानने-मानने वाला हो, इसका तात्पर्य यह है कि जिन्हें ये विशेषताएं प्राप्त नहीं हैं, वे तीर्थयात्रा द्वारा पापों का नाश कर सकते हैं किन्तु जो इन गुणों से युक्त हैं, वे और भी अधिक पुण्य फल प्राप्त करते हैं। वायुपुराण में कहा गया है कि पाप कर्म कर लेने पर यदि धीर (दृढ़-संकल्प या बुद्धिमान), श्रद्धावान एवं जितेन्द्रिय व्यक्ति तीर्थयात्रा करने से शुद्ध हो जाता है तो उसके विषय में क्या कहना जिसके कर्म शुद्ध हैं परंतु जो अश्रद्धावान है, पापी है, नास्तिक है, संशयात्मा है और जो हेतुद्रष्टा (व्यर्थ के तर्कों में लगा हुआ) है, वह तीर्थफल का भागी नहीें हो सकता। वास्तव में तीर्थों का अन्तरंग स्वरूप कल्पवृक्ष अथवा चिन्तामणि जैसे गुणों वाला होता है। अन्तर मात्र इतना है कि कल्पवृक्ष  अथवा चिंतामणि, जहां नैतिक सुख-सुविधाओं से सम्बंधित आशा एवं अभिलाषा की पूर्ति करते हैं, वहीं तीर्थस्थल साधक की समस्त कामनाओं की पूर्ति करते हैं। तीर्थ मुक्ति भी देते हैं, युक्ति भी देते हैं और साथ ही भक्ति का अवलम्बन भी प्रदान करते हैं। वामन पुराण के अनुसार, ‘सभी आश्रमों यथा-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास के लोग तीर्थ में स्नान कर कुल की रक्षा करते हैं।’ काल प्रवाह के क्रूर चंगुल में फंसकर तथा इसके चलते होने वाले सांस्कृतिक प्रदूषण से भारत के तीर्थ स्थलों की जहां एक ओर पवित्रता नष्ट होती रही है, वहीं इनकी दिव्यता एवं भव्यता में भी गिरावट आयी है। इसके अतिरिक्त आधुनिकता और झूठी शान के नाम पर तीर्थों का पर्यटन केन्द्र के रूप में इस्तेमाल होने लगा है। इससे इन तीर्थ स्थलों में जाकर लोगों के मन-मस्तिष्क में जहां पहले शांति एवं अध्यात्म की तरंगें हिलोर लेने लगती थीं, वहीं अब इनकी दुर्दशा देखकर उनका मन क्लेश से भर उठता है। भारतीय संस्कृति के विकास के लिए तीर्थस्थलों का विकास जरूरी है। तीर्थ के रख-रखाव के अभाव में तीर्थ लुप्त होते जा रहे हैं। सरकारें अपना  लोक-कल्याणकारी कार्य सम्पादित करने में घोर उपेक्षा बरत रही हैं तो वहां सक्रि य पंडे, पुजारी भी कम दोषी नहीं हैं। वे तीर्थ को अपनी दुकान और श्रद्धालु को अपना ग्राहक समझने लगे हैं। अफसोस कि वे पंडे समझ नहीं पा रहे हैं कि मर्यादा का रक्षण और पर्यावरण संरक्षण न किया गया तो लगातार सिकुड़ती श्रद्धा एक दिन लुप्त हो सकती है। स्पष्ट है कि भारतीय संस्कृति की रक्षा करने एवं भारत के लुप्त होते तीर्थों को पुन: स्थापित करने के महत्वपूर्ण कार्य के लिए सरकार पर आश्रित नहीं रहा जा सकता। हम सभी को जागना पड़ेगा। तीर्थों को प्लास्टिक के दुष्प्रभाव से बचाना भी जरूरी है। सरकार को उन्नत प्रौद्योगिकी का उपयोग इन तीर्थों विशेष रूप से पर्वतीय स्थानों के पर्यावरण को बचाने के लिए करना चाहिए। बढ़ती आबादी पर रोक, कंकरीट के जंगल खड़े होने से पहले उन्हें रोकना, प्रदूषण रहित यातायात के साधनों के इस्तेमाल पर सर्वाधिक ध्यान दिया जाना चाहिए। (उर्वशी)

—विनोद बब्बर